सम्पूर्ण चरक संहिता

चरक संहिता के अनुसार
आयुर्वेद के आठ अंग

1. काय चिकित्सा
2. बाल तंत्र
3. ग्रह चिकित्सा
4. उर्ध्वांग चिकित्सा
5. शल्य चिकित्सा
6. द्रष्टा विष चिकित्सा
7. जरा चिकित्सा
8. बाजीकरण तंत्र

अब यहां दीर्घ जीवतीय नामक अध्याय का व्याखान करते हें। ऐसा ही भगवान आत्रेय ने कहा था। दीर्घ काल तक जीवन की इच्छा से उग्र तपस्वी भरद्वाज मुनि देवों के राजा इन्द्र को शरण योग्य जानकर उनके पास गये।
1. निष्प्रयोजन और अमिधेय रहित अर्थ बुद्धिमानों में प्रवृत्ति नहीं होती है। इसलिये सब से प्रथम शास्त्र का प्रयोजन अभिधेय और सम्बन्ध बतलाना चाहिए।
इस शास्त्र का प्रयोजन ‘धातु साम्य है। धातु साम्य का अर्थ विषम हुए धातुओं को समान करना और समान धातुओं का रक्षण करन है। अथवा रोगी के रोग का निवारण करना और स्वस्थ व्यक्ति के स्वस्थ की रक्षा करना। आरम्भ में ब्रहमा ने पूर्ण रूप से ग्रहण किया। दक्ष से दोनों अश्वनीकुमारों ने अश्विनी कुमारों से इन्द्र ने ग्रहण किया इसी करण ऋषियों से प्रेरित होकर भरद्वाज मुनि इन्द्र के पास आये।
जब तप, उपवास ब्रहम्चर्य अध्ययन व्रत और आयु इन में विघ्न करने वाले रोग उत्पन्न हो गये तब प्राणियों पर दया करके पुण्यत्मा महर्षिगण पवित्र हिमालय के पार्श्व में एकत्र हुए। पुरूष के स्वास्थ्य की रक्षा करना है जैसा कि सुश्रुत ने कहा है
अभिधेय सम्बन्ध हेतु दोष और द्रव्य ये स्कन्धत्रय और रोगों के उत्पन्न न होने की बिधि का बतलाना।
शास्त्र और प्रयोजन का उपेय-उपाय सम्बन्ध है।
भगवान का लक्षण ‘‘ उत्पत्तिम प्रलयं चैव भूतानामागतिं गतिम।
वेधि विद्यामविद्या च स वाच्यो भगवानिति।।’’
1. अश्वनीकुमारों से इन्द्र ने पढ़ा ही था, पढ़ाया नहीं था इन्द्र को शिष्य की चाह थी, क्योंकि बिना पढ़ाये विद्या संशय रहित नहीं बनती।
2. सुश्रुत में ‘‘ब्रहम्मा प्रवोच ततः प्रजापतिरधिजगे, तस्मादश्विनौ, अश्विम्यामिन्द्रः।’’
अंगिरा, जमदग्नि वसिष्ठ कश्यप, भृगु, आत्रेय गौतम सांख्य पुलस्त्य नारद असित अगस्त वामदेव अश्वरथ्य भार्गव च्यवन, अभिजित गार्ग्य शण्डिल्य कोण्डिन्य, वार्क्षि देवल, गालव साडंकृत बैजवापि कुशिक वादरायण, वडिश शरलोमा, काप्य कात्यायन, कांकायन कैकशेय, धौम्य, मारीचि, काश्यप, शर्कराक्ष, हिरण्याक्ष, लोकाक्ष, पैडिग्ग, शौनक शाकुनेय मैत्रेय गैमतायनि, बैखानस, वालखिल्य और अन्य ब्रहम्ज्ञान यम नियम तप के तेज से चमकते हुए आहुति से उज्जवल अग्नि के समान तेजस्वी महर्षि लोग वहां सुख से विराज कर, इस पुण्यशाली कथा को इस प्रकार कहने लगे-
धर्म अर्थ काम और मोक्ष इन चारो पुरूषार्थों का मूल कारण आरोग्य ही है। रोग इस आरोग्य अभ्युदय तथा जीवन को नाश करने वाले हैं। मनुष्यों के लिए ये रोग बड़े विघ्न्रूप हो गये हैं। इस लिए इन रोगों की शान्ति का उपाय क्या होना चाहिए? ऐसा कहकर वे सब ऋषि ध्यान मग्न हो गये, उन्होने अन्तश्चक्षु से इन्द्र को अपने को शरण देने वाले के रूप में देखा और जान लिया कि देवों का राजा इन्द्र ही शान्ति का उपाय कहेगा।
प्रश्न उपस्थित हुआ कि शचिपति इन्द्र से पूछने के लिए इन्द्र भवन तक कौन जाय? ऋषि भरद्वाज ने सबसे प्रथम कहा कि इस कार्य में मुझको नियुक्त किया जाये। इसलिए अंगिरा आदि ऋषियों ने भरद्वाज ऋषि को ही इस कार्य में नियुक्त कर दिया।
इन्द्र भवन में जाकर उन्हों ने देवऋषियों के मध्य में प्रदीप्त अग्नि के समान तेजस्वी बल नाम असुर को मारने वाले इन्द्र को देखा है। बुद्धिमान भरद्वाज ने इन्द्र के सन्मुख जाकर जय सूचक आशीर्वादों से इन्द्र का अभिनन्दन करके ऋषियों का उत्तम बचन प्रस्तुत किया।
हे अमर प्रभो सब प्राणियों को भय देने वाली व्याधियां उत्पन्न हो गयी है। इसलिए आप इनकी शान्ति का उपाय उपदेश करें।
भगवान इन्द्र ने महर्षि भरद्वाज को महामति जान कर थोड़े ही शब्दों में संक्षेप से आयुर्वेद का उपदेश किया।
हेतु (रोग का कारण) लिंग (रोगी के चिन्ह), औषध, (संशोधन और संशमन रूप चिकित्सा), स्वस्थ एवं रोगी दोनों के लिए परम गति और जिस का पितामह (ब्रहमा) ने प्रथम ज्ञान किया था, उस तीन सूत्र वाले पुण्य, श्रेष्ठ और नित्य, सनातन आयुर्वेद का इन्द्र ने उपदेश किया। महामति भरद्वाज मुनि ने एकाग्रचित होकर इस अनन्त और अपार और तीन स्कन्धों वाले आयुर्वेद का यथावत शीध्र ही सम्पूर्ण जान लिया। भरद्वाज मुनि ने इस
1. निःसूत्र- हेतु दोष और द्रव्य संग्रह रूपः
हेतु संग्रह- काल बुद्धीन्द्रियार्थानां योगो मिथ्या न चाति च।
द्वयाश्रयाणां व्याधीनां त्रिविधो हेतु संग्रह।।
दोष संग्रह- वातःपितं कफश्रोक्तः शरीरो दोष संग्रहः।
मानसः पुरिूद्दिष्टो राजश्च तम एव च।
द्रव्य संग्रह- किंचितद्दोष प्रशमनं किंचिद् धातु प्रदूषणम।
स्वस्थ वृत्तौ मतं किचित् त्रिविधं द्रव्यमुच्यते।।
अथवा त्रि सूत्र शब्द से वात, पित्त और कफ का ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि सम्पूर्ण आयुर्वेद शास्त्र इन्ही तीनों में ओत प्रोत है। आयुर्वेद के द्वारा ही सुख से युक्त दीर्घ आयु प्राप्त की। और उसने ऋषियों को न अधिक और न कुछ कम ज्यों का त्यों ही सम्पूर्ण शास्त्र का उपदेश किया दीर्घ आयु करने की इच्छा वाले ऋषियों ने भी लोक की हितकामना से इस आयु वर्धक आयुर्वेद को भरद्वाज से ग्रहण किया।
ज्ञान की चक्षु से ऋषियों ने सामान्य, विशेष, गुण, द्रव्य, कर्म, समवाय, का यथावत् पूर्ण रूप से दर्शन किया। इन को यथावत् जानकर आयुवद विघि से हितकारक पदार्थों का सेवन और अहितकारी पदार्थों का त्याग कर परम सुख, आरोग्य और दीर्घ जीवन प्राप्त किया।
तत्पश्चात सब प्राणियों में मैत्री बुद्धि रखने वाले पुनर्वसु आत्रेय ने सब प्राणियों पर दया का अनुभव करके इस पवित्र आयुर्वेद का छः शिष्यों को उपदेश किया । अग्निवेश, मेड़ जतूकर्ण पराशर हारीत और क्षारपाणि इन छः शिष्यों ने मुनि के उस उपदेशवचन का ग्रहण किया।
अग्नि वेश की बुद्धि विशेष थी, मुनि आत्रेय के उपदेश में कोई अन्तर नहीं था। अग्निवेश ही सब से प्रथम आयुर्वेद तंत्र का कर्ता हुआ। इसके पीछे मेड आदि बुद्धिमान शिष्यों ने भी अपने तंत्र बना कर बहुत से ऋषियों के साथ विराजमान आत्रेय मुनि को सुनाये। पुण्यकर्ता अग्निवेश आदि ऋषियों द्वारा भली प्रकार से सूत्र रूप से गुंथे हुए आयुर्वेद शास्त्र को सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसका प्रसन्नता से अनुमोदन भी किया कि ठीक प्रकार से ग्रथित (गंूथा) हुआ है। सब प्रणियों पर दयालु उन ऋषियों की सब ने प्रशंसा की। सब ने एक साथ उच्चस्वर से कहा कि आपने प्राणियों पर बहुत उत्तम रूप से दया की है। स्वर्ग में स्थित देवों सहित नारद आदि देव ऋषियों ने भी उन पर परम ऋषियों के पुण्य शब्द को सुना। इस को सुनकर वे भी बहुत प्रसन्न हुए। समस्त प्राणियों ने हर्ष से अति स्नेह युक्त एवं गम्भीर शब्द से साधुवाद किया। समस्त प्राणियों ने हर्ष से अति स्नेह युक्त एवं गम्भीर शब्द से साधुवाद दिया। इस साधुवाद की ध्वनि आकाश में फैल कर तीनों लोेकों को गंुजा दिया। सुखदायक वायु बहने लगा, सब दिशायें प्रकाश से चमकनें लगी, जल से भी दिव्य कुसुम बरसने लगे।
(बुद्धि) उपलब्धि (सिद्धि) साध्य-साधन, (स्मृति) पूर्व अनुभूत अर्थ का स्मरण, (मेधा) धारण करने की शक्ति, (धृति) मन की संतुष्टि, कीर्ति क्षमा, अपकारी के प्रति अनपकार की इच्छा (दया) प्रणियों के दुख हटाने की इच्छा, ये ज्ञानमय देवता अग्निवेश आदि ऋषियों में प्रविष्ट हुए अर्थात ये शुभ गुण इनमें आये।
महर्षियों द्वारा अनुमोदित उक्त ऋषियों के शास्त्र लोगों के परम कल्याण के लिए पृथ्वी पर प्रतिष्ठा को प्राप्त हुए-
आयुर्वेद का लक्षण-
हिताहितं सुख दुःखमायुस्तस्य हिताहितम।
मानं च तत्रं यत्रोक्तमायुर्वेदः स उच्यते।।41
हित अहित और सुख और दुःख यह चार प्रकार की ’’आयु’’ है। इस आयु का हित-अहित पथ्यापथ्य और इस आयु का मान-परिणाम यह सब जिस शास्त्र में कहा हो, तथा आयु का लक्षण मिलता हो, उसे आयुर्वेद कहते है। हित आयु अहित आयु सुखी आयु, दुखी आयु चार प्रकार की है।
आयु का लक्षण-
शरीरेन्द्रियसत्वत्मसंयोगो, धारि जीवितम।
नित्यगश्वचानुबन्धष्वच पर्यायरायुरूच्यते।।
(शरीर) पंच महाभूतों से बना, आत्मा का अधिष्ठान, (इन्द्रिय) भौतिक इन्द्रियां, (सत्व) मन, (आत्मा) द्रष्टा, भोक्ता, जीव और ईश्वर, इनके संयोग का नाम ‘‘आयु’’ कहाता है।
आयु अर्थात जीवन के पर्यायवाची शब्द (धारि) शरीर को धारण करता है, (जीवित) प्राणों को धारण करता है, नित्य निरन्तर चलता है। प्राणों के साथ सम्बन्धित है। चेतनानुवृत्ति, इन पर्यायवाची से बतलाया जाता है।
यह आयुर्वेद सबसे अधिक श्रेष्ठ पुण्यजनक है। क्योंकि अन्य ज्ञान पारलौकिक हित को ही बतलाते हैं। यह आयुर्वेद इहलोक और परलोक दोनों को कहता है। ऐसा ज्ञानियों का मत है। सब पदार्थों का सब कालों में सामान्य -समान गुण धर्म ही वृद्धि का कारण होता है, और विमेद या विपरीत होना ही ह्रास का कारण होता है। दोनों शरी के साथ सम्बन्ध सब पदार्थ की वृद्धि और ह्रास का कारण है। सब कालों में शरीर के अन्दर दोनों ही धर्म रह सकते हैं। इसीलिए शरीर में बृद्धि और क्षय शरीर का बनना (मेटाबोलिज्म) और शरीर का टूटना (कीटाबोलिज्म) दोनों क्रियाऐं हर समय होती रहती है। एकत्व बतलने वाला धर्म ‘‘सामान्य’’ है। और पृथक भाव बतलाने वाला धर्म विशेष है। क्योंकि समान धर्म का होना यह सामान्य है, और इससे विपरीत होना विशेष है।
(सत्व) मन (आत्मा) चेतना और शरीर इन तीनों से बने हुए को ‘‘लोक’’ कहते है। यह तीनों मिलकर तिकन्टी या तिपाई की तरह लोक को धारण किये हुए है। इस संयोग से बने हुए पुरूष में जन्म मरण आदि
समान गुण वाले – इसका अर्थ यह है कि द्रव्य गुण कर्म इनमें सम्पूर्ण रूप से समान गुण वाले पदाथ ही ग्रहण करने चाहिए।
जिस प्रकार खटटा आंवला भी खटटे पित्त को नहीं बढ़ाता, अपितु शीत वीर्य होने से पित्त का शमन करता है।, क्योंकि पित्त उष्ण है।
द्रव्यसमान से विपरीत प्रभाव-तैजस क्षार से शलेष्मा का क्षय
गुण द्रव कांजी से शलेष्मा का लघु रूक्ष गुण के कारण क्षय
कर्म नींद से वायु का नाश, भागने से कफ का क्षय होना,
सामान्य और विशेष का स्वरूप तुल्यर्थता अर्थात समानार्थक होने नाम समान और विपरीत का अर्थ विशेष है।
तिकन्डी में एक बल्ली या स्तम्भ के निकाल देने से वह खड़ी नहीं रह सकती, इसी प्रकार इन तीनों में से एक के न होने से पुरूष स्थिर नहीं रह सकता। यह सत्वादि समुदाय पुरूष कहलाता है और वह चेतन द्रव्य है यही आयुर्वेद का अभिकरण है और इसी के लिए यह आयुर्वेद प्रकाशित किया गया है।
आकाश आदि (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी- ये पांच महाभूत) आत्मा, मन, काल, और दिशा ये द्रव्यों का संग्रह है। इन्द्रियों सहित द्रव्य चेतन है। इन्द्रियों रहित द्रव्य अचेतन है। अर्थ, (इन्द्रिय और मन के ग्राहय विषय) गुरू आदि बुद्धि, इच्छा से लेकर प्रयत्न तक और आदि अभ्यास पर्यन्त गुण है।
इन्द्रियों के अर्थ- शब्द स्पर्श, रूप रस, और गन्ध-मन के अर्थ चिन्तन विचार, द्रुहना, ध्यान, संकल्प, गुरूत्व, लघुत्व, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, मन्द, तीक्षण, स्थिर, सर मृदु, कठिन, विशद, पिच्छिल, श्लक्ष्ण, खर, स्थूल, सूच्म, सान्द्र, द्रव, ये बीस तथा इच्छा द्वेष सुख दुख और प्रयत्न, पर अपर, युक्ति, संयोग, विभाग, पृथकत्व, परिणाम, संस्कार, और अभ्यास ये गुण है।
कर्म- प्रयत्न जन्य चेष्टा शरीर का व्यापार कर्म कहाता है। प्रर्यत्न पूर्वक अर्थात चेष्टापूर्वक क्रिया का नाम कर्म है।
समवाय लक्षण- पृथ्वी आदि द्रव्यों का
काल का लक्षण-सूक्ष्ममापि कलां न लीयते संकलयति वा भूतानि इति कालः।
दिशा का लक्षण- जिससे यह व्यवहार किया जाय कि यह इससे पूर्व या पश्चिम है उसका नाम दिशा है।
अपने गुणों से पृथक न होना ‘‘समवाय’’ है। अर्थात द्रव्य गुणों के बिना नहीं रह सकते और गुण बिना द्रव्य के नहीं रह सकते। यह समवाय सम्बन्ध नित्य है। (संयोग की तरह अनित्य नहीं) क्योंकि जहंा पर द्रव्य है, वहां पर गुण नहीं रहता ऐसा नहीं, अपितु निश्चित ही है। जहां द्रव्य है वहां गुण भी है। इस लिए द्रव्य और गुण का नियत सम्बन्ध होने से इनका सम्बन्ध भी नियत ही है।
द्रव्य का लक्षण- जिसमें कर्म और गुण आश्रित है और जो समवायि कारण है, वह ‘‘द्रव्य’’ है।
द्रव्य के साथ समवाय सम्बन्ध वाला निश्चेष्ट (निष्क्रिय) एवं कारणवान गुण है। गुण निर्गुण होते हैं, गुण में गुण नहीं होता है, जैसा कि लिखा है ‘‘गुणा गुणाश्रय नोक्ता’’
कर्म का लक्षण-
संयोग च वियोगे च कारणं द्रव्यमाश्रितम्
कर्तव्य क्रिया कर्म कर्म नान्दपेक्षते।।
जो कि द्रव्य का आश्रय लेकर रहता है, तथा संयोग और विभाग में कारण है, उसका नाम ‘‘कर्म’’ है। कर्म किसी अन्य कर्म की अपेक्षा नहीं करता। ‘‘द्रव्य और गुण परस्पर एक दूसरे के समवाय की अपेक्षा जरके कारण बनते हैं। तथा कर्तव्य कार्य का अनुष्ठान रूप कर्म है।
किये हुए सदवृत्त, शान्ति मंगल- पाठ आदि अनुष्ठाान भी कर्म है, ये अध्यात्म कर्म है।
समवाय का लक्षण- अयुतासिद्धानां (जो कभी पृथ्क नहीं होते)
जैसे तन्तु और वस्त्र का या मिटटी और घड़े का समवाय सम्बन्ध है। इस प्रकार सामान्य आदि छः कारणों का वर्णन किया गया है। अब उनका कार्य कहा जाता है। इस शास्त्र में धातुओं का साम्य करना ही कार्व्य है। इस शास्त्र का प्रयोजन भी धातुओं को समान रखना ही है।
क्षीण हुए धातु बढ़ाने चाहिए, बढ़े हुए घटाने चाहिए और सम्मान का रक्षण करना चाहिए। जैसा कि आगे कहेंगें। धातुओं के विषम होने का कारण
काल (शीत-वर्षा ग्रीष्म रूपी संवत्सर आथवा परिणाम) बुद्धि और इन्द्रियार्थ (इन्द्रियों के विषय शब्द स्पर्श रूप, रस और गन्ध) इन तीन के अतियोग और मिथ्यायोग होने से दोनों प्रकार की शारीरिक और मानसिक व्याधियां उत्पन्न होती है।
शरीर और सत्व (मन) वे दोनों ही (पृथक रूप से एवं सम्मिलित रूप में ) रोगों की अधिष्ठान भूमि है। और जिस प्रकार ये दोनों व्याधियों का आश्रय स्थान है, इसी प्रकार सुख का भी आश्रय स्थान वही है।
सुख का कारण- काल, बुद्धि और इन्द्रियों के विषयों का, सम (उचित रूप में) योग होना ही आरोग्य का कारण है। कहा भी है-
सुखहेतुर्मतस्त्वेकः समयोगः सुदुर्लभः
आत्मा का स्वरूप कहते हैं- निर्विकारः परस्त्वात्मा सत्वभूतगुणेन्द्रियैः।
चैतन्ये कारणं नित्यो द्रष्टा पश्यति हि क्रियाः।।
निर्विकार और सूक्ष्म आत्मा, मन, शब्दादिगुण, इन्द्रियों द्वारा चैतन्य में कारण है, वह नित्य है, साक्षी, है क्योंकि यह सब क्रियाओं को देखता है। अचेतन शरीर और मन के चौतन्य में यह आत्मा ही कारण है और वह नित्य है। 32
संक्षेप रूप में शारीरिक दोषों के कारण वात, पित्त और कफ है। और मानसिक दोषों के कारण रज और तम है। शारीरिक कोई भी इन वात पित्त कफ के बिना नहीं हो सकता।
शारीरिक दोष दैव व्यपाश्रय और युक्ति व्यपाश्रय औषधियों से शान्त हो जाते हैं। मानसिक दोष ज्ञान (आत्मा आदि के) विज्ञान अर्थाता शास्त्र ज्ञान, चित्त की स्थिरता (स्मृति) अनुभूत पदार्थ का स्मरण, (समाधि) विषयों से मन को हटा कर आत्मा में लगाना इनसे शान्त हो जाते हैं।
देव व्यपाश्रय -मणि, मंत्र, औषधि, बलि, उपहार, होम, नियम, प्रायश्चित आदि कर्म जो कि देव को आश्रय कर दिये जाते हैं।
युक्ति व्यपाश्रय – अर्थात योजना, युक्ति को आश्रय कर किये गये संशोधन, संशमन, आदि कर्म।
वायु का लक्षण- वायु रूक्ष, शीत, लघु, सूक्ष्म, चल अर्थात गतिशील, विशद, अर्थात अपिगमाश्च खर और कठोर है इन से विरीत गुण वाले स्निग्ध, उष्ण गुरू, स्थूल, स्थिर पिच्छिल और मृदु द्रव्यों से शान्त होता है।
वायु को प्रथम लिखा गया है क्योंकि वात जन्य रोग ही सब से अधिक है। शीत से वायु बढ़ता है और उष्णता से कम होता है। इस लिए वायु को बैधक शास्त्र में शीत प्रकृति माना है।
पित्त के लक्षण- स्नेह सहित अर्थात थोड़ा स्निग्ध, उष्ण तीक्षण शीघ्र कार्य करने वाला, सुई की तरह तेज, द्रव, अम्ल, खटटा सर, गमनशील, और कटु रस है। पित्त विपरीत गुण वाले द्रव्यों से शीघ्र शान्त हो जाता है।
कफ के लक्षण- गुरू शीत, मृदु, स्निग्ध, मधुर, स्थिर, और पिच्छिल, ये कफ के गुण हैं। इनके विपरीत गुण वाले पदार्थों से ये गुण शान्त होते हैं। शान्त होने से गुणी कफ भी शान्त हो जाता है।
साध्य रोगों की शान्ति- विपरीत गुण वाले (हेतु विपरीत व्याधि विपरीत और हेतु और व्याधि दोनों के विपरीत और कार्य करने वाले) द्रव्यों की देश मात्रा, काल के अनुसार योजना करने पर औषध से साध्य व्याधियां शान्त हो जाती है, असाध्य रोग अच्छे नहीं होते। और जो रोग औषधियों से असाध्य है उनके के लिए औषध का उपदेश भी नहीं किया जाता। इसके आगे फिर विस्तार से एक-एक द्रव्यगुण कर्म को आचार्य कहेगें।
रसों की उत्पत्ति- रसनेन्द्रिय से ग्राहय से गुण रस है। इस रस की उत्पत्ति में आधार कारण जल और पृथ्वी है। इस रस के भेद करने में आकाश, वायु और अग्नि ये तीनों निमित्त कारण होते हैं। वास्तव में रस की उत्पत्ति स्थान जल और पृथ्वी इसका आधार है। क्योंकि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य से मिल जाता है। जल और पृथ्वी में आकाश, वायु और अग्नि का भी अंश समाविष्ट रहता है। कहा भी गया है-
तेषामेकगुणं पूर्व गुणबृद्धिः परे परे।
पूर्वः पूर्वो गुणाश्चैव क्रमशः गुणिषु स्मृताः।।
इसीलिए, रस एक रस और रस के छः भेद हो जाते हैं जैसे पृथ्वी और जल, की अधिकता से मधुर, पृथ्वी और अग्नि की अधिकता से अम्ल, जल और अग्नि की अधिकता से लवण, वायु और अग्नि की अधिकता से कटु, वायु और कषाय रस बनता है।
स्वादु, मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त, और कषाय ये संक्षेप में रस हैं। विस्तार से इनके परस्पर संयोग से 63 भेद हो जाते हैं।
रसों द्वारा दोषों की शान्ति-
स्वादु अम्ल और लवण, ये रस वायु को शमन करते हैं, कषाय, मधुर और तिक्त रस पित्त को, कषाय, कटु और तिक्त रस कफ को शान्त करते हैं।कटु अम्ल और लवण, पित्त को कुपितु अर्थात उत्पन्न करते हैं। मधुर अम्ल, और लवण रस कफ को, कटु और तिक्त और कषाय रस वायु को बढ़ाते हैं। इन रसों में प्रत्येक रस के द्रव्य गुण और कर्म आगे (आत्रेय भद्रकाप्यीय नामक 26वों अध्याय) में विस्तार से कहेगें।
द्रव्य के भेद- द्रव्य तीन प्रकार के हैं (1) कुछ द्रव्य वात आदि रोगों को शोधन एवं शमन करते हैं। जैसे- तेल वायु का, घी पित्त का, और मधु कफ का शमन करता है। (2) कुछ द्रव्य शरीर को धारण करने वाले वात आदि वा रस आदि को दूषित व कुपित करते हैं। और (3) कुछ द्रव्य स्वास्थ्य का रक्षण करते हैं वे स्वस्थ अवस्था के लिए हितकारी है। जैसे- लाल चावल, साठी के चावल जीवन्ती शाक आदि।
द्रव्य फिर तीन प्रकार के हैं (जांगल) प्राणियों से उत्पन्न होने वाले, और (2) (औद्भिद) भूमि को भेदन करके पृथ्वी में से उत्पन्न होने वाले वनस्पति आदि। (3) (पार्थिव) भूमि से उत्पन्न होने वाले खनिज।
जंगम द्रव्य -मधु गोरस, दूध, घी, आदि पित्त वसा मज्जा रक्त मांस, विष्ठा मूत्र चर्म वीर्य अस्थि, स्नायु, सींग, नख, खुर, केश, शिर के बाल, (रोम) शरीर के बाल, रोचना अर्थात गोरोचना ये जंगम प्राणियों से लेकर व्यवहार में लाये जाते है।
भौम द्रव्य- स्वर्ण और इसका मल, (शिलाजीत) पांच प्रकार के लोहा, जैसे रांगा, सीसा, ताम्बा, चांदी, और लोहा, बालू, (सुधा) चूना, पार्थिव विप, मनः शिला हरताल, स्फटिक आदि लवण सैन्धव आदि गेरू अंजन, ये पार्थिव औषध कहे हैं। औद्भिद द्रव्य चार प्रकार के हैं। बनस्पति, वीरूत, वानस्पत्य और औषधि।
जिसमें बिना पुष्प के फल आता है वे ‘‘वनस्पति है। जैसे गूलर वट पिलखन, आदि।जिसमें फल और पुष्प दोनों आते हैं उनको वानस्पत्य अर्थात वृक्ष कहते हैं। जैसे आम , जामुन आदि (3) जो फल आने पर नष्ट हो जाते हैं उनको औषधि कहते हैं। जैसे धान चावल, जौ गेंहू, आदि और (4) जो लता के समान फैलने वाली उनको वीरूध कहते हैं जैसे गिलोय आदि।
औद्भिद पदार्थों के काम में आने वाले अंग-
मूल, त्वचा, (सार) अन्दर का स्थिर सार भाग, (निर्यास) गोंद, नाड़ (नाल) (स्वरस) पीड़न करके द्रव्य से निकाला हुआ रस, (पल्लव) परो आम, जामुन आदि, के क्षार (क्षर) दूध थोर आदि के फल, पुष्प, भस्म, तैल, भिलाये आदि का कांटे, पत्ते, शुंग अर्थात छोटे-छोटे कांटे जो वृक्ष पर होते हैं। जैसे सिम्बल के, कन्द अर्थात फलहीन औषधियों के मूल, (प्ररोह) अंकुर यह औद्भिद गुण है। वनस्पतियों के ये उपरोक्त अंश काम में आते हैं।
जिन वनस्पतियों का मूल प्रयोग करने योग्य है वे ‘मूलिन’ है। ऐसी वनस्पतियां सोलाइ है, और जिन वनस्पतियां उन्नीस है। चार महास्नेह है जैसे घी, तेल वसा, और मज्जा पांच प्रकार के नमक हैं। आठ प्रकार के मूत्र और आठ ही प्रकार के दूध हैं। और संशोधन के लिए छः वृक्ष पुनर्वसु आत्रेय में कई है। जो विद्वान वैद्य रोगों में इन सब प्रकार से जानता है।
सोलह ‘‘ मूलनी’’ औषधियों की गणना-
हस्ती दन्ती (चफा) 2. हैमवती (श्वेत वच), श्यामा (त्रिवृत्त) लाल जड़ वाली निषोथ, अधोगुणा (विधारा) सप्तला (शिकाकाई) श्वेतनाम (श्वेतकोयल) प्रत्यक श्रेणी (दन्ती जमाल गोटा) गवाक्षी, (इन्द्रायण) ज्योतिष्मती (मालकंगनी), बिम्बी (कन्दूरी) शणपुष्पी (झनझनिया) विषाणिका (उत्तरण्ण) अजगन्धा द्रवन्ती (जंगली एरण्ड) क्षीरिणी (हिरवी) ये सोलह हैं।
ऊपर कही हुई सोलह मूलनी औषधियों में शणपुष्पी, बिम्बी और हेमवती (श्वेतवचा) ये तीन वमन कार्य प्रयोग करनी चाहिए, श्वेत अपराजिता, ज्योतिष्मती, ये दोनों शिरोविरोचन में, और शेष ग्यारह वनस्पतियां विरेचन कार्य में प्रयोग करनी चाहिए। सब कामों में इनके मूल ही काम मे लाने चाहिए। इस प्रकार से ये सोलह मूलवाली वनस्पतियां नाम और कर्म सहित कह दी गयी है।
फलिनी वनस्पतियों का नाम सुनो-
वायविडंग खीरा ककड़ी मदन (मैपफल) आनूप क्लीतक (जल में पैदा होने वाली मुलेहठी) स्थलज क्लीतक (शुष्क भूमि में पैदा होने वाली मुलेहठी) धामार्गव (बड़ी तुरई) इक्ष्वाकु (कड़वी तुरई) जीमूत (वन्दाल) कृतवेधन (तुरई) कडुवी प्रकीर्या और उदकीर्या (दो प्रकार के करंज) प्रत्यक पुष्पा (अपामार्ग) अभया (हरड़) शारदा हस्तिपर्णी शरत ऋतु में उत्पन्न फल ) कमीला, आरग्वध (अम्लतास) कुटज कूड़े का फल इन्द्र जौ) ये 19 वनस्पतियां हैं।
इनके कार्य-धामार्गव, इक्ष्वाकु, जीमूत, अमलतास, मैनफल, कूड़े का फल, खीरा और हस्तिपर्णी के शरद ऋतु में उत्पन्न फल ये आठ वनस्पतियां वमन अस्थापन और निरूह वस्ति कर्म में प्रयोग करना चाहिए।
अमामार्ग का फल नस्य कर्म में प्रयोग करना चाहिए और शेष दस बनस्पतियों का प्रयोग विरेचन कार्य में करना चाहिए। इस प्रकार ये 16 फलिनी वनस्पतियां नाम और कर्म द्वारा कह दी है।
घी तेल वसा और मज्जा अस्थियों वा गुठलियों के भीतारी भाग का स्नेह कहे गये है।
इनके कर्म कहते हैं-ये चारो स्नेह पान में शरीर में मुख मार्ग से देने, शरीर पर मालिस करने गुदा या उपस्थ मार्ग से देने और नाक से देने में प्रयुक्त होते है। ये स्नेह शरीर का स्नेह करते हैं, शरीर को जीवन देते हैं शरीर का तर्पण करते हैं बल और शक्ति को बढ़ाते हैं। ये स्नेह वात, पित्त और कफ को नष्ट करते हैं।
पांच प्रकार के नमक हैं- सेन्धव (सेन्धा नमक) सब नमकों में श्रेष्ठ है। (सेचल) (3) काला नमक (औद्भिद) कांच और नमक और (5) सामुद्र समुद्र के पानी से तैयार किया हुआ, ये पांच प्रकार के लवण या नमक हैं।
लवणों के कर्म-ये नमक स्निग्ध, उष्ण, तीक्षण और दापनीव अर्थात विशेष रूप से अग्नि बढ़ाने वाले हैं। ये नमक आलेपन में स्नेहन में, और स्वेदन कार्य में अधोभाग विरेचन में और उर्ध्व विरेचन द्वारा दोषों को बाहर निकालने में, निरूहण में, अनुवासन में अभ्यंग में भोजन में और शिर के विरेचन में शस्त्र कर्म में वर्ति अर्थात फल वर्ति में अंजन में, उवटन में अजीर्ण में अफारे में वायु रोग में गुल्म में, शूल में ओर उदर रोगों में प्रयोग किये जाते हैं। ये पांचों प्रकार के नमक कह दिये।
आठ मूत्र- भेड़ का मूत्र बकरी का मूत्र गाय का मूत्र भैंस का मूत्र हाथी का मूत्र ऊंट का मूत्र घोड़े का मूत्र और गधे का मूत्र ये आठ प्रकार का मूत्र है।
मूत्रों के सामान्य गुण-
ये आठो प्रकार के मूत्र गरम, तीक्ष्ण, रूखे, कटु रस, और लवण रस से युक्त है। आठो प्रकार के मूत्र उत्सादन में, आलेपन में प्रलेपन में, अस्थापन में निरूह में, विरेचन में, स्वेदन में, नाड़ी स्वेद में, अनाह अर्थात अफारे में अगद अर्थात विषनाशक में औषधियों में प्रयुक्त होते है।
उदर रोगों में अर्श रोग में, गुल्म, कुष्ठ और फिलास (कुष्ठ का भेद) उपनाह, पुटिल्स आदि में परिपेक अर्थात सेचन कार्य में, प्रयुक्त होते हैं। ये मूत्र (दीपन) अग्निदीपक, (विपघ्न) विपनाशक, कृमि, नाशक कहे जाते हैं। ये पाण्डु रोगियों के लिए पान, आहार, और भेषज आदि कल्पना में उत्तम, हितकारी हैं। पिया हुआ मूत्र शलेष्मा को शमन करता है। वायु को अनुलोमन करता है, और पित्त को अधोमार्ग से खीचता है, पित्त का विरेचन करता है। ये आठो मूत्रों के समान्य गुण कह दिये हैं।
आठों मूत्रों में एक-एक के जो पृथक-पृथक गुण हैं वह आगे कहे जाते हैं-
1. भेड़ का मूत्र थोड़ा तिक्त, स्निग्ध एवं पित्त का अविरोधी है, वह न तो पित्त को बढ़ता है और न ही पित्त का शमन करता है।
2. बकरी का मूत्र कषाय और मधुर रस स्रोतों के लिए हितकारी होता है और त्रिदोष नाशक है।
3. गाय का मूत्र कुछ मधुर दोष नाशक कृमि, और कुष्ठ का नाशक है। इसके पीने से खाज शमन होती है एवं वात आदि से उत्पन्न पेट के रोगों में हितकर है।
4. भैंस का मूत्र बावासीर शोध और उदर रोगों को नाश करने वाला थोड़ा खारा होता है।
5. हाथी का मूत्र नमकीन कृमि और कुष्ठ रोगों वाले पुरूषों के लिए हितकारी है। अवरूद्ध मल और मूत्र रोग अचसक रोग, विष रोग श्लेष्मा जन्य रोगों में और ववासीर में श्रेष्ठ है।
6. उंट का मूत्र थोड़ा तिक्त, श्वास कास और अर्श रोग का नाशक है।
7. घोड़ों का मूत्र तिक्त और कटु, कुष्ठ विष और व्रण नाशक है।
8. गधे का मूत्र अपस्मार, (मृगी, हिस्टीरिया) उन्माद आदि (पागल पन) का नाशक है।
आठ प्रकार के दूध-
इस प्रकार के इस शास्त्र में सामान्य और विशेष दोनों प्रकार से यथा-सामर्थ्य अर्थात सूत्रों की जैसी जैसी शक्ति है, वैसे गुण कह दिये है।
आठ प्रकार के दूध इन कर्म और गुण भी कहे जाते हैं 1. भेड़ का 2. बकरी का 3. गांय का 4. भैस का 5. ऊंटनी का 6. हथिनी का 7. घोड़ी का और 8. स्त्रियों का दूध
सब दूधों के सामान्य गुण-
सब दूध प्रायः मधुर रस, स्निग्ध, शीत, दूध बढ़ाने वाले, पुष्टि देने वाले, शरीर को बढ़ाने वाले, वीर्य वर्धक, बुद्धि के लिए हितकारी, शरीर को बल देने वाले, मन को प्रसन्न करने वाले, जीवन के लिए हितकारी, थकावट को मिटाने वाले, श्वास और कास कफ कास को छोड़कर शेष समस्त दोष को मिटाने वाले हैं। दूध, रक्त पित्त का नाश करता है और टूटे हुए को जोड़ने वाला है। सब प्राणियों के लिए सात्म्य दोषों को शमन अर्थात स्व स्थान में स्थित दोषों को शान्ता करने वाला है, न्यास को नाश करने वाला, अग्नि वर्धक क्षीण और क्षत रोगियों के लिए हितकारी, पाण्डु रोग वातपित्त, शोथ गुल्म, उदर अतिसार ज्वर दाह शोथ रोग में विशेष करके पथ्य दें। योनि रोगों में शुक्र रोगों में मूत्रकृच्छ रोग में मलावरोध पथ्य और हितकारी है। यह वात-पित्त रोगियों के लिए भी पथ्य है।
दूध के कर्म कहते हैं-यह दूध नस्य कर्म में अवगाहन में क्रिया में, आलेपन में वमन में, आस्थापन में, वस्ति में, विरेचन में, स्नेह कर्म में सब स्थानों पर रसायन अर्थात वाजीकरण आदि में भी प्रयुक्त होता है। यहां पर आठों प्रकार के दूधों के गुण कर्म सामान्य रूप से कह दिये है।
अब शोधन के लिए कहे हुए छः वृक्षों में तीन का दूध और तीन का त्वचा ग्रहण की जाती है। इनमें प्रथम दूध वाले तीन वृक्ष फलिनी और मूलनी वनस्पतियों से पृथक है उन के नाम 1 थोर, 2. अर्क 3. अश्मन्तक हैं। अश्मन्तक का दूध वमन के लिए, स्नुदी का दूध विरेचन के लिए और आक का दूध वमन और विरेचन दोनों कार्यों के लिए मानना चाहिए।
दूसरे शेष तीन वृक्ष हैं जिनकी त्वचा हिताकारी है। उन वृक्षों के नाम प्रतीक (करंज) कृष्ण गन्धा और तिल्वक (लोध्र) है। इन में करंज और लोध वृक्ष की छाल विरेचन कार्य में प्रयुक्त होती है। और कष्णगन्धा की छाल परि सर्प, शोथ अर्श रोग, दद्रु विद्रधि, गण्डमाला, कुष्ठ, कुष्ट और अलजी नामक नाना रोगो में प्रयुक्त होती है।
फलिनी 19 मूलिनी 16 स्नेह 4 लवण 5 मूत्र 8 दूध 8 और शोधन वृक्ष 6 जिनके दूध और त्वचा काम में आते हैं वे कह दिये हैं।
औषधियों के नाम जान लेने मात्र से अथवा रूप से पहिचान लेने से भी कोई औषधि के सम्यक प्रयोग को नहीं जान सकता। इसीलिए शास्त्र में इनका वर्णन किया जाता है।
जो वैद्य औषधियों के नाम, रूप और उनका योग और प्रयोग सहित जानता है, वह तो त्तववित है ही, जो वैद्य औषधियों को सभी प्रकार से समझता है उसके लिए कहना ही क्या और जो व्यक्ति प्रत्येक पुरूष के बल शरीर, आहार, सर, साम्य, सत्व प्रकृति अैर वयस का विचार करके देश, काल, मात्रा के अनुसार औषधि को जानता है वह वैद्यों में श्रेष्ठ है।
न जानी हुई औषधियों से हानियां- जिस प्रकार न जाना हुआ (मूढ़ आदमी से प्रयुक्त किया हुआ) विष, जिस प्रकार शस्त्र, जिस प्रकार अग्नि और जिस प्रकार वज्र या विजली से मृत्यु के कारण बनते हैं, उसी प्रकार नाम रूप गुण से न जानी हुई औषधि औषधि अमृत के समान है। नाम रूप एवं गुण से न जानी हुई औषध या जाना हुई भी देश काल आदि का विचार न करके देने से अनिष्ट के लिए होती है, वह भाी अनर्थ- उत्पन्न करती है। तीक्ष्ण प्राणनाशक विष भी सम्यक प्रकार से प्रयोग करने पर उत्तम औषध का कार्य करता है। औषध भी अनुचित प्रकार से प्रयोग करने पर तीक्ष्ण प्राण नाशक विष का काम करती है।
इसलिए अनुचित रूप में प्रयोग की जाने वाली औषधि के विष के समान होने के कारण आयु एवं आरोग्य को चाहने वालु बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि, देश काल-मात्रा आदि का विचार न करके देने वाले मूढ वैद्य में दी हुई औषधि की कभी न ग्रहण न करे।
इन्द्र के हाथ से छूटा हुआ वज्र यदि मनुष्य के सिर पर गिर पड़े तो उससे बचना सम्भव हो सकता है, परन्तु मूर्ख वैद्य से दी हुई औषधि रोगी को समाप्त की कर डालती है। इससे बचना असम्भव है।
जो प्रज्ञामनी अपने को वुद्धिमान गिनने वाला वैद्य औषध को न जानकर दुःखी अचेत पड़े, वैद्य में श्रद्धा करने वाले रोगी को औषध देता है ऐसे धर्म को छोड़ देने वाले विश्वासघाती, मृत्यु के समान साक्षात यम और दुर्मति, अंश मूढ़ वैद्य के साथ बोलने से भी मनुष्य नरकगामी होता है, फिर स्पर्श आदि से क्यों नहीं होगा। सांप का विष अथवा ताम्बे को उबालकर पीना या आग में लाल किये हुए लोहे को खा लेना, कहीं अधिक अच्छा है परन्तु वैद्य का वेष पहिनकर शरा में आये हुए रोगी से , अन्न पान, अथवा धन ग्रहण कना अच्छा नहीं।
वैद्य को क्या करना चाहिए-
इसलिए वैद्य बनने की इच्छा वाले, बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि, वैद्य के गुणों को प्राप्त करने में अत्यधिक प्रयन्त करे जिससे कि वह मनुष्यों के रोगी को दूर करके प्राण देने वाला सिद्ध हो।
जो औषध रोग को शान्त करने में समर्थ है। वही ठीक प्रकार से प्रयुक्त की हुई औषध है। जो रोगों से रोगियों को मुक्त करे वह ही वैद्यों में श्रेष्ठ बैद्य है।
सब प्रकार के कर्मों की सिद्धि, सफलता, उन कर्मों के सम्यक प्रयोग की बतलाती है। सफलता हो सब गुणों से युक्त वैद्य की श्रेष्ठता को भी बतलाती है। अर्थात सफल बैद्य का नाम चमकता है।
अध्याय का संग्रह-
आयुर्वेद का मर्त्यलोक में आना, हेतु रोगों का उत्पन्न होना, भरद्वाज मुनि द्वारा मर्त्यलोक में शास्त्रों का प्रचार, अग्निवेशादि का तन्त्र बनाना, अग्निवेशादि द्वारा बनाये हुए तन्त्रों के लिए ऋषियों से दी हुई आज्ञा, हिताहित आदि लक्षण रूप सामान्यादि छः कारण, कर्व्य धातुओं को समान करना आयुर्वेद का प्रयोजन है, संक्षेप से रोगों के कारण, काल, बुद्धि, इन्द्रियार्थ का अतियोग, अयोग, मिथ्यायोग हो, दोष, वात, पित्त, कफ, इनकी औषध, आकाश, आदि तीन, द्रव्य, जल और पृथ्वी इनके साथ रस मधुर आदि, द्रव्य संग्रह शमन आदि, एवं जंगम आदि के भेद से, मूलनी, हस्तिदन्ती, आदि सोलह फलिनी, शंखिनी आदि उन्नीस स्नेह घी आदि चार, महास्नेहन,, लवण, सौवर्चल आदि पांच, मूत्र आठ, क्षीर आठ, दूध वाले वृक्ष, छाल वाले स्नुही, पूतीक आदि छः वृक्ष, इनके वमन विरेचन आदि सव कर्म, औषध के सम्यक, योग से गुण, और असम्यक योग से जो दुर्गुण है, मूढ़ वैद्य की निन्दा और सब गुणों से युक्त वैद्य के लक्षण, वह सम इस प्रथम दीर्घजीवित्तीय नाम अध्याय में महिर्ष भगवान अत्रेय ने सम्यक प्रकार से कह दिया है।
ऊँ नमः शिवाय
वमन आदि पांच कर्म स्वस्थ एवं रोगी दोनों व्यक्तियों के लिए उपयोगी है। इसलिया पूर्व अध्याय में कहे हुए वमन आदि के द्रव्यों को अन्य द्रव्यों के साथ मिलाकर इस अध्याय का अवगतरण करते हैं।
अमामार्ग (चिरचिटा) के बीजों का तुप रहित करके तण्डुल बना कर काम में लाना चाहिए, यह बताने के लिए अपामार्ग तण्डुलीय अध्याय है।
अपामार्ग के तडुण्ल, पिप्ली, मरिच, वायविडंग, सहजना, के बीज, श्वेत सरसों, तेजफल के बीज जीरा, अजमोदा (तिलवन) पीलू, एला, छोटी इलयची हरेणु (मंेहदी के बीच), पृथ्वी का (कलौंजी) सुरसा, काली तुलसी, श्वेता, अपराजिता, कुठेरक, मरवा, तुलसी के भेद, सिरस के बीच, लहसुन, दोनों हरिद्रा, दोनों लवण, ज्योतिष्मती, (मालकांगिनी) और नागर, (सोंठ) ये शिरोविरेचन के लिए उपयोग में लानी चाहिए।
उपरोक्त औषधियों में श्वेता, ज्योष्मिती, ये दो द्रव्य मूलनी औषधियों में गिने गये हैं। इसलिए इनका मूल ग्रहण करनाचाहिए, और अपामार्ग के तण्डुल उपयोग में लाने चाहिए।
शिर के भारीपन में सिर के दुखने में पीनस नाक से दुर्गन्ध युक्त श्राव कफ आता हो आधा सिर दुखता हो कृमि जन्य शिरो रोग में मृगी में घ्राणनाश में मूर्छा इन रोगों में शिरोविरेचन के रूप में प्रयोग करना चाहिए।
वमन कारक द्रव्य-
मैंनफल, मुलेहठी, नीम (नीम की छाल), जीमूत, कडुवी तुरई कडुवा तुम्बा, पिप्पली कुटज कडुवी घिया, एला (छोटी इलायची) धामार्गव (तुरई) ये दस वस्तुऐं कफ पित्त जन्य व्याधि में अथवा आमाशय में आश्रित व्याधि की अवस्था में शरीर को हानि किये बिना वैद्य वमन के लिए देंवें।
इनमें मदन, मधुक, जीमूत कृतवेधन, कुटज, इक्ष्वाकु और धमार्गव इनका फल लेनाचा चाहिए
विरेचन द्रव्य-
त्रिवृत (निशोथ) त्रिफला, दन्ती (जमालगोठा) नीलनी (नील का मूल) शिकाकाई वच, कम्पल्लक (कमीला) पीलू, फल आरग्वध (अमलतास) द्रवन्ती, (बड़ा जमालगोटा) निचुल ये वस्तुए दोष के पक्काशय में स्थित होने पर विरेचन के लिए देनी चाहिए (शरीर में अन्यत्र स्थित होने पर नहीं)
इनमें त्रिवृत नागदन्ती, सतला गवाक्षी क्षैरिणी, और द्रवन्ती का मूल लेना चाहिए और नीलिनी तथा वच का भी मूल और शोषों का फल ग्रहण करना चाहिए।
आस्थापन और अनुवासन के द्रव्य-
पाढल, अग्निमन्य (अरणी), विल्व, श्योनाक (सोनापाठा) काशमरी, (गम्भारी), शलपर्णी, (सलवन) पृश्निपणी, (पोठापर्णी) निदिग्धका (कटेरी, भटकैया) वला, (खरैटी) गोखरू, बृहती, (बड़ी कटेरी), एरण्ड मूल, पुनर्नवा, (साठी घास) यव, (जौ) कुलथी, बेर, गिलोय, मदन (मैनफल) पलाश, कृतृण, स्नेह, (चारो स्नेह घी आदि) लवण, ये उनतीस द्रव्य आपान वायु की उर्ध्व गति होने पर बिबन्थ मल मूत्र आदि के अवरोध में और आस्थापन नामक वस्ति कर्म में प्रयोग करना चाहिए। इन्ही औषधियों ने अनुवासन वस्ति बनाकर वायु को नष्ट करने के लिए प्रयोग करनी चाहिए। यह संक्षेप में पंचकर्म, वमन, विरेचन, नस्य, आस्थापन और अनुवासन कह दिये हैं।
प्रवृत्त होने के लिए तैयार दोष वालों को स्नेहन और स्वेदन कराके शरीर-बल की अपेक्षा से मात्रा और काल का विचार करके वैद्य पंच कर्म को करावे।
मात्रा और विचार करने की आवश्यकता-
पदर्थों की योजना मात्रा और काल पर अवलम्वित है। शरीरीय, अग्नि, बल, आयु, व्याधिबल, व्याधिकाल, दोषबल, आदि के अनुकूल मात्रा और विशेष समय में प्रयुक्त हुआ द्रव्य भली प्रकार अपने कार्य को कर सकता है। सिद्धि चिकित्सित क्रिया की सफलता युक्ति में आश्रित है। योजना का जानने वाला वैद्य द्रव्य- औषध को जानने वालों में सदा श्रेष्ठ है। तत्पर सम्य तथा आतुर पुरूषों के लिए पंचकर्मों का उपदेश कर चुके हैं।
रोगियों के लिए आहार विशेष यवागूः-
इसके आगे यवागू से अच्छे होने वाले नाना प्रकार के रोगों के नाश के लिए नाना प्रकार की औषधियों से सिद्ध यवागू कहेगें।
1. जिस प्रकार मृदु विरेचक औषधि रात्रि को सोते समय लेने से उत्तम गुण करती है।
चूकि आरोग्य का मूल साधन कोष्ठाग्नि है, इस लिए सब से मुख्य वस्तु कोष्ठाग्नि है। अतः अग्नि का संन्दीपन करने के लिए यवागू कहते हैं।
1 पिप्पली, पिप्पली मूल, चव्य, चित्रक, चीता सोंठ इन से बनायी हुई यवागू अग्निवर्धक और शूल नाशक होती है।
यवागू तीन प्रकार की होती है। 1. यवागू जो छः गुने जल में पकती है,2. मण्ड चौदह गुने जल में और 3. विलेषी चार गुने जल में पकाई जाती है।
कैथ, विल्व चांगेरी (चोपतिया) तक्र दाडम (अनारदाना) इन से बनायी हुई यवागू ‘‘पाचनी’’ पाचन करने वाली ‘‘ग्रहणी’’ अर्थात स्तम्भक वा मल को रोकने वाली है।
पंचमूल, वृहत्पंचमूल शालपर्णी पृश्नपर्णी कटेरी, बड़ी कटेरी और गोखरू यह पांच वातहर है इनसे सावित यवागू वात विकार के लिए उपयोगी है।
शालपर्णी, (सालवन) बला, विल्व, (बेलगिरी) और पृश्नपर्णी इन से बनाई तथा अनार के रस से खटी की हुई यवागू पित्त शलेष्म जन्य अतिसार रोग में हितकारी है।
बकरी का जितना दूध हो, उससे आधा पानी इस में मिलाकर (मिलित परिणाम छः गुना ) हाबेर (नेत्रबाला) उत्पल (कमलगटटा) और सोंठ और पृष्ठपर्णी (पिठवन) ये एक कर्ष मात्रा लेकर यवागू सिद्ध करनी चाहिए। यह यवागू रक्ततिसार को नष्ट करती है।
1. पिप्पली आदि सब साधन द्रव्य मिलाकर एक कर्ष आर्थात चार मासे लेने चाहिए। इसको थोड़ा कूट लेना चाहिए, पकाने में आधा पानी जलाना चाहिए, पानी की मात्रा के भेद से नाना भेद हो जाते हैं।
आतीस सोंठ इनके कषाय अथवा कल्क से छः गुना जल में यवागू सिद्ध करे, इसे अनार के रस से खटटी कर के आमातिसार (रक्ततिसार) में दें।
मूत्र कृच्छ रोग में श्वदंष्टा (गोखरू) और कण्टकारी (कटेरी) इन के कषाय या कल्क से छः गुने जल में यवागू सिद्ध करके इस में फणित (राब, आधा पका गुण)
वायविडंग पिप्पली मूल, शिग्रु (सहजना) और मरिच इनके कल्क से छः गुने जल में सिद्ध करे। ठण्डा होने पर इस में शहद मिलाकर पीने से प्यास शान्त होती है।
10 सोमराजी (बावची) से सिद्ध की हुई यवागू (विषघ्नी) अर्थात खाये हुए विष को नष्ट करने वाली है।
11. सुअर के मांस रस में सिद्ध हुई यवागू पुष्टि कारक होती है।
12. भुने हुए गेहुओं के सत्तू से बनायी हुई यवागू में शहद मिलाकर लेने से शरीर पतला होता है।
13. घी वाली तिलयुक्त नमकीन यवागू स्नेहकारक है। वह शरीर को स्निग्ध करती है। तिलों के सााि कुछ चावल मिला लें। यवागू सिद्ध करके फिर इस में और नमक मिलायें।
14. कुश (दाभ) को जड़ और आमलक (आंवले का फल) इनको एक दो कर्ष लेकर छः गुने जल में कषाय करें इसमें श्यामक तण्डुल पाक कर के सिद्ध करनी चाहिए। यह पान करने योग्य यवागू शरीर में रूक्षता उत्पन्न करती है।
15. दशमूल (शालपर्णी, पृश्निपर्णी, कटेरी, बृहती, गोखरू, विल्व, श्योनाक, अरणी, गम्भारी, पाठा) से सिद्ध की हुई यवागू कास, हिक्का, श्वास, और को नष्ट करती है।
16. यमक अर्थात समान भाग घी और तेल लेकर इन में भूनी हुई एवं पानी के स्थान पर मदिरा लेकर उनमें सिद्ध की हुई यवागू (मदिरा मिलाकर देरे से ) पक्काशय की पीड़ा को मिटाती है।
17. हरी सब्जियों, मांस, तिल उढ़द, नके कल्क और कषाय से सिद्ध की हुई यवागू मल को बाहर निकालती है।
18. जामुन की गुठली, आम की गुठली की गिरी, (कैथ कच्चा, खटटी अवस्था में) विल्व (कच्चे हरे) इनसे सिद्ध की हुई यवागू स्तम्भक है।
19. क्षार (जवाखार) चित्रक (चीतामूल) हींग अम्लवेत इन से सिद्ध की हुई यवागू मल को भेदन करके बाहर निकालती है।
20. अभया (जंगी हरण) पीपल मूल, और सोंठ इन से
अ. यमक एक भाग घी और एक भाग सेल परस्पर समान और एक भाग मदिरा लेनी चाहिए। अथवा मूंग की दाल और सांठी के चावल परस्पर समान भाग मिलाकर मदिरा में यवागू सिद्ध करनी चाहिए।
ब. जवाखार बनाने के लिए हरे जवों को आग में स्वच्छ स्थान में जला लेना चाहिए। फिर इस को पानी में घोलकर वस्त्र से छान लेना चाहिए छने हुए पदार्थ को आग पर गरम करके शुष्क कर लेना चाहिए। सिद्ध की हुई यवागू वात का अनुलोमन अर्थात कफ वातादि दोषों का परिपाक करके मल को अच्छी प्रकार से बाहर करती है।
21. छाछ में सिद्ध की हुई यवागू घी के अधिक खाने से उत्पन्न विकार को नष्ट करती है। चरक संहिता अध्याय 3 सूत्र 21
22. छाछ और पिन्याक (खल) से सिद्ध की हुई यवागू तेल के अधिक खाने से उत्पन्न व्याधि में देने योग्य है। चरक संहिता अध्याय 3 सूत्र 22
23. जौ को समान भाग लेकर घी और तेल मे भूनकर पिप्पली और आंवले इनके कषाय या कल्क से सिद्ध की हुई यवागू कण्ठ के रोगों के लिए हितकर है।
24. जल के स्थान पर दूध और और घृत यथा परिमण में लेकर उनमें उड़द की दाल या इसकी पिसी हुई पिष्ठी को पहिले घी में भूनकर यवागू सिद्ध करनी चाहिए। यह शुक्रवर्धक है।
25. उपादिका अर्थात पोई को कल्क रूप में तथा दही को पानी के स्थान में लेकर यवागू सिद्ध करनी चाहिए। यह यवागू धतूरे आदि के विष को नष्ट करती है। पोई और दही से सिद्ध की यवागू मद नाशक है।
26. चिरचिटे के चावलों को दूध और गोह के मांस में पकाकर यवागू सिद्ध करे इस से भूख का नाश होता है। यहां पर जल या सादे चावल नंीह प्रयुक्त होते।
इस अध्याय में 26 प्रकार के यवागू कह दी है और पंच कर्म इन के योग औषधियां भी कह दी है। मूलनी, फलिनी, आदि का ज्ञान कराने के लिए जो औषधियां प्रथम अध्याय में कही है। ये औषधियां पंच कर्म में साध्य व्याधियों में उपयुक्त है। इसलिए यहां पर फिर लिखी है।
(स्मृतिमान) स्मरण शक्ति वाला, (हेनुश) रोग के कारण का जानने वाला, (युक्तिज्ञ) योजना, व्याधि के साधन रूप भैषज्य की कल्पना को जानने वाला, अथवा मात्रा की भांति द्रव्य, व्याधि बल, और व्याधि रूप को जानने वाला (जितात्मा) भ्रम प्रमाद रहित, उत्तम सूझ बूझ वाला बैद्य औषधियों के योग से उपचार करने में समर्थ हो सकता है।
अथ तृतीयोध्यायः
रोगी की हितकामना से यवागू कहकर उसी प्रसंग में प्रदेह चूण आदि कहते हैं। इसके लिए आरग्यधीय नामक तसरे अध्याय का व्याखयान करते हैं ऐसा भगवान आत्रेय कहते हैं। इस अध्याय का आरम्भ आरग्वध से हुआ है इसलिए इस आध्याय का नाम आरग्वधीय है।
आरग्वध से लेकर सर्ज इस शब्द तक तीन श्लोकों में कहे हुए छः योग है, इनकों गाय के पित्त में पीस कर काम में लाना चाहिए। आरगवध ( अमलतास) ऐडगज (पनवाड़) करंज वासा, वासा के पत्ते, गिलोय, मदन (मैनफल) दो हरिद्रा गन्दा विरोजा, सुरा (देवदार) खदिर (खैर) धव (धावन) निम्ब (नीम के पत्ते) विडंग (वायविडंग) कनेर की छाल यह दूसरा भोज पत्र की गांठें, लहसुन, सिरस की छाल, जटामांसी गूगल, सहजना, यह तीसरा मरवा, इन्द्र जौ, सातवन, पीलू कुष्ठ (कूठ), सुमन प्रवाल, (चमेली के कोमल पत्ते) यह चौथा 5 वच, हरेणु (रेणु का बीज मेहदी का बीज) त्रिवृत (निशोथ), निकुम्भ (जमालघोटा) भल्लातक (भिलावा) गौरिक (गेरू) अंजन (रसांजन) यह पांचवा 6 मनःशिला (मैनशिल) आल (हरिताल) गृहधूम (घर का धुंआसा) ऐला (छोटी इलायची) कशीस, (पुष्प कसीस) लोध्र (पठानीलोध ) अर्जुन (अर्जुन वृक्ष की छाल ) मुस्ता (नागरमोथा) सर्ज्ज (राल) यह छठा योग हुआ। इसमें किसी योग को तैयार करके गाय के पित्त के साथ फिर पीसे फिर इसको तेल में मिलाकर द्रव रूप बनाकर लगाने से कष्ठसाध्य कुष्ठ रोग, नया किलास, इन्द्रलुप्त, वालों का गिरना किटम दाद भगन्दर वावासीर चर्मकील अपची न पकने वाली गांठें और खाज शीध्र ही मनुष्यों के नष्ट होते हैं।
अब सातवां योग कहते हैं- कूठ दोनों हल्दी सुरसा (तुलसी) पटोल (परवल) नीम के पत्ते अश्वगंधा सुरदारू (देवदार) सहजन, श्वेत सरसों तुम्बुरू, धनिया कैवर्त मुस्ता, चण्डा (चोरक) इन पंद्रह औषधियों को परस्पर समान भाग लेकर चूण तैयार कर लेना चाहिए इस चूर्ण को छाल में पीसकर शरीर पर लगाना चाहिए शरीर पर लगाने से पूर्व तेल का उबटन लगा लेना चाहिए इस लेप के लगाने से कण्डू पिण्डका न दबने वाली फुंसिया कुष्ठ सूजन नष्ट होते हैं।
आठवां योग
कूठ अमृता संग (नीला थोथा) कटंकटेरी (दारू हल्दी) कशीस (हीरा कसीस) कम्पिलक (कमीला) , मुस्त (नागर मोथा), लोध्र (पठानी लोध) सौगन्धिक (कहवर पुष्प) सर्जरस (राल) मनसिला, (मैनसिल,) आल, (हरताल) कनेर की छाल, इन चौदह औषधियों का चूर्ण करके अवचूर्ण अर्थात मलने के लिए देना चाहिए। प्रथम शरीर पर तेल की मालिश कर लेनी चाहिए इस से दा, कण्डू ख खाज पामा, विसर्प विचर्चिका, स्राव युक्त फुन्सियां नष्ट होती है। कोई अमृतांग एक वस्तु मानकर नीला थोथ अर्थ करते हैं।
नवां योग
मेनसिल, हरताल, मरिच, सरसो का तेल, आक का दूध इनको परस्पर मिलाकर लेप बनाकर लगाने से कुष्ठ अच्छा होता है। इस योग को पानी में मिलाना नहीं चाहिए आक के दूध में ही सब बनाना चाहिए।
दसवां योग
नीला थोथा विडंग (वाय विडंग) मरिच कुष्ठ लोथ (पठानी लोध) मेनसिल इनके चूर्ण को पूर्व की भांति आक के दूध में मिला कर लगाना चाहिए।
ग्यारहवां योग
रसौत पनवाड़ के बीज इन को कैथ के पत्तों के रस में मिलाकर लगाने से कुष्ठ रोग नष्ट होता है। पानी उपयोग नहीं करना चाहिए।
वारहवा योग-
करंज एडगज (चक्रमजर्द) और कुष्ठ इनको गोमूत्र में पीस कर लेप करने से कुष्ट नष्ट होता है।
तेरहवां योग-
दोनों प्रकार की हल्दी कुटज के बीज, करंज बीज, चमेली के कोमल नये पत्ते कनेर, की अन्दर की त्वचा और तिन क्षार (तिल की नाल क्षार भस्म) इनका लेप बनाकर लगाने से कुष्ठ रोग नष्ट होता है।
चौदहवा योग
मनसिल कूडे की छाल कूठ लोमश (जटामांशी) एडगज (चक्रमर्द) करंज भोज पत्र की गांठें कनेर की जड़ ये आठाो द्रव्य एक एक कर्ष की मात्रा लेकर यव कांचिक एक आढक तथा पलास निर्दाह रस आर्थात ढाक के वृक्ष को जलाने से उत्पन्न रस एक आढक परिमाण (8सेर) लेकर पाक करना चाहिए। पाक इतना करना चाहिए कि वह करछी पर चिपकने लगे। यह प्रलेप कुष्ठ रोग को नष्ट करने के लिए श्रेष्ठ है।
पंद्रहवा योग-अमलतास के पत्तों, मकोय के पत्तों का और अश्व कनेर के पत्तों की छाछ के साथ पीसकर शरीर पर तैल का मालिश करके कुष्ठ रोग में मलें।
सोलहवां योग- झाड़ों का बेर, कुलत्थ, सुरदारू (देवदार) रास्ना उड़द, अलसी, ऐरण्ड के बीज, कूठ बचा सौंफ, और यवचूर्ण इनको अम्ल (कांजी) के साथ पीस कर प्रलेप बनाकर गरम करके वातरोगी के लिए प्रयुक्त करें इससे वात रोग नष्ट होते हैं।
सत्रहवां योग- घी तेल वसा और मज्जा इन चार स्नेहों को दशमूल के साथ मिलाकर अथवा चारों स्नेहों को ज्वर अधिकार में कहीं चन्दन आदि सुगन्धित औषधियों के साथ मिलाकर लेप करने से वातविकार नष्ट होते हैं। यहां पर न कहने पर भी पानी मिलान चाहिए।
अटठारहवां योग-
कूठ, सौफ, वचा, जौ के आटे को तिल के साथ और अम्ल (कांजी) में मिलाकर लगाने से वातविकार नष्ट होते हैं।
उन्नीसवां योग-
सौंफ, और सोया मधुक (मुलेहठी) मधूक (महुआ) बला (खरैटी), प्रियाल प्याल पकने पर यह काला फल होता है, जिसमें से चिरौंजी निकलती है) कशेरू, घृत, (देशी गाय का) विदारी कन्द, सीतोपला (मिश्री, खड़ी शक्कर) इनका पानी के साथ लेप वातरक्त रोग में आरामदायक है।
वीसवां योग-
रास्ना गिलोय, मुलेहठी दोनों प्रकार की बलाएं (खरैटी और अतिबला सफेद और पीले फूल की खरैटी) जोवक, ऋषमक, गाय का दूध, गाय का घी मोम इनसे सिद्ध घी रूप लैप वातरक्त रोग को नष्ट करता है। इस योग से घृत सिद्ध किया जाता है। टिप्पणी-रास्ना से लेकर ऋषभक तक सब औषधियों का कलक बनाना चाहिए। यह कल्क घी, स्नेह से चतुर्थांश होना चाहिए और दूध घी स्नेह से दूना होना चाहिए। इससे घी सिद्ध काना चाहिए। घी सिद्ध होने पर वस्त्र में से छान कर उष्णावस्था में ही इसमें मोम मिला देनी चाहिए। मोम की मात्रा स्नेह से चतुर्थांश अर्थाता कल्क के बराबर होनी चाहिए।
21 वां योग-
गेहूं के चूण को बकरी के दूध और घी के साथ मिलाकर लगाने वातरक्त रोग मिटता है। यहा भी दूध में गोहूं के चूर्ण के साथ घी सिद्ध कर लेनी चाहिए।
22वां योग-
नत (तगर) उत्पल, (नीला कमल) चन्दन कुष्ठ इनके चूण को घी में मिलाकर शिर पर लगाने से शिर की पीड़ा मिटती है।
23 वां योग-
पुण्डरीक काष्ठ सुरादारू कुष्ठ मुलहठी इलायची कमल गटटा उत्पल (नीला कमल) लोह, अगर ऐरक (रोहिष घास) पद्यक और चोरक इनको घी में मिलाकर शिर दुखने पर माथे में लगाने से आराम मिलता है। यहां पर पीसने के लिए पानी मिला लेना चाहिए।
24वां योग-
रास्ना दोनों हरिद्रा नलद (जटामांसी) दोनांें शताहा (सौंफ और सोया) देवदारू सितोपला (मिश्री) जीवन्ती का मूल इनके चूर्ण को घृत और तैल (तिल का तेल) में ये घी तेल दोनों परस्पर समान भाग हो) मिलाकर गरम करके पार्श्व शूल में लेप करना चाहिए।
25. वां योग
शैवाल, पद्याख उत्पल (नीलकमल) वेत लोटी वेत तुंग कमल का केशर पुण्डरीक अमृणाल (खस) लोध प्रियंगू चन्दन मेद हरिचन्दन, और चन्दन इनकी पानी में पीसकर सब द्रव्यों के सामान घी मिलाकर लेप करने से त्वचा की जलन शान्त होती है। कोई सिता से मिश्री और लता से मजीठ का ग्रहण करते हैं
26. सिता श्वेत दूध, लता (पिं्रयगू या सरिवा) वेतस मुलहठी नीला कमल दूर्वा यथा समूल (धमासे की जड़) कुश काश की जड़ जल पालक ऐरक(होगला) इनको जल के साथ पीस कर लेप करने से त्वचा की जलन शान्त होतीहै। कोई सिता से मिश्री और लता से मजीठ का ग्रहण करते है।
27. शैलेय ऐला अगर कुष्ठ चण्डा नत दालचीनी देवदार रायसन इनको पानी में पीस कर लेप करने से शीत ढंण्डक नष्ट होती है।
तीसवां योग सिरस को सम्भालु के पत्ते के सथ पीसकर मलने से विष दोष नष्ट होता है।
इकतीसवां योग सिरस लांमजक खस हेम (नागकेशर), पठानी लोध इनको चूर्ण बनाकर शरीर पर रगड़ने से त्वचा के रोग एवं पसीने का अधिक आना नष्ट होता है।
वत्तीसवां योग-
तेजपात नेत्रबाला, पठानी लोध अभय और श्वेत चन्दन इनको पानी में पीसकर लेप करने से शरीर की दुर्गन्ध मिटती है।
सिद्ध एवं ऋषियों से पूजित कृष्णात्रेय पुनर्वसु ने रोगों को नष्ट करने वाले सिद्ध योग जगत के लाभ के लिए कहे हैं।
अथ चतुर्थो अध्यायः
इसके आगे षडविरेचन से आरम्भ किये जाने वाले अध्याय का अवतरण करते हैं। भगवान आत्रेय ने कहा है-
शरीर के लिए अन्तः परिमार्जन और बहिपरिमार्जन की औषधियों को पूर्व अध्यायों में कहकर अवशिष्ट परिमार्जन की औषधियों को कहते हैं-
इस तंत्र में छः सौ विरेचन योग है न अधिक और कम। ‘विरेचन’ शब्द उभर्याय वाचक है। अर्थात शरीर के अधोभाग से मल निःसारण का नाम भी विरेचन है और शरीर का उर्ध्व भाग से वमन के रूप में किये जाने वाले संशोधन रूप कर्म को भी विरेख्न कहते हैं। विरेचन द्रव्यों के छः आश्रय हैं -यथा दूध, मूल त्वचा, पत्र पुष्प और फल।
कषाय के पांच जातियां हैं- (इनमें लवण रस को छोड़कर) कषायों की कल्पना पांच प्रकार की है। पचार महाकषाय हैं, पांच सौ कषाय हैं। यह संक्षेप में कह दिया है।
छः सौ विरेचन योग हैं, यह जो कहा है उसे यहां पर संक्षेप में कहेगेें। विस्तार से कल्प उपनिष्द अर्थात कल्प स्थान में व्याखा करेगें।मदन फल के कल्प में 133 विरेचन योग, जीमूतक (बन्दाल) फल के कल्प में 39, कडवी तुम्बी कल्प में 45 बड़ी तुरई पीले फूल की कल्प में 60 कुटज के फल कल्प में 18 प्रकार के कृतवेधन के उपयोग मेें विरेचन योग 60 इस प्रकार से ये वमन रूप में विरेचन योग है। अब अधोगमी विरेचन योग कहते हैं
श्यामा (अरूण मूल) की निशोथ और त्रिवृत केल्प के 110 योग अमलतास कल्प के 12 प्रकार के योग, लोध्र विधि के कल्पों में विरेचन विधि के अन्दर 16 योग महावृक्ष, (स्नुही सुधा वृक्ष) कल्प में 20, शिकाकाई के कल्प में 39 और दन्ती जमालघोटा द्रवन्ती के 48 प्रकार के योग हैं। इस प्रकार 600 विरेचन योग बन जाते हैं।
विरेचन क्रिया औषधियों के छः (अंगों में) आश्रय है। यथा-क्षीर दूध, मूल त्वक पत्र पुष्प और फल।
कषाय की पांच योनि (जातियां) हैं यथा-मधुर कषाय, (मधुर रस वाले पदार्थों से बना हुआ कषाय) कटु कषाय, तिक्त कषाय, कषाकषाय, इन पाचों को इस शास्त्र में कषाय संज्ञा है। लवण कषाय नहीं है लवण रसे कषाय तैयार नहीं होता है।
कषाय कल्पन अर्थात कषाय तैयार करने की विधि पांच प्रकार से है। यथा-स्वरस, कल्क, श्रृत, शीत, और फाण्ड। कषाय शब्द सबके साथ संयुक्त है।
कषायों के लक्षण-
स्वरस कषाय-द्रव्य को कूट कर यंत्रप्रपीडन अर्थात यंत्र से वा हाथ आदि से दबाकर जो रस निकलता है उसे स्वरस कहते हैं।
कल्क कषाय-रस सहित द्रव्य को शिला आदि पर पीस कर जो गोला बना लिया जाता है उसे कल्क कहते हैं।
श्रृत कषाय- अग्नि में उबाले हुए द्रव्य को वैद्य श्रृत कहते हैं। बहुत गरम जल में रात भर रक्खे हुए कूटे हुए द्रव्य से जो कषाय निकलता है उसे शीत कहा जाता है।
फाण्ट कषाय-द्रव्य को कूटकर गरम पानी में रखकर कुछ काल पीछे मलकर को किट रहित सार भाग निकलता है उसे फाण्ट कहते हैं।
इनमें स्वरस की कल्क की अपेक्षा, कल्क में श्रृत की अपेक्षा से, श्रृत में शीत की अपेक्षा से, और शीत में फाण्ट की अपेक्षा से अधिक बल, सामार्थ्य और शक्ति है। इसलिए कषाय कल्पना अर्थात रोगी के लिए कषाय का विचार व्याधिबल, आतुर बल अर्थात रोगी के सामार्थ्य को देखकर करना चाहिए। ये सब कषाय सब अवस्थाओं में उपयोगी नहीं होते अर्थात बलवान व्याधि या बलवान रोगी में अल्प बल वाले या मध्यम बल वाले कषाय कार्य करने में भी समर्थ नहीं होते। इसी प्रकार अल्प बल की अवस्था में अधिक बल वाले कषाय कार्य करने में असमर्थ होते हैं। पहिले जो यह कहा है कि पचार महाकषाय हैं, उनकी अब व्याख्या करते हैं जैसे-
जीवन के लिए हितकारी आयुवर्धक शरीर के बृंहण के लिए हितकारी, (लेखनीय) देह के घषर्ण के लिए भेदनीय, सघानीय, दीपनीय, अग्नि को बढ़ाने वाला छः कषायों का एक वर्ग हुआ।
‘‘बल्य’’ (बलकारक) वर्ण्य (शरीर की कान्ति बढ़ाने वाला) कण्डव (कण्ठ या गले के स्वर के लिए हितकारी) हृथ(हृदय मन के लिए हिताकारी) यह दूसरा चार से बना हुआ कषाय वर्ग है।
‘‘तृप्तिघ्न’’ जब रोगी बिना खाये अपने को भरा पेट अनुभव करता है, उसके शिकायत को दूर करने वाला) ‘‘अर्शोघ्न’’ (अर्श रोग में हितकारी) ‘‘कुष्घ्न’’ (कुष्ट रोग नाशक) कण्डूघन (खाज नाशक) ‘‘कृमिघ्न विषाघ्न’’ कृमि तथा विष नाशक यह तीसरा छः से बना कषाय वर्ग हुआ।
स्तन्य जनन दूध बढ़ाने वाला (स्तन्यशेधन दूध का शोधन करने वाला) शुक्र जनन (धातु वर्धक) शुक शोधन (धातु शोधक) यह चौथा चार से बना कषाय वर्ग हुआ।
स्नेहोपय 1 (मार्दवकर) स्वेदोषग (पसीना लाने वाला), वमनोपग (वान्तिकारक), विरेचनोपक (मलनिःसारक) आस्थापनोपग (रूक्ष बस्ति के लिए उपयोगी) शिरोविरेचनोपग ( नस्य के लिए उपयोगी) यह सात कषायों से बना बर्ग।
छर्दि निग्रहण (वमनाशक) तृष्णानिग्रहण (प्यास को नष्ट करने वाला) हिक्कानिग्रहण (हिचकी नाशक) यह तीन से बना कषाय वर्ग हुआ।
पुरीष संगहणीय (मल को बांधने के लिए हितकारी), पुरीषविरजनीय (दोष के कारण जब उचित रंग में नहीं आता इसके लिए हितकारी जैसे-कामला रोग में मल श्वेत रंग का आता है, पीलापन नहीं आता) मूत्र संग्रहणीय (मूत्र को कम करने वाला) मूत्रविरजनीय (मूत्र रंग को ठीक करने वाला) यह पांच से बना कषाय वर्ग है।
कासहर (खंासी के लिए हितकारी) श्वासहर (दमे के लिए हितकर), शोथहर (सूजन के लिए हितकारी) ज्वरहर (ज्वरनाशक), श्रमहर (थकावट मिटाने वाला), यह पांच से बना कषाय वर्ग है।
दाह प्रशमन (जलन को शान्त करने वाला) शीतप्रशमन (ठंडक को दूर करने वाला) उदर्दप्रशमन (कोठ, छपाकी, त्वचा पर उठने वाले मोटे मोटे चक्त्ते को शान्त करने वाला, ) अंगमर्द प्रशमन (अंगों की ऐठन को दूर करने वाला) यह पांच से बना कषाय वर्ग है।
शोणित स्थापन (रक्त शोधन) वेदनास्थापन ,(पीड़ा नाशक) संज्ञास्थापन (चेतन करने वाला), प्रजा स्थापन (संततिजनक) वयस्थापन (आयु को टिकाने वाला) यह पाच से बना कषायवर्ग है।
इस प्रकार से पचार कहाकषाय बनते हैं। महाकषाय के लक्षण और उदाहरण संक्षेप में कह दिये गये हैं इन एक-एक महाकषायों को दस-दस अवयवों वाले कषायों की व्याख्या आगें कहेगें। इस प्रकार से पांच सौ कषाय बनते हैं। अर्थात जीवनीय आदि संज्ञावाले पचार महाकषायों में से प्रत्येक जीवनीय आदि संक्षा वाले कषाय में दस-दस अवयव हैं।
जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, काकोली, क्षरकाकोली, मुदपर्णी, माषपर्णी जीवन्ती, और मुधक (मुलेहठी) ये दस जीवनीय जीवन वर्धक है।
क्षीरिणी, (क्षीरविदारी) राजश्रवक, (दूधी) वला (खरैटी) काकोली क्षीरकाकोली , वाटययनी (कंघी) भद्रौदनी (खिरौटी) भरद्ववाजी (उलट कम्बल), पयस्या (विदारीकन्द) ऋष्यगन्धा (बृद्धदारक विधारा) ये दस वृहंणीय अर्थात शरीर में वीर्य वृद्धि करने वाले हैं।
मुस्त (नागरमोथा) कुष्ठ (कूट) हरिद्रा, वच, अतिविषा (अतीस) कटुरोहिणी (कुटकी) चित्रक (चीतामूल) चिरविल्व (करंज) हेमवती (श्वेत वच) यह दस लेखनीय है।
मुवहा, (निशोथ) आक (आक दो प्रकार का है श्वेत और अरूण) उदवूक (ऐरण्ड) अग्निमुखी (कालिदारि), चित्रा (जमाल घोटे की जड़) चित्रक (चीता मूल) करंज, शंखिनी, शाकुलदिनी (कटुकी) और स्वणक्षीरी (सत्यानाशी) ये दस भेदनीय है।
मधुक, (मुलेहठी) मधुपर्णी (गिलोय), पृश्निपर्णी (पिठवन) अम्बष्ठकी (पाठा) सभंगा (मजीठ) मोचरस (सिम्मबल का गोद) धातकी (धाय के फूल) लोध्र, प्रियंगू और कटफल (कायफल) ये दस संघनीय हैं।
पिप्पली, पिप्पलीमूल, चव्य, चीतामूल, श्रृंगवेर (सांेठ या अदरख) अम्लवेतस, मरिच अजमोदा (अजवायन) भल्लातकास्थि (भिलावे के बीज) हिंगू निर्यास (हींग) ये दस दीपनीय अर्थात भूख लगाने वाले अग्नि संदीपक हैं। यह छः का बना हुआ कषायवर्ग है।
कौंच, शतावरी, माषपर्णी विदारी अश्वगंधा शालपर्णी रोहिणी (कटुकी) वला (खरैटी) अतिबला, (पीतबला) ये दस वल्य अर्थात बल कारक हैं।
चन्दन लाल, तुंग (नागकेशर) पद्यक, खस मुलेहठी, मजीठ सरिवा, पयस्या (विदारीकन्द) सिता (सफेद दूध) और लता, (दूब) ये दस वर्ण्व अर्थात वर्णकारक वर्ण बढ़ाने वाले हैं
सरिवा (अनन्तमूल), ईख की जड़ मुलेहठी पिप्पली, किशमिश, विदारी कन्द नीम, मण्डूकपर्णी या ब्राम्ही बड़ी कटेरी, छोटी कटेरी ये दस औषधियां कण्ट स्वर के लिए हितकारी है।
आम आम्रातक निकुच(बडहल) करमर्द (करंज) इमली, अम्लवेतस, बड़ा वेर, बदर(झाड़ी बेर) दाडिम (अनार) मतुलुंग (बिजौरा) यह दस हृदय के हितकारी है। यह चार से बना हुआ कषाय वर्ग है।
नागर(सोंठ) चित्रक, चव्य, वायविडंग, मूर्वा (मोरबेल) गडूची, (गिलोय) वचा (वच) मुस्त, नागरमोथा, पिप्पली, परवल, ये दस तृप्तिघन अर्थात श्लेष्मा जनित तृप्ति को नाश करती है।
कुटज विल्व, चित्रक, सांेठ अतीस, अभया (बड़ी हरण) धमासा दारू हल्दी, वच और चव्य ये दस औषधियां अर्शोघ्न अर्थात बाबासीर रोग नाशक हैं।
खदिर (खैर) अभया (जंगी हरण) आमलक (आंवला), हरिद्रा, भिलावा, सप्तपर्ण (सातवन) अमलतास, कनेर, वायविडंग, और चमेली के कोमल पत्ते यह दस कुष्ठघन अर्थात कोढ़ रोग के नाशक हैं।
चन्दन लाल, जटामांसी, अमलतास, करंज, नीम के पत्ते, कूडे की छाल, सरसों मुलेहठी, दारू हल्दी, और नागर मोथा ये दस औषधियां कण्डूघ्न है। अर्थात खाज नाशक हैं।
सहिजन काली मरिच जमीकन्द केबुक, वायविडंग निगुर्ण्डी अपामार्ग गोखरू वृषपर्णी, मूसाकानी ये दस कृमिघ्न अर्थात कृमि नाशक हैं।
हल्दी मंजीठ, निशोथ, छोटी इलायची, पालिन्दी(काली निशोथ) लाल चन्दन, कतक (निर्मली का जल शोधन करने वाला फल) सिरस, सिन्दुवार (निर्गुण्डी) शलेष्मात्क (लिसोढ़ा) ये दस विषघ्न अर्थात विषनाशक हैं। यह छः से बना हुआ कषाय वर्ग है।
खस शालि, साठी का चावल, ईख, दाभ, कुश, काश, गुन्द्रा (होगल) इत्कट (तृण विशेष) कतृण, ये दस स्तन्य जनन अर्थात दूध बढ़ाने वाले हैं। इन में गिलोय को छोड़कर सबका मूल कार्य में लेना चाहिए।
पाठा,सोंठ, सुरदारू (देवदार) मुस्त (नागर मोथा) मोरबेल, गिलोय, इन्द्रजौ, चिरायता, कटुरोहिणी, (कटुकी) सरिवा, ये दस स्तन्य शोधन दूध को शुद्ध करने वाले हैं।
जीवक, ऋषभक, काकोली, क्षीर काकोली, मूंगपर्णी, उड़दपर्णी, शतावरी, जटामांसी, कुलिंग उटंगण, ये दस शुक्रजनन अर्थाता वीर्य वर्धक होते हैं।
जीवक ऋषभक, मेदा महामेदा, काकोली क्षीर काकोली, ऋद्धि वृद्धि इन के स्थान पर परभिाषा आदेश से, शतावरी, विदारीकन्द, अश्वगन्धा, और वाराही कन्द का प्रयोग करने चाहिए। (ख) कुलिंग शब्द का प्रयोग दूब के लिए आया है।
कूठ एलावालुक, कटफल (कायफल) समुद्रफेन, कदम्ब, निर्यास, गन्ना, मोटा गन्ना इच्छुरक (तालमखाना) वसुक (वकपुष्प) और खस की जड़ ये दस शुक्रशोधन अर्थात वीर्य धातु को शुद्ध करने वाले हैं। यह चार का बना कषाय वर्ग है।
बड़ी दाख, मुलेहठी, गिलोय, मेदा, विदारी कन्द, काकोली, क्षीरकाकोली, जीवक, जीवन्ती, शालपर्णी ये दस स्नेहोपग अर्थात शरीर में कोमलता और चिकनाई उत्पन्न करने में सहायक हैं।
सहजन, एरण्ड, आक, श्वेत पुनर्नवा, रक्त पुनर्नवा, जौ, तिल, कुलत्थी, उड़द,, झाड़ी के बेर, ये दस औषध्यिां स्वेदोपग अर्थात शरी में पसीना लाने में सहायक है।
मधु, मुलहठी, लाल कचनार, श्वेचकचनार, कदम्ब, जलवेतम, कन्दरी, झनझनिया, आक, प्रत्यकपुष्पी (अपामार्ग, चिरटिा) ये दस वमनपयोग अर्थात वमन में मदद देती है।
द्राक्षा, गम्भारी, पुरूषक (फालसा) अभया (जंगी हरण) आंवला, बहेड़ा, बड़ा बेर, वृक्ष का बेर, झाड़ी का बेर, पीलू ये दस विरेचनोपग, अर्थात विरेचन में सहायक हैं।
त्रिवृत (निशोथ) बेलगिरी, पिप्पली, कुष्ठ सरसो, वच, इन्द्रजौ सौंफ, मुलेहठी, मदनफल, ये दस आस्थापनोपग अर्थात रूक्ष वस्ति के लिए उपयोगी है।
रास्ना, देवदारू, बेलगिरी, मदन (मैनफल) शतपुष्पा, (सौंफ) श्वेत पुनर्नवा, रक्त पुनर्नवा, गोखरू, अरणी की छाल, श्योनाक, ये दस अनुवासनपयोग अर्थाता स्नेहवस्ति के लिए उपयोगी है।
इति सप्तकः कषायवर्गः
मालकागिनी, क्षवक (नकछिकनी) मरिच, पिप्पली, वायविडंग, सहजन, सरसो, चिरचिटे के चावल, अपराजिता श्वेत कोयला, श्वेता का भेद, ये दस शिरोविरेचन अर्थात शिराविरेचन के लिए उपयोगी है। यह सात का एक कषायवर्ग हुआ।
जामुन, आम के पल्लव, विजोरिया नीबू खटटे बेर, अनार, जौ, मुलेहठी, खस, सौराष्ट्र देश की मिटटी और लाजा (खीलें) ये दस वमन को रोकती है।
नागर, धमासा, नागरमोथा, पर्पटक (पित्तपापड़ा) लाल चन्दन, चिरायती, गिलोय, नेत्रबाला, धनिया, परवल, ये दस औषधियां तृष्णानिग्रहण’’ प्यास को रोकती है।
कचूर, पोहकरमूल, बेरके वीज, छोटी कंटेरी, बड़ी कटेरी, वृक्षरूहा, जंगीहरण, पिप्पली, धमासा, कुलीरश्रृगी (काकड़ा संीगी) ये दस हिक्का निग्रहण अर्थात हिचकी को शमन करती है। यह तीन से बना हुआ कषाय वर्ग है।
प्रियंगू, अन्नतमूल, आम की गुठली, श्योनाक की छाल, पठानी लोध, मोचरस (सिम्बल का गोंद) समंगा (मंजीठ) धातकी पुष्प (धाय के फूल) पद्या(भार्गी) पद्यकेशर (कमल का केशर) यह दस पुरीष संग्रहण अर्थात मल को रोकने वाली है।
जामुन, कुन्दरू की छाल, कौंच या धमासा, मुलेहठी, सिम्बल का गोंद, विरौजा, चूल्हे की मिटटी, विदारी कन्द, नील कमल, तिल कण, ये हस पुरीषविरजनीय अर्थात मल के दूषित रंग को बदलने वाले हैं।
जामुन, आम पिलखन, वट कपीतन, गूलर, अश्वत्थ (पीपल) भिलावा, अश्मन्तक, सोमवल्क, (खैर सफेद) ये दस मूत्र संग्रहण अर्थात मूत्र को कम करते हैं।
कमल, नीलाकमल, नलिन, कुमुुद, सौगान्धिक, पुण्डरीक, शतपत्र, मुलेहठी, प्रियंगु, घाय के फूल, ये दस मूत्र विरजनीय अर्थात मूत्र में रंग आते हैं और दूषित रंग को प्राकृत रूप में लाते हैं।
इति पंचकः कषायवर्गः
बन्दार्क, गोखरू, पुनर्नवा, चिरचिटा, पाषण भेद, दर्भ मूलानि, कुश, काश, गुन्द्रा (होगला) ईकड़ी, इत्कट का मूल, ‘‘मूत्र विरेचनीय अर्थात मूत्र बढ़ाने वाले हैं। यह पांच से बना कषाय वर्ग है।
द्राक्षा, जंगीहरण, आंवला, पिप्पली, धमासा, काकड़सिनी, कण्टकारिका (छोटी कटेरी) श्वेत पुनर्नवा, रक्त पुननर्वा, भुई उगवंता, ये दस कासहर अर्थाता खंसी को शान्त करते हैं।
कचूर, पोहकर मूल, अम्लवेत, एला हिंगु, अगुरू, तुलसी, भुई आवंला, जीवन्ती, चीख (चण्डा) ये हस श्वासहर अर्थाता श्वास रोग के नाशक हैं।
पाटला, अरणी, बेलगिरी, श्योनाक, गम्भारी, कण्टकारिका, (छोटी कटेरी) बड़ी कटेरी, शालपर्णी पृष्निपर्णी, गोखरू, ये दस शोथहर अर्थात सूजन कम करते हैं।
इति पंचक कषाय वर्गः
किसमिश खजूर, चिरौंजी, बेर, अनार, अंजीर, फालसा, ईख, जौ, साठी चावल, ये दस श्रम हर अर्थात थकावट को मिटाते हैं।
खील, चन्दन, गम्भारी फल, मुलहठी, शर्करा (मिश्री) नीला कमल, खस, सरिवा, गिलोय, नेत्रवाला, यह दस दाह प्रशमन अर्थात जलन को शान्त करता है।
तगर, अगर, धनिया, सोंठ, अजवायन, वचा, छोटी कटेरी, अरणी, श्योनाक, और पिप्पली ये दस शीत शाघ्रशमन अर्थात शीत नाशक हैं।
तेंदू, चिरौजी का फल, बेर, खैर, सफेद खैर, सावतवन, अश्वकर्ण (साल), अर्जुन, असन, पीतसाल, अरिमेद, ये दस उदर्द अर्थात शीतपित्त रोग को शान्त करते हैं।
विदारीकन्द, पिठवन, बड़ी कटेरी, छोटीकटेरी, एरण्ड, काकोली, चन्दन, खस, छोटी इलायची, मुलेठी, ये दस अंगमर्द प्रदाहमन अर्थात अंगो के टूटने की बैचैनी को मिटाते हैं।
इति पंचकः कषाय वर्गः
पिप्पली, पिप्पली मूल, चव्य, (चविका) चित्रक मूल, सोंठ, मरिच, अजवायन, अजगन्धा (डुकू), जीरा, गंढीर, ये दस शूल प्रशमन, अर्थात तीव्र पीड़ा के नाशक हैं। यह पांच एक कषाय वर्ग है।
मधु, मुलहठी, केशर, मोचरस (मोचरस) मिटटी का ठीकरा, पठानी लोध, गेरू, फूल प्रिंगू, मिश्री, खीलें, ये दस शोणित स्थापन अर्थात रक्त रोधक व बहते रक्त को रोकने वाले हैं।
साल, कायफल, कदम्ब, पद्याख, नाग केशर, सिम्बल का गांेंद, सिरस, जलबेतस, एलवालुक, अशोक, ये दस वेदनास्थापन अर्थात तीव्र वेदना को कम करते हैं।
हींग, नीम, अरिमेद(रेवां) वच, चोरक, वयस्था (ब्रम्ही) गोलोमी (वच या दूर्वा) जटामांसी, गुग्गुल, कुटकी, ये दस संज्ञा स्थापन अर्थात संज्ञा उत्पन्न करते हैं।
ऐन्द्री, ब्रम्ही, शतावरी, महाशतावरी, अमोघा (आंवला) गिलोय, हरीतकी, कुटकी, खरैटी, प्रियंगू, ये दस प्रजास्थापन अर्थात संतति जनन है।
गिलोय, हरण, आंवला, मुक्ता (रास्ना) अपराजिता, जीवन्ती, अतिरसा (शतावरी) और पुनर्नवा, ये दस औषधि वय स्थापन अर्थात वय को टिकाती है। यह पांच सौ से बना हुआ कषाय वर्ग है। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य को गिनने से पांच सौ कषाय पूर्ण हो जाते हैं। एवं पचास महाकषाय भी हो जाते हैं। इन कषायों के लक्षण उदाहरण भी कह दिये गये है।।
फैलाव की सीमा नही है और बहुत थोड़े में कहे हुए अर्थ को थोड़ी बुद्धि वाले समझ नहीं सकते। इसलिए न तो बहुत संक्षेप में और न बहुत विस्तार से से यहां कहा हैं। यहां पर तिना भी कहा है वह थोड़ी बुद्धिवालों के व्यवहार चलाने के लिए है और जो लक्षण अनुमान, युक्ति में निपुण हैं उन बुद्धिमानों के लिए न कहे हुए अर्थ को जानने के लिए सहायक होगा। 61
इस प्रकार से कहते हुए भगवान आत्रेय के प्रति अग्निवेश बोले हे – भगवन ये पांच सौ कषाय पूरे नहीं होते। क्योंकि वे द्रव्य उन हमा कषायों में बार बार आते हैं अर्थात एक द्रव्य भिन्न-भिन्न कषायों में बार बार आता है। इस प्रकार से पांच सौ कषाय पूरे नहीं हो सकते।
अग्निवेश के प्रति भगवान आत्रेय बोले हे अग्निवेश बुद्धिमान व्यक्ति को इस प्रकार से नहीं देखना चाहिए एक द्रव्य भी दूसरे दूसरे काम करता हुआ भिन्न संज्ञा वाला हो जाता है। जिस प्रकार एक पुरूष बहुत से काम करने में समर्थ होता है। वह जो जो भी काम करता है वह उस उस कर्म के वह कर्ता करण(साधन) और कार्य के अनुसार वह गुण वाले नाम विशेष को प्राप्त होता है। इस प्रकार से औषध द्रव्य को भी कार्य साधन और कर्ता आदि दृष्टि से देखना चाहिए। और यदि किसी ऐसे एक ही द्रव्य को प्राप्त कर लें। जो द्रव्य सब काम करने में समर्थ हो तो फिर कौन दूसरी औष को पास में रखने अथवा शिष्यों को उपदेश करने के झंझट करे इसलिए काम करने में समर्थ शक्ति वाला ऐसा कोई एक द्रव्य नहीं है।
इस विषय में श्लोक है
जिन द्रव्यों में से छः सौ विरेचन योग होते हैं वे एवं विरेचन योगों के छः आश्रय भी संक्षेप से कह दिये हैं।
लवण को छोड़कर शेष पांच रसों की ‘कषाय संज्ञा है। इस लिए कषायों की पांच प्रकार की योनि कही है। एवं इन पाच कषायों की पांच प्रकार की कल्पना भी कह दी है और पचास प्रकार के महाकषाय कहे हैं। कषायों के पांच सो प्रकार भी दिग्दर्शन के लिए न तो बहुत विस्तार से और न बहुत संक्षेप में कहे हैं। वे थोड़ी बुद्धि वालों को काम देने के लिए प्रर्याप्त है। इसलिए न विस्तार किया है और न बहुत संक्षेप। मन्द बुद्धि वाले व्यवहार का चला सकें। और बुद्धिमान की प्रतिभा बढ़ाने के लिए पांच सौ कषाय का वर्ग कह दिया। इन कषायों का वाहय कमों तथा अभ्यान्तर प्रयोगों में संयोग और प्रयोग को जानता यह उत्तम है।
भेषज चतुष्क कहने के अनन्तर मात्राअशतीय अध्याय की व्यवस्था करेगें। इस प्रकार भगवानात्रेय ने कहा है
मात्रा में आहार करने वाला होना चाहिए। आहार मात्रा जठर अग्नि के बल की अपेक्षा करती है। जितना खाया हुआ भोजन मनुष्य को प्रकृति, स्वास्थ्य नुकसान न पंहुचाकर, ठीक समय में जीर्ण हो जाता है भोजन की उतनी मात्रा जाननी चाहिए।
भोजन चार प्रकार का है भक्ष्य, चोष्य, लेह, और पेय।
एक ही मनुष्य की शक्ति सदा एक समान नहीं रहती। यौवनावस्था में जितनी जठराग्नि समर्थ होती है, उतनी बाल्यावस्था या बृद्धाावस्था में नहीं होती है। इसी प्रकार हेमन्त ऋतु में जितना अग्नि प्रबल रहती है उतनी वर्षा में नहीं रहती। इस लिए प्रत्येक समय के लिए एक मात्रा एक व्यक्ति के लिए भी निश्चित करना असम्भव है, फिर सब के लिए सामान्य रूप से मात्रा निश्चित करना असम्भव है, इसलिए मात्रा का निर्णय प्रत्येक व्यक्ति के ऊपर ही छोड़ दिया जाता है।
2(क) यथाकालः – प्रातःकाल का भोजन सायंकाल तक और सांयकाल का भोजन प्रातः काल तक जीर्ण हो जाये। क्योंकि हमारे यहां दो ही समय भोजन का विधान है।
(ख) मनुष्य की प्रकृति के ऊपर मात्रा का निर्णय रखने से विषम और तीक्ष्ण अग्नि वाले व्यक्ति भी अपनी भोजन की मात्रा स्वयं निश्चय कर सकते हैं। तीक्षण अग्नि वाले को इतना भोजन करना चाहिए जो कि ठीक समय में जीर्ण हो जाये, इसी प्रकार विषम अग्नि वाले भी ठीक समय में जीर्ण हो सके ऐसा भोजन करें। यही उनकी मात्रा है।
(ग) भोजन से कुक्षि का पीडन न होना, हृदय का न रूकना, पार्श्वों का न फूलना, पेट का न तनना, या भारी न होना, श्वास में कठिनाई का न होना, भूख प्यास की शान्ति, उठने बैठने चलने फिरने लेटने या बातचीत में हल्कापन, अथवा सुख की प्रतीत होना ही प्रकृति है।
एक पदार्थ लघु होता है हुआ भी अधिक मात्रा में खाने से गुरू हो जाता है। इसी प्रकार गुरू पदार्थ थोड़ा खाने से लघु हो जाता है।
मात्रा के साथ संस्कार राधने की बिधि से भी लघु पदार्थ गुरू और गुरू पदार्थ लघु बन जाते हैं। सम्बन्धी ज्ञान करना व्यर्थ है ऐसा नहीं क्योंकि द्रव्यों का गुरू या लघु होना भी अकारण या निष्यप्रयोजन नहीं है।
वायु और अग्नि के गुणों की अधिकता वाले पदार्थ लघुगुण वाले होते हैं। आकाश गुण वाले बहुत से द्रव्य लघु होते हुए भी अग्नि को बढ़ाने वाले नहीं होते, इसीलिए इनका ग्रहण नहीं किया। पृथ्वी जल गुणों की अधिकता वाले पदार्थ गुरू होते हैं।
इसलिए लघु पदार्थ वायु एवं अग्नि से बने होने के कारण और अपने गुणों के कारण से जैसे वायु रूक्ष, लघु, सूक्ष्म, चल, विशद, खर गुण वाला है। इसमें भी लघु पदार्थ जाठाराग्नि को संदीपन करने वाले एवं तृत्ति पूर्वक मात्रा का व्यतिक्रम करने खाने पर भी थोड़े दोष वाले होते हैं। ये अधिक दोष नहीं करते हैं।
गुरू द्रव्य अग्नि को संदीपन करने वाले नहीं होते। क्योंकि असमान होने से अग्नि से विपरीत गुण वाले हैं अर्थात पृथ्वी और जल के गुण वाले होते हैं। अतः तृप्तिपूर्वक पेट भर के खाने से बहुत अधिक दोष कारक होते हैं। व्यायाम अग्निवल और हेमन्तऋतु आदि में स्वाभावतः अग्नि वृद्धि होने के कारण ये विकार नहीं करते, अन्य अवस्थाओं में विकार उत्पन्न करते हैं। इसलिए मात्रा अग्नि बल की अपेक्षा करती है। गुरू लघु द्रव्य की अपेक्षा नहीं करती है।
मात्रा द्रव्य की अपेक्षा नहीं करती, ऐसा भी नहीं क्योंकि मात्रा की अपेक्षा से गुरू द्रव्यों का तीन हिस्सा या आधेपेट, जिससे कि कुक्षि में प्रपीड़न, भारी-पन, प्रतीत न हो, इतना खाना बताया है। परिणाम या मात्रा से नहीं बताया। इसी प्रकार लघु गुण वाले पदार्थों का भी पेट भर के खाने का आदेश नहीं।
अग्नि भी रूक्ष, लघु, सूक्ष्म, चल, विशद खर है, इसीलिए इस गुण वाले पदार्थ अग्नि को बढ़ायेगें। समान गुण वाले समान गुणों को बढ़ाते हैं। अतः अधिक मात्रा में खाने पर भी लघु पदार्थ अग्नि को बढ़ायेगें ही।
व्यायाम करने वाले मनुष्य को विरूद्ध वा अबिरूद्ध सब प्रकार का भोजन पच जाता है। क्योंकि व्यायाम से अग्नि बढ़ता है। हेमन्त में अग्नि स्वभावतः प्रबल होती है, अतः गुरू पदार्थ खाने का आदेश दिया है।
क्योंकि मात्रा में खाया हुआ आहार प्रकृति और स्वास्थ्य को न बिगाड़ कर उपयोग करने वाले मनुष्य को बल वर्ण, सुख, आयु से युक्त करता है, इसलिए मात्रानुसार भोजन करना चाहिए।
इसलिए भोजन कर चुकने पर भारी पिष्टी से बने चावल, चिचड़ा इनको कभी नहीं खाये। मात्रा में भी भोजन करने के बाद इनको नंहीं खान चाहिए। भूखे होने पर इन पदार्थों को मात्रा में ही खाना चाहिए अधिक नहीं। सूखे हुए शाक कचरी आदि का प्रयोग निरन्तर नहीं करना चाहिए। क्योंकि ये गुरू हैं।
रोगों की उत्पत्ति ‘प्रज्ञापराध’ परिणाम और असात्म्येन्द्रियार्थ, संयोग ये तीन ही करण हैं। अतः इनको छोड़कर सब करना चाहिए, इनका सेवन नहीं करना चाहिए, इनसे बचना चाहिए। ऐसा करने से भावी में रोग उत्पन्न नहीं होने देगें।
स्वास्थ्य के लिए आहार विधि को कह कर इस के आगे शारीरिक कार्यों का उपदेश करते हैं। स्वस्थ वृत्त अर्थात स्वास्थ् की दृष्टि से अंजन आदि एवं शारीरिक कार्य उनके गुणों सहित कहते हैं।
आंख तेजोमय अग्नि स्वरूप है। इसलिए आंख को शरीर के दोष वात, पित्त और कफ इनसे भय बना रहता है। इनमें भी विशेष कर कफ से। इस लिए शलेष्मा के जय के लिए पांचवें छठे दिन अंजन रसांजन रात्रि में लगाना चाहिए।
सौवीरांजन को प्रतिदिन आंखों में लगाना चाहिए, क्योंकि यह आंखों के लिए हितकारी है। इससे आंख, के तेज की रक्षा होती है, इससे आंखों के दोष दूर नहीं होते। आंखों के दोष दूर करने और आंखों से पानी का दोष निकालने के लिए पांचवें या आठवों दिन के बलाबल की अपेक्षा से रसांजन को रात्रि में प्रयोग करना चाहिए।85
आंख तेजोमय है, उसे खास करके कफ से भय है। इसलिए विशेषतः दिन में तीक्षण अंजन आंखों में नहीं करना चाहिए। क्योंकि दृष्टि तीक्ष्णांजन के लगाने से एवं दोष के कारण निर्बल होती है, इसलिए सूर्य को नहीं सहती और यदि सूर्य के सामने अंजन दिन में लगाया जाय तो आंख पीड़ित होती है इसलिए स्रावण अंजन को रात्रि में ही लगाना चाहिए।
श्लेष्मा निकलने के बाद श्लेष्मा को घटाने वाला और आंख को स्वच्छ करने वाला प्रयोग करना चाहिए। जिस प्रकार की धूल आदि से मेले हुए नाना प्रकार के स्वार्णादि बाल आदि से घिसने पर स्वच्छता होती है इसी प्रकार मनुष्यों की आंख सीतांजन निर्मल वातादि दोषों से रहित होकर स्वच्छ आकाश में चन्द्रमा के समान चमकता है।
अंजन के पीछे दृष्टि के प्रसादन के लिए श्लेष्म हर कर्म करने का विधान है। इसलिए अंजन के पीछे धूम्रपान कहते हैं।
मेहदी के बीज, प्रियंगू, काला जीरा, नाग केशर, नख, ही्रवेर, (नेत्रवाला) श्वेत चन्दन, तेजपात, दालचीनी, छोटी इलायची, खस, पद्याख, गन्ध तृण, सुगन्धित तृण, मुलेहठी, जटामांसी, गुगुल, अगर, मिश्री, बड़ की छाल, गूलर की उत्तम छाल, पीपल की छाल, पिलखन की छाल, लोध की छााल, जलमुस्त, राल, नागरमोथा, शैलेय, कमल, और नील कमल, धूप विशेष, शिलारस, शुकवई, इन सब को जल के साथ पीसकर सरकण्डा के उपर जो के समान बीच में से मोटी और पासों पर पतली एवं अंगूठे के बराबर मोटी, आठ अंगुल लम्बी बत्ती बना लेनी चाहिए उसे सूख जाने पर सरकण्डे पर से बीच से खोखली खींच कर उतारनी चाहिए, बत्ती को घी से स्निग्ध करके सुख पूर्वक नित्य प्रति पान करे। यह प्रयोेगिक नित्य पीने योग्य धूम्र है।
अपराजिता, ज्योतिषमती (मालकांगिनी) हरताल, मैनेसिल, द्रव्य लेकर पीसकर पूर्व की भांति बत्ती बनाकर पीना चाहिए। यह धूम्र शिरो विरेचन के लिए वेरेचनिक धूम है।
सिर का भारीपन शिर का दुखना, पीनस, नाक की श्लैष्मिक कला का सूजन, अधासीसी, कान की पीड़ा, आंख का दुखना, खांसी, हिचकी, दमा, स्वरभंग, दातों की निर्बलता, कान नाक और आंख के रोग स्राव का आना, नाक से दुर्गन्ध आना, मुख की बदबू, दांत की पीड़ा, भोजन में अरूचि, अनिच्छा, गर्दन का जकड़ जाना, इधर-उधर, न हिलना, खाज, कृमि, चेहरे का पीलापन, मुख से पानी आना, स्वर का साफ न होना, गण्गुण्डी, बालों का गिरना, बालों का रंग धूसर होना, बालों का झड़ जाना, छींक आना, आलस्य की अधिकता, बुद्धि का जड़ होना, नींद का अधिक आना, ये रोग धूम्र पीने से अच्छे होते हैं। और बाल सिर, की अस्थि, आंख कान आदि इन्द्रियों का, स्वर और गले का बल अधिक होता है।
बलवान कारण से भी वात कफ से उत्पन्न गले से ऊपर होने वाले आंख कान नाक मुख के रोग खासकर सिर सम्बन्धी रोग से धूम्र
करने वाले व्यक्ति को नहीं होते। मुख से धुआं लेकर नाक से निकाल देना चाहिए।
प्रयोगिक धूम्र के मुख से पीने के आठ समय ब्रम्हा आदि ने कहे हैं, क्योंकि इन आठ समयों में वात और कफ का प्रकोप देखा जाता है अन्य समय में इतना कोप नहीं दिखाई देता।
स्नान करके, भोजन करके, वमन करके, छींके लेकर, दांत जीभ साफ करके नाक से नस्य लेकर आंख में अंजन करके, सो के उठकर, प्रसन्न मन मो तब धूम्र को पीना चाहिए। इसी प्रकार से वातजन्य और कफजन्य, ग्रीवास से ऊपर के रोग नहीं होते हैं।
शीतगुण के कारण यदि वायु प्रकुपित हुई है, तो वात जन्य रोग होते हैं।ऐसी अवस्था में स्नेहिक धूम लेना चाहिए। जब पुरूष रूक्ष हो, रूक्ष हर स्नेहिक धूम्र पीना चाहिए। कफ जन्य रोग तब होते हैं जब पुरूष में रूक्षता का अभाव का आभाव होता है। इसलिए कफ के नाश के लिए वैरेचनिक धूम्र लेना चाहिए। ती प्रकार के धूम्रपान की घूटों की सीमा नौ है। अर्थात धूम्र पीने के समय किसी भी प्रकार 9 घूंट से अधिक नहीं पीना चाहिए।
यद्यपि धूम्रपान के आठ समय बताये गये हैं तथापि बुद्धिमान को अपने शरीर के दोष वृद्धि क्षय आदि का विचार करके दिन में आठ समयों में दो समय प्रयोगिक धूम का पान करना चाहिए। स्नेहिक धूम का दिन भर में एक बार, और बैरेचनिक धूम तीन चार बार पीना चाहिए, इससे अधिक नहीं।
ठीक प्रकार से पिये हुए धूम्र पान के लक्षण-
हृदय, मला उर स्थल का उर्ध्व भाग इन्द्रियों आंख, कान, नासिका आदि, इनकी स्वच्छता का प्रतीत होना, शिर का हल्कापन, दोष-वात पित्त कफ दोषों की शान्ति ये सम्यक प्रकार से पीये हुए धूम्र के लक्षण हैं।
बहरापन, आंखों से कम या सर्वथा न दीखना, गूंगापन, जीभ से बोला न जाना, पित्त के प्रकोप से रक्त विकार होना, सिर में चक्कर आना, ये रोग अकाल अर्थात ठीक समय पर धूम न पीने से अथवा अधिक पीने से होते हैं।
अधिक धूम्रपान से उत्पन्न उपद्रवों की चिकित्सा-
अधिक धूम्रपान करने पर घी का पिलाना अच्छा, नस्य आंखों में अंजन करना और संतपर्ण करने वाले स्निग्ध कर्म करने चाहिए।
पित्त के कारण जहां रक्त दूषित हो वहां पर शीतल चिकित्सा, शीतस्पर्श, शीतवीर्य वाले द्रव्यों से बनी औषधि, नस्य, अंजन आदि कार्य में बरतनी चाहिए, श्लेष्म प्रधान, पित्त की अवस्था में विरूक्षण अर्थात रूक्ष गुण वाले द्रव्यों से नावन अंजन कर्म करने चाहिए।
इसके आगे कहेगें कि किन-किन पुरूषों के लिए धूम्रपान निन्दित है। विरेचन जिसने लिया हो वस्ति कर्म, गर्भवती, श्रम, मद, अजीर्णवस्था में प्रजागर (रात्रि में जागने पर) बेहोशी, चक्कर आना, प्यास लगी होने पर, धातु के क्षय होने पर, क्षत, शराब पीकर, दूध पीकर, स्नेह पीकर, शहद खाकर, दही के साथ चावल आदि खाकर, शरीर में रूखापन होने पर, कोप की अवस्था में, गला सूख जाने पर, सिर पर चोट लगने पर, शिरो रोग में, रोहिणी रोग में, डिप्थीरिया में, गलरोग में, मेह होने पर इन अवस्थाओं में धूम्रपान नहीं करना चाहिए। इन कुसमयों में जो मनुष्य अज्ञान से धूम्र पान करता है उसके धूम्रपान से वातादि दोष बढ़ते हैं।
आंख अथवा ग्रीवा से ऊपर के अंग कान, नाक, आंख, शिर के श्रावण अर्थात धोने के लिए अणु स्रोतस इनके लिए अणु तैल को पुरूष वर्षा ऋतु अथवा वर्षा का पूर्व भाग शरद वसन्त इन तीनों कालों में जब आकाश बादलों से रहित एक दम निर्मल हो उस समय नस्य करें। जो पुरूष नस्य कर्म को ठीक प्रकार से उचित समय पर करता है उसके न तो आंख न कान, और न नासिका पीड़ित होती। उसके शिर के बाल न तो श्वेत होते हैं न भूरे होते है और न ही दाढ़ी मूझ श्वेत होती है। बाल भी गिरते झड़ते नहीं अपितु विशेष रूप से बढते हैं। नस्य लेने से ग्रीवा का अकड़ना, शिरोवेदना, मुख का लकवा, जबाड़ों का जकड़ना, पीनस, नासा रोग, आधा सीसी, और शिर का हिलना ये रोग शान्त हो जाते हैं।
धमनियां रक्वाहिनी नाड़ियां और शिर की अस्थियां शिर की धमनियां, सूक्ष्म सिरायें अथवा बन्धन कण्डरा दृढ़ बन्धन रज्जु रूप सिर के बन्धन, नस्य प्रयोग से अधिक बलवान हो जाते हैं। मुख प्रसन्न और तेजस्वी हो जाता है, आवाज, स्निग्ध, महान, गम्भीर मीठी हो जाती है और सब इन्द्रियां निर्मल स्वच्छ एवं अधिक बल वान बन जाती है। नस्य कर्म करने वाले मनुस्य को गले से ऊपर के रोग अचानक उत्पन्न नहीं होते। क्षीण होते हुए उत्तमांग में नांक, आंख, शिर, गले के ऊपर के अंगों में बुढ़ापे की झुर्रियां आदि नहीं होते है।
चन्दन, अगर, तेजपत्र वायविडंग, बेल वृक्ष की जड़ नीलकमल, खरैटी, नेत्रबाला, जंगी हरण, कैवतमुस्ता या मुदगपर्णी, दाल चीनी, नागरमोथा, अन्नतमूल, शालपर्णी, जीवन्ती, पीठवन, देवदारू, शतावर, रेणुकाबीज, बड़ीकटेरी, छोटी कटेरी, सल्लकी, पद्यकेशर, (कमल का केशर) इनको निर्मल निर्मल आकाश के 100 गुने जल में पकाना चाहिए और तेल से दस गुना रहने पर कषाय को उतार कर छान लें इस कषाय के दस भाग करके प्रत्येक में उस तेल को पकायें अर्थात प्रथम एक भाग के साथ तेल सिद्ध कर लें फिर उसी तेल का दूसरे भाग में समांश तेल के बराबर बकरी का दूध कषाय में मिला दें। यह नस्य कर्म के योग्य अणु तेल बनाने की विधि है। इस तेल की अर्धपल अर्थात दो तोला मात्रा को ले शिर के तेल लगा कर चिकना करके एवं पसीना लेकर तब रूई के फोये से तीन बार नस्य देना चहिए।
1. इस परिभाषा के अनुसार चन्दन आदि पदार्थों को उखल में कूटकर 50 तोले परिमित लेकर 400 तोले पानी में क्वाथ करना चाहिए। 40 तोले रहने पर छानकर दस भाग कर लेने चाहिए। और एक भाग के बराबर अर्थात 4 तोले तिल तेल मिलाकर पाक पूर्व विधि से करना चाहिए। इस प्रकार 9 बार करके दसवीं बार बकरी का दूध 4 तोले मिलाकर तेल पाक कर लेना चाहिए। यह अणु तेल बिधि है। अणु तेल का नस्य सप्ताह में लगभग दो बार लेना चाहिए। अर्थात यदि आज नस्य लिया है, तो तीन दिन छोड़कर पांचवें दिन नस्य लें। इस प्रकार से प्रत्यंेक ऋतु में कुल सात दिन तक लेना चाहिए। सप्ताह में लगभग दो बार नस्य लें।
इस तेल का नस्य लेने वाला व्यक्ति वायु के झोके में, खुली वायु में न रहे, शरीर को गरम बनाये रक्खे, पथ्यासी, जितेन्द्रिय, ब्रम्हचारी, संयमी रहे। यह तैल वात, पित्त कफ, तीनों दोषों का नाश करने वाला और आंख, कान नाक, आदि। इन्द्रियों को बल देने वाला है। जो व्यक्ति इस अणु तेल को समय-समय पर विधिपूर्वक प्रयोग उसे ऊपर लिखे हुए गुण मिलते हैं।
दन्त धावन बिधि-कसैले नीम आदि तिक्त तीखे, तेजबल, जीयापोता आदि, रसयुक्त दातुन को आगे से चबाकर कूटकर अर्थात नरम बनाकर, मसूड़ों को नुकसान न पंहुचाते हुए प्रातःकाल विस्तार से उठकर और सायंकाल सोने के समय दांत साफ करे।
दातुन करने से लाभ-
दातुन दुर्गन्ध को बुरे स्वाद को, जीभ दांत और मुख के मल, और मुख के दुर्गन्ध को नष्ट करती है। दांतों को साफ करने से मुख में रूचि प्रसन्नता अथवा रूचि उत्पन्न करती है।
जीभ साफ करने की बिधि-
जीभ को निर्लेखन अर्थात खुरेच करके साफ करने के लिए सोना, चांदी, ताम्बा, रांगा जस्ता, पीतल और लोह इनकी बनी जीभी अतीक्ष्ण जो तेज धारवाली, न हो टेढी मुड़ी हुई होनी चाहिए। जो मल जिहवा के पिछले भाग में लगा हुआ हो और जो मल श्वास को रोकता हो या दूषित करता हो उसका इससे खुरेचकर निकाल देना चाहिए।
दातुन के लिए उत्तम वृक्ष-
करंज, कनेर, अर्क, मालती, अर्जुन, असन, ये वृक्ष अथवा इनके समान इस गुण वाले वृक्ष दातुन के लिए उत्तम है।
मुख की निर्मलता भोजन में रूचि एवं सुख की सुगन्धि चाहने वाले पुरूष को चाहिए कि जायफल लता कस्तूरी, सुपारी, लवंग, शीतल चीनी, उत्तम पान, कपूर और छोटी इलायची इन बस्तुओं को मुख में धारण करे।
स्नेह गण्डूष के गुण-
जबड़ों को ताकत मिलता है, वाणी, स्वर, आवाज, को बल प्राप्त होता है, मुख गाल आदि की वृद्धि उन्नति रसों का ज्ञान भली प्रकार से होता है। और अन्न में भली प्रकार से भोजन के लिए रूचि होती है।
स्नेह गण्डूस अर्थात तेल के गरारे करने वाले को गले में खुशकी, रूक्षता नहीं होती है और न ओठों के फटने की आंशका रहती है। दांत जल्दी गिरते भी नहीं अपितु और भी अधिक जड़ें मजबूत बन जाती है और न दांतों में दर्द होती है। और न खाटाई से खटटे होते हैं। कठोर खाने की वस्तु को भी खा सकते हैं।
सिर पर तेल लगाने से लाभ-
नित्य प्रति शिर पर तेल की मालिस करने से शिरःशूल नहीं होता है, न बाल उड़ते हैं। न गंजापन आता है न पालित्य अर्थात बाल जल्दी श्वेत नहीं होते और बाल नहीं गिरते बाल लम्बे और काले हो जाते हैं। आंख कान आदि इन्द्रियां स्वच्छ प्रसन्न हो जाती है, त्वचा स्वच्छ निर्मल हो जाती है और सुख पूर्वक नींद आती है। शिर पर तेल लगाने से ये लाभ है।
कान में तेल डालने से लाभ-
नित्य प्रति कान में तेल डालने से वात जन्य कान के रोग एवं ‘मन्याग्रह’ ग्रीवा का जकड़ना ओर जबड़ों का मिचना बहरापन, नहीं होता है।
शरीर पर तेल लगाने की बिधि-
जिस प्रकार स्नेह, चिकनाई की मालिश से घड़ा और जिस प्रकार स्नेह के मर्दन से चमड़ा और जिस प्रकार स्नेह के चुपड़ने से गाड़ी का धुरा दृढ़ और केश सह अर्थात उसी प्रकार शरीर पर तेल मलने से शरीर भी दृढ़, मजबूत हो जाता है। त्वक अच्छी कोमल हो जाती है। वायु के रोग शान्त हो जाते हैं और शरीर क्लेश कष्ट दुःख आदि व्यायाम, परिश्रम करने योग्य बन जाता है।
अन्य श्रोतादि इन्द्रियों की अपेक्षा त्वचा में वायु का आधिक्य रहता है और स्पर्श ज्ञान भी त्वचा में ही आश्रित है, इसलिए तेल का मलना त्वचा के लिए अति उपकारी है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि उसे करता रहे। तैल मर्दन करने वाले व्यक्ति के शरीर पर चोट लगने पर भी विशेष कोई हानि नहीं आती। क्योंकि वायु शान्त हुई होती है, अघात जो कि वायु को कुपित करने वाला है वह भी वायु को कुपित नहीं कर सकता। इसी प्रकार कभी अचानक श्रम या मेहनत का काम करने से भी शरीर में विकास उत्पन्न नहीं होता। नित्य प्रति अभयंग करने से मनुष्य की त्वचा कोमल, उत्तम स्पशज्ञान वाली, तथा पुरूष भरे सुघटित अंगों वाला बलवान एवं सुन्दर शरीर वाला हो जाता है। ऐसे मनुष्य को बुढ़ाप भी जल्दी नहीं आती।
पांव में तेल मर्दन के गुणः- पांव में तेल लगाने से तन्तुओं पर खरत्व, सूखापन, रूक्षता, श्रम और पांव की सुति शीध्र ही अच्छे हो जाते हैं। पांव में तेल मर्दन करने से पांव में कोमलता, सुकुमारता, आ जाती है। पांव बलवान, स्थिर हो जाते हैं। इसके सिवाय आंख स्वच्छ निर्मल हो जाती है। और वायु भीपांव की शान्त हो जाती है। पांव में तैल मालिश करने वाले व्यक्ति को न तो गृधसी रोग न पांव का फटना और शिरा या स्नायुओं का संकुचित होना होते है।
शरीर पर उबटन लगाने शरीर की दुर्गन्ध भारीपन तन्द्रा, खाज, मल, भोजन में अनिच्छा स्वेद पसीने की बदबू, नष्ट हो जाते हैं।
स्नान का फल:- नित्य प्रति स्नान करने से मनुष्य को पवित्रता, पुरूषत्व, दीर्घायु, मिलती है। स्नान से थकावट, पसीना और मल की दुर्गन्ध दूर हो जाती है। स्नान करने से शरीर का बल, और ओज विशेष रूप में बढ़ता है। ओज आठवाी धातु है मज्जा के सूक्ष्म भाग का शुक्रग्नि से पाक होने पर जो सूक्ष्मतम भाग बनता है वही ओज है। जिसके कम होने से मनुष्य का तेज कम हो जाता है और जिसके नाश होने से मनुष्य भी मर जाता है।
स्वच्छ वस्त्र पहिनने के गुण- निर्मल स्वच्छ साफ वस्त्र पहिनने से मनुष्य की कमनीयता, सुन्दरता, यश, कीर्ति, दीर्घायु मिलती है। स्वच्छ वस्त्र अलक्ष्मीघन अर्थात दरिद्रता को दूर करती है। और प्रहर्पण अर्थात चित्त को खुश करता है। स्वच्छ वस्त्र राजाओं की सभा में भी प्रकाशित होता है।
गन्धमाला आदि के धारण करने के गुण-
सगन्धित पदार्थ, इत्र आदि और पुष्प माला आदि को धारण करने से मनुष्य को पुरूषत्व, सुगन्धित, दीर्घायु मिलती है। इनके धारण करने से शरीर में कमनीयता, पुष्टि और बल आता है। माला के धारण करने से मन प्रसन्न रहता है। और दरिद्रता का नाश होता है।
रक्त हीरे आदि आमरण इनसे या स्वण आदि से बने आभूषण धारण करना धन्य अर्थात भाग्यवान धनी होने का चिन्ह है। इनका धारण करना मंगलकारी दीर्घायु देने वाला एवं शोभा बढ़ाता है। इनके धारण करने से सब व्यसन, सर्प कीटादि की विपत्ति नष्ट हो जाती है। आभूषण इत्यादि को धारण करने से मन प्रसन्न रहता है। सुन्दरता आती है। और ओज, तेज, कांति बढ़ती है।
दीर्घायु के लिए आवश्यक शुचि कर्मः-
बार बार मल त्याग आदि के पीछे शुद्धि करने से अर्थात पवित्र रहने से मेधा बुद्धि बढ़ती है। पवित्रता दीर्घायु मिलती है। और दरिद्रता एवं कलि (पाप, दुख) का नाश होता है। इसलिए इसलिए पांव और मल मार्ग गुद और उपस्य और सिर के सात छिद्रों दो नाक, दो कान, दो आंख और एक मुख इन सातों छेदों को बार-बार, साफ करना चाहिए।
सिर के बाल दाढ़ी मूंछ और नख आदि का काटना और इनका प्रसाद, श्रृगार करने से पुष्टि, पुरूषत्व, दीर्घायु मिलती है एवं रूप भी सुन्दर पवित्र बन जाता है।
जूता पहिनने के गुणः- जूता पहिनना आखों के लिए हितकारी है त्वचा के लिए लाभकारी एवं कीड़े आदि से बचाता है और बल पराक्रम, सुख और पुरूषत्व को देता है।
छत्र धारण करने का गुणः- छत्र धारण करना भावी दुःख को शान्त करने वाला, बलकारक बुरे, प्रभावों से भली प्रकार रक्षा करता है। छाता धारण करने से धूप, वायु, धूल, बरसात से बचाता है।
दण्ड धारण करने का गुणः-
दण्ड गिरते हुए को भलीभांति रोकता है, शत्रुओं का नाश करता है बल में सहायता देता है, दीर्घायु कारक और सर्प आदि के भय को मिटाता है।
जिस प्रकार नगराधिपति राजा नगर की और रथी अपने रथ की रक्षा करता है उसी प्रकार मेधावी अपने शरीर के कर्तव्यों में सावधान रहे।
जो धर्म के अविरोधी कार्य हों उन उपायों का पालन करना चाहिए। शम और अध्ययन करने से मनुष्य को सुख मिलता है।
इस अध्याय में मात्रा को लक्ष्य करके द्रव्य, मात्रा गुरू लघु का ज्ञान, निन्दित द्रव्यों और जिन जिन पदार्थों का अभ्यास करना चाहिए ये कह दिये हैं।
अंजन, धूम्र वर्ति के तीन प्रकार, प्रायोगिक, बैरेचिक और स्नेहिक धूम की कल्पना, धूम्रपान के गुण, धूमपान के समय, धूम पान का परिणाम, धूम पान से होने वाली हानियां और इन हानियों की औषध जिन पुरूषों के लिए धूम निन्दित है वह जिस प्रकार से पीन चाहिए, नलिका जिस वस्तु और जिस प्रकार की बनी होनी चाहिए वह भी कह दिया है। नस्य कर्म के लाभ, उसके बनाने की बिधि, नस्य लेने का समय एवं विधि, दन्त धावन के गुण, मुख में धारण करने योग्य बस्तुए तेल गण्डूष के गुण, सिर पर तेल लगाने से लाभ, कान में तेल डालने के गुण, पांव में और शरीर में तेल लगाने के लाभ, उबटन, स्नान करने के लाभ, शुद्ध वस्त्र माला आदि सुगन्धित द्रव्य, रत्न धारण करने के गुण, शुचिकर्म के, वालों को काटने, जूता छाता और दण्ड धारण के लाभ यह सब मात्राशितीय अध्याय में कह दिये हैं।
षष्टोध्यायः
इसके आगे तस्याशितीय नामक अध्याय की व्याखा करते हैं, ऐसा भगवान आत्रेय ने कहा है-
परिमित मात्रा में भोजन करने वाले पुरूष के मात्र में खाने पीने से बल, बर्ण, कान्ति सुख और आयुष को बढ़ाता है। मात्राशी पुरूष का सात्म्य ऋतु के गुण के विरीत चेष्टा व्यायाम, अभ्यंग आदि आहार खाना पीना चाटना के आश्रय पर ही ऋतुओं क सात्म्य भी जाना जाता है।
इस संसार में वर्ष रूपी का को छः ऋतुओं के विभाग के नियम से जानना चाहिए। जब भगवान सूर्य दक्षिणायन हो तब विसर्ग काल होता है। इसमें वर्षा शरद और हेमन्त ये तीन ऋतुऐं बनती हैं।
विसर्ग काल में वायु अधिक रूखी नहीं बहती और आदान काल में वायु बहुत रूक्ष खुश्क होती है। क्योंकि विसर्ग काल में चन्द्रमा का बल परिपूर्ण होता है। इस लिए चन्द्रमा शीतल किरणों में जगत का पोषण करता है। जगत को नित्य बलवान करता है। इसीलिए विसर्ग काल सौम्य है।
आदान काल आग्नेय है। इसलिए सूर्य वायु और चन्द्रमा के समय स्वाभाविक मार्ग से चलते हुए काल, ऋतु रस दोष और शारीरिक बल के बनाने में कारण होते हैं।
आदान काल में सूर्य अपनी किरणों से संसार की स्निग्धता को ले लेता है। इसलिए वायु तीव्र तीक्षण, रूखी सुखाती हुई बहती है। इससे शिशिर बसन्त और ग्रीष्म में क्रमशः (शिशिर से अधिक बसन्त में, और बसन्त से अधिक, ग्रीष्म में) रूक्षता उत्पन्न हो जाती है। इस रूक्षता के उत्पन्न होने से रूक्ष रस यथा तिक्त, कषाय, और कटु रस बढ़ जाते हैं। इन रसों की वृद्धि से मनुष्यों के शरीर में निर्बलता आ जाती है।
वर्षा शरद और हेमन्त ऋतु में जब सूर्य दक्षिणायन हो जाता है, काल के स्वाभाविक मार्ग के कारण, बादल वायु, वर्षा के कारण सूर्य का तेज घट जाने से और सोम का बल कम न होने से वर्षा का जल के कारण गरमी के शान्त हो जाने से संसार में अरूक्ष स्निग्ध रस बढ़ते हैं। इससे अम्ल, लवण और मधुर क्रमशः वर्षा शरद और हेमन्त में बढ़ते है। इन रसों के बढ़ने से मनुष्यों का बल भी बढ़ जाता है।
विसर्ग और आदान काल के आदि और अन्त में पुरूषों के शरीर में दुर्बलता आती है। यथा विसर्ग के आदि काल में और आदान के अन्त समय ग्रीष्म ऋतु में मनुष्यों की निर्बलता रहता है। दोनों कालों के मध्य में अर्थात शरद और वसन्त में मध्यम बल रहता है। विसर्ग के अन्त समय हेमन्त में और आदान काल के पहिले शिशिर काल में मनुष्यों का बल श्रेष्ठ अर्थात बढ़ा रहता है।
हेमन्त काल की परिचर्या- हेमन्त रूपी शीतकाल में ठण्डी वायु से के से जठराग्नि, शरीर से बाहर न निकलकर अन्दर ही रूक कर (जिस प्रकार कुम्हार बर्तन पकाते समय या ईटों के भटठे में आग को अन्दर ही बन्द कर देते हैं। और वहां पर अग्नि तीव्र हो जाती है। उसी प्रकार) प्रबल हो उठती है। इसलिए मनुष्यों की जठराग्नि काल स्वभाव से ही हेमन्त में प्रबल और अधिक मात्रा में भोजन को पचाने में समर्थ होती है। इस समय यदि जठराग्नि को अग्नि बल के अनुसार अन्न रूपी आहार न मिले तो शरीर के सौम्य भाग को नष्ट करने लगती है। इसलिए शीतकाल में शाीत गुण के बढ़ने से वायु भी बढ़ती है।
इस वायु की वृद्धि को रोकने के लिए स्निग्ध (मधुर), अम्ल और नमकीन पदार्थ खाने चाहिए। दूध दही, मात्रा आदि एवं गन्ने के रस से बनी खीर राब शर्करा आदि से बनी हुई बस्तुए वसा, तेल और नये चावल खाने चाहिए। हेमन्त काल में स्नान आदि में गरम पानी का व्यवहार करने वाले की आयु कम नहीं होती। तेलमर्दन, उबटन, सिर पर तेल लगाना, धूप का सेवन, भूमि के नीचे बने तहखानों में रहना, घर के अन्दर घर बनाकर उसे गरम करके रहना चाहिए, भली प्रकार घिरा हुआ घर हो आसन या सवारी आदि करते समय खूब लिपटकर बैठे जिससे शीत न लगे।
भारी कम्बल, मृगछाल, रेशम कम्बल, गददे इनकी फैलाकर भारी और गरम कपड़ों को पहिनकर मनुष्य अंगां पर अगर का गाढ़ा लेप सदा करे। भरे शरीर वाली, कामवती एवं उन्नत स्तनों वाली, अंगों पर अगर का लेप की हुई स्त्री का आलिंगन करके हर्ष और कामेच्छा के साथ सोये। शिशिर ऋतु में मैथुन यथेच्छ सेवन करे।
हेमन्त ऋतु में त्याज्य- लघुगुण वाले वायु प्रकोष्ठक आहार विहार हेमन्त ऋतु में छोड़ देने चाहिए। एवं सामने की वायु, थोड़ा खाना और पानी में घोलकर सत्तू खाना छोड़ देना चाहिए।
हेमन्त और शिशिर ऋतु में प्रायः शीत की दृष्टि से समाान है। परन्तु शिशिर काल से हेमन्त से इतना भेद है कि शिशिर का आदान काल होने से वायु रूक्ष होती है। एवं बादल, वायु और बरसात शिशिर में अधिक होने से इस ऋतु में शीत अधिक होता है। इसीलिए शिशिर ऋतु में हेमन्त की संपूर्ण बिधि पालन करनी चाहिए। परन्तु शिशिर में हेमन्त से अधिक गरम और वायु रहित घरों में रहे। शिशिर काल में कड़ुवे, तिल, कसैले, वायुकारक और लघु तथा ठण्डे खान-पान को छोड़ दे।
बसन्त की ऋतुचर्या- हेमन्त काल में संचित कफ सूर्य की किरणों से पिघलकर द्रव बनकर शरीर की अग्नि को कम करके कफजन्य बहत से रोगों उत्पन्न करता है। इसलिए कफ को निकालने के लिए बसन्त ऋतु में बमन, शिराविरेचन, कार्य करने चाहिए। व्यायाम उबटन, धूमपान, गरारे करना ओर अंजन लगाना चाहिए। स्नान एवं शौच कार्य में गरम पानी का व्यवहार करना चाहिए (पीने में नहीं) शरीर पर चन्दन और अगर का लेप करना चाहिए, जौ और गेंहूं शरभ बारह सींगे, खरगोश बटेर कटफोड़ा इनका मांस खाना चाहिए कफ दोष नाशक साधु या अंगूरी का बना बना शराब पीना चाहिए बसन्त काल में युवती स्त्रियांें और जंगलों में मनोरंजन करे।
ग्रीष्म चर्याः-
ग्रीष्म ऋतु में सूर्य अपनी किरणों द्वारा संसार का सार खीचता रहा है। इसलिए इस समय मीटा ठण्डा द्रव पदार्थ पीना, चिकने खान पान हितकारी हैं। ठण्डे और शर्करा मिश्रित सत्तू खाने चाहिए। घी और दूध के साथ चावल खाने से ग्रीष्म ऋतु में कष्ट नहीं होता है। इस ऋतु में मद्य नहीं पीना चाहिए और यदि पीना ही हो तो बहुत पानी मिलाकर पीना चाहिए। नमकीन, खटटे कडुवे और गरम रस पदार्थ तथा व्यवसाय इस ऋतु में छोड़ देना चाहिए। दिन के समय ठंडे मकानों में सोना चाहिए और और रात में चन्द्रमा की किरणों से ठण्डी की ही मकानों में सोना चाहिए और रात में चन्द्रमा की किरणों से ठण्डी की हुई मकान की छत पर खुली वायु में शरीर पर चन्दन मलकर सोना चाहिए। चन्दन और पानी से ठण्डे किये हुए पंखां से या हाथ के स्पर्श से, मोती और मणियों से शोभित होकर पलंग पर सोये। जंगलों को, ठण्डे पानी को और फूलों को ग्रीष्म काल में सेवन करे। ग्रीष्म ऋतु में मैथुन से अलग रहे।
वर्षा काल की ऋतु चर्या‘-
आदन काल में शरीर के निर्बल होने से अग्नि भी निर्बल हो जाती है। यह अग्नि वर्षा ऋतु में वायु, पित्त, कफ तीनों दूषित हो जाती है। ग्रीष्म ऋतु में प्रचण्ड सूर्य की गरमी से भूमि के तप जाने से, वर्षा में बरसात पड़ने से पानी के स्पर्श से भूमि में से गरम भाप निकलने से तीनों दोषों कुपित हो जाते हैं, इसी प्रकार बादलों के बरसने से वात, कफ कुपित होते हैं। जल के अम्लपाक होने से पित्त कुपित होता है। वर्षा ऋतु में अग्नि बल के क्षीण होने से वात, पित्त कफ तीनों कुपित हो जाते हैं। इसलिए वर्षा में साधारण विधि का पालन करना चाहिए। पानी में खुला सत्तू, दिन में सोना, ओस का पानी सम्भोग, मैथुन, धूप और व्यायाम इस ऋतु में नहीं सेवन करने चाहिए। वर्षा काल में में खान पान के अन्दर प्रायः करके शहद का उपयोग करना चाहिए। बरसात के दिनों में जिस दिन वायु और बरसात जोर का पड़ रहा हो और सर्दी बहुत हो, उस दिन वायु को शान्त करने के लिए अम्ल लवण रस तथा स्नेह घी जिस अन्न में स्पष्ट दीखता हो, उसे विशेष करके खाना चाहिए। अग्नि की रक्षा करने के लिए जौ, गेहूं चावल, घी आदि से संस्कृत यूष खाने चाहिए। पित्त को शान्त करने के लिए थोड़ा शहद मिला द्राक्षासव अथवा पानी में शहद मिलाकर पीना चाहिए। वर्षा ऋतु में या तो आकाश से गिरा स्वच्छ पानी पीना चाहिए अथवा कुएं का मर्दन, उबटन, लगाना, स्नान करना सुगन्ध धारण करना, माला पहिनना, हल्का और साफ बस्त्र पहिनना, तथा सूखे स्थान पर रहना चलना आदि कार्य वर्षा ऋतु में करना चाहिए।
शरद ऋतु की परिचर्या-
वर्षा ऋतु में काल स्वभाव से संचित हुआ पित्त शरद काल में बादलों के हट जाने से, सूर्य के किरणों के ताप से सहसा कुपित होता है। इसलिए इस ऋतु में मधुर, लघु शीत, और तिक्त, पित्तशामक खान पान परिमाण में खाना चाहिए। चावल जौ गेंहू इनको शरद काल में खाना चाहिए। तिक्त औषधियों से संस्कृत घृत, विरेचन, रक्तमोक्षण, शिरावेध,, जोंक आदि से रक्त का निकालना और धूप का सेवन न करना ये काम बादलों के चले जाने पर शरद ऋतु में करने चाहिए। इस ऋतु में चर्बी, तेल, ओस, क्षार दही दिन में खाना सामने से आती हुई पुरूवा वायु का त्याग करना चाहिए।
हंसोदक का लक्षणः-
दिन में सूर्य किरणों से गरम और रात्रि मं चन्द्रमा की शीतल किरणों से ठण्डा होने से वाला काल स्वभाव से पका हुआ अर्थात वर्षा का जल जिसमें न रहा हो इससे दोष रहित, अगस्त नक्षत्र के उदय होने के प्रभाव से निर्मण, विष रहित, पानी को हंसोदक कहते हैं। यह हंसोदक शरद ऋतु में निर्मल और पवित्र है। इसलिए स्नान काम में, पीने में, अवगाहन, में पानी में बैठने आदि कार्यों में उत्तम और अमृत के समान है। शरत्काल में रात्रि के प्रथम प्रहर में चन्द्रमा की किरणों का सेवन करना तथा शरत कालीन मालायें और निर्मल वस्त्र पशस्त है।
क्रिया और आहार, खान बिहार, के आश्रित अर्थात ऋतुओं के अनुकूल जो कर्म है वे कह दिये। पुरूष की प्रकृति के अनुसार जो उचित अनुकूल पड़ता है उसे आकःसात्म्य कहते है।
जो आहार या विहार दश एवं रोग इनके गुणों से विपरीत, गुण वाले होते हैं। उस आहार विहार को सात्म्य को जानने वाले विद्वान सात्म्य कहते है।
प्रत्येक ऋतु में मनुष्यों को क्या क्या सेवन करना चाहिए और क्या क्या नहीं चाहिए तथा कारण रूप सात्म्य को भी इस तस्याशितीय अध्याय में कह दिया गया।
अथ सप्तमों अध्यायः
मल मूत्रादि के उपस्थित बेगों को रोकने का प्रतिपेध करने के लिए न वेगानधारीय नामक अध्याय का व्याखान करते हैं। जैसा कि भगवान आत्रेय ने कहा था।
बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि उपस्थित हुए मूत्र मल के वेगों को नहीं रोके। इसी प्रकार शुक्र, आपान आदि वायु, वमन, छींक, डकार, जम्हाई, भूख और प्यास, हर्ष, या शोक के कारण उत्पन्न आंसू, नींद और श्रमजनित तीव्र प्रश्वास के बेगो को भी नहीं रोकना चाहिए। इन उपस्थित वेगों को रोकने से जो जो रोग होते हैं, उनकी चिकित्सा के लिए पृथक पृथक उपदेश करते हैं। सुनो।
मूत्र के उपस्थित वेग को रोकने से मूत्राशय और लिंग में दर्द होती है, मूत्र त्याग में कष्ट होता है, शिर में दर्द, मूत्र वेग के कारण खीच होने से शरीर झुक जाता है पेडू जकड़ा हुआ प्रतीत होता है। अथवा उस प्रदेश में फलाव प्रतीत होता है ये लक्षण मूत्र में उपस्थित वेग को रोकने से होते हैं।
इस की चिकित्साः-
पसीना देना, गरम पानी की नाद में बैठना तैल आदि मर्दन और का नस्य देना, तीन प्रकार का वस्ति कर्म मूत्र के उपस्थित वेग को रूकने के प्रतीकार हैं।
मल के उपस्थित वेग को रोकने से पक्काशय अर्थात नाभि के नीचे के भाग और शिर में वेदना होती है। अगन वायु और मल बन्द हो जाता है, पिण्डलियों में ऐठन होती है। पेट में अफारा बढ़ जाता है।
चिकित्साः-
स्वेद पसीना देना, अभयंग अवगाहन, फलवर्ति, और वस्ति कर्म करे। विरेचन द्रव्यों का घी और तैल आदि द्वारा चूर्ण क्वाथ, कल्कादि के रूप में बनाकर देना और वात को अनुलोमन करने वाली औषध मल को रोकने में हितकारी है।
वीर्य के उपस्थित वेग को रोकने से लिंग और अण्डकोषों में बेदना होती है अंग टूटते हुए प्रतीत होते हैं, चेतना के स्थान हृदय में वेदना अनुभूत होती है और मूत्र भी बन्द हो जाता है।
तैलमर्दन, द्रोणी स्नान, मद्य कुकुट का मांस, हैमन्तिक, धान्य, दूध, वस्तिकर्म, और मैथुन कर्म ये शुक्र वेग के निरोध से उत्पन्न रोगों की चिकित्सा है।
आपान वायु के रोकने से आपान वायु मूत्र और पुरीष रूक जाते हैं। अफारा हो जाता है। थकान की अंगों में प्रतीत होना, पेट में पीड़ा और अन्य वात जन्य रोग भी हो जाते हैं।
स्नेह तेल एवं स्वेद देना चाहिए, फलवर्तियां वात नाशक खानपान और वातनाशक वस्तिकर्म उत्तम है।
वमन को रोकने से खाज, कोढ़ भोजन में अनिच्छा, झााई मुख पर काले दाग आना, सूचन पाण्डु रोग, ज्वर कोढ़ वमन की रूचि, जी मिचलाना, वीसर्प, ये रोग उत्पन्न होते हैं।
भोजन खिालकर वमन कराना चाहिए, धूम्रपान, उपवास, शिराव्यधन, करके रक्त का निमालना, रूखे अन्न और पान, व्यायाम और विरेचन से ये उपाय उत्तम है।
छींक के रोकने से ग्रीवा का जकड़ जाना, शिरोवेदना, चेहरे का लकवा, आधा सीसी, आंख आदि इन्द्रियों की निर्बलता हो जाती है।
चिकित्सा- ग्रीवा से ऊपर भागों में मालिश, पसीना देना, धूम्रपान, नस्य, वातनाशक भोजन और खाना खाने के पीछे घृत पान करना हितकारी है।
डकार को रोकने पर हिचकी का आना, श्वास, भोजन में अनिच्छा, सिर छाती का कांपना, छाती और हृदय का रूक जाना, ये रोग हो जाते हैं।
चिकित्सा- डकार को रोकने से उत्पन्न विकास की शान्ति के लिए हिचकी के समान औषध करनी चाहिए।
जम्हाई के रोकने के लिए शरीर का झुकना, आक्षेप, हाथ पांव का जोर से कम्पन, पर्व सन्धियों का आकुचन, अंगों का सो जाना (स्पर्श ज्ञान का आभाव) कांपना, हिलना, आदि होता है। चिकित्सा के लिए वात नाशक उपचार करना चाहिए।
भूख को रोकने से कृश्ता, दुर्बलता, रंग का बदल जाना, अंग प्रत्यंग में बेदना, उनका टूटते हुए प्रतीत होना, भोजन में अनिच्छा, चक्कर आना, ये लक्षण होते हैं। चिकित्सा-स्निग्ध, चिकना, गरम और हल्का भोजन देना चाहिए।
प्यास के रोकने से गले और मुख का खुश्क हो जाना, बहरापन, थकान, श्वास, दम का चढ़ना, हृदय प्रदेश में दर्द ये लक्षण होते हैं। चिकित्सा- शीतल, तृप्ति करने वाले खान-पान देने चाहिए।
आंसुओं के रोकने से नाक से पानी झरना, कफ का श्राव होना, आंखों के रोग, हृदय रोग, अनिच्छा और श्रम आदि होते हैं। चिकित्सा- नींद मदिरा का पान, आनन्दायिक प्रिय वातचीत करना चाहिए।
नींद रोकने से जम्हाई, अंगों का टूटना, शिर की बेदना, और आंखें भारी हो जाती है। चिकित्सा- नींद आना, अंगों का संवाहन, अर्थात हाथों से अंगों को दबाना कल्याण कारी है।
थकान से उत्पन्न निःश्वास को रोकने से गुल्म रोग, हृद रोग मूर्च्छा उत्पन्न होती है। इस के लिए विश्राम एवं एक वातनाशक उपचार करने चाहिए।
उपस्थित वेगों के रोकने से उत्पन्न होने वाले जो ये रोग कहे हैं। रोगों की उत्पत्ति को न चाहने वाले व्यक्ति को चाहिए कि वह इन वेगों को न रोका करे। इहलोक और परलोक की हित की कामना वाले मनुष्य को चाहिए कि इन आगे कहे वेगों को धारण करें। जैसे-अयोग्य अनुचित साहस, और मन वाणी और शरीर के निन्दित कर्मों के उपस्थित वेगों को रोके।
मन के निन्दित कार्य जैसे- लोभ, अनुचित विषय में मन की प्रवृत्ति धन वान्धव आदि के कारण दुःख में मन की प्रवृत्ति, भय, क्रोध, जिसके कारण मनुष्य अपने को जलता हुआ प्रतीत करता है। वैर, दूसरे के अपकार में मन की प्रवृत्ति, महत्व, अभिमान में मन की प्रवृत्ति दूसरे की निन्दा, लज्जा का आभाव, कुढ़ना, दूसरे के द्रव्य को लेने की लालसा, बुद्धि इन मन के निन्दित कार्यों को रोकना चाहिए।
वाणी के निन्दित कर्म- कर्कश, कठोर, विशेषतः दूसरे की निन्दा या अनिष्ट करने की इच्छा से झूठी और अप्रसांगिक वाणी को रोकना चाहिए। अपनी आत्मा के प्रतिकूल जो कार्य हो वे कार्य दूसरे के लिए भी नहीं करने चाहिए। मनुष्य मन बचन और शरीर से पापरहित होकर ही पुण्य शब्द का भागी होता है। उसमें पुण्य शब्द तभी सार्थक होता है और तभी वह धर्म अर्थ और काम इनको प्राप्त करता है, और सुख का भी भोग कर सकता है।
व्यायाम-
जो शारीरिक चेष्टायें शरीर की स्थिरता, दृढ़ता के लिए शरीर के बल को बढ़ाने की इच्छा से की जाती है, उनको व्यायाम कहते हैं। इस व्यायाम को मात्रा में सेवन करना चाहिए।
व्यायाम के गुण- व्यायाम करने से शरीर में हल्कापन, काम करने की शक्ति, शरीर एवं यौवन, का टिकाउपन, दुःख को सहन करने की शक्ति वात आदि दोषों का शमन, जठराग्नि की प्रदीप्ति होती है।
अधिक व्यायाम से हानियां-
शरीर का थकान, मन और इन्द्रियों का थकान धातुओं का क्षय, रक्तपित्त रोग, प्रतमक, संज्ञक श्वास खांसी ज्वर और वमन अधिक व्यायाम से उत्पन्न होते हैं।
शरीर का परिश्रम उंचा अधिक बोलना, ग्राम्यश्रर्म प्रजागर (रात को जागना) इन उचित कार्यों को भी बुद्धिमान मनुष्य अधिक मात्रा में सेवन न करें।
इन उपर लिखे हुए या अन्य इसी प्रकार से कार्यों को जो मनुष्य अधिक सेवन करना है जिस प्रकार कि हांथी सिंह को खीचता हुआ है उसी प्रकार वह मुनष्य भी नष्ट हो जाता है। इस लिए बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि छोड़ने योग् दुःखदायी कर्मों से क्रमशः हट जाये।
हितकारी कर्मों को क्रमशः सेवन करना चाहिए। यहां अब क्रम का उपदेश करते हैं। छोड़ने लायक कार्य को चौथाई भाग करके क्रम से सेवन करना चाहिए। फिर दो और फिर तीन भाग छोड़कर ग्रहण करना चाहिए। अर्थात छोड़ने योग्य एवं ग्रहण करने योग्य कर्म का एक भाग छोड़कर ग्रहण करने योग्य कर्म का एक भाग उसके स्थान पर ग्रहण करना चाहिए। फिर दो भाग छोड़कर दो भाग ग्रहण करने योग्य ग्रहण करना चाहिए। फिर तीन भाग छोड़कर ग्रहण करने योग्य कर्म के तीन भाग ग्रहण करे इस प्रकार तीन दिन करे और फिर सारा कर्म छोड़कर सम्पूर्ण ग्रहण करे। ऊपर बताये हुए क्रम पूर्वक छोड़े हुए दोष फिर पैदा नहीं होते और क्रम से ग्रहण किये हुए गुण नष्ट नहीं होते, चिरकाल तक स्थिर रहते हैं। हितकारी पदार्थ भी सहसा उपयोग करने से अग्निनाश, अर्थात अरूचि आदि करते हैं। इसलिए इनको भी क्रम से ही ग्रहण करना चाहिए। इन सबि कार्यों में मनुष्य की प्रकृति का ज्ञान अपेक्षित है, क्योंकि कुछ कार्य ऐसे है जो कि एक के लिए अहितकारी हो, परन्तु दूसरे के लिए हितकारी।
कुछ मनुष्य जन्म काल या गर्भ काल से ही पित्त, वायु कफ, की असमानवस्था वाले होते हैं और कुछ मनुष्य गर्भाधान काल से ही प्रकृति वाले, पित्त प्रकृति वाले और कफ प्रकृति वाले होते हैं। इनमें पित्त वायु और कफ की साम्ययावस्था वाले मनुष्य प्रायः नीरंग रहते हैं। और वात प्रकृति या पित्त प्रकृति अथवा कफ प्रकृति के मनुष्य सदा रोगी रहते हैं। इनमें वातादि दोषों का साम्य अर्थात अनुकूल हो जाना ही शरीर की प्रकृति कही जाती है। अर्थात वात पकृति वाले मनुष्य में वात दोष उस के शरीर के अनुकूल हो जाता है। इसलिए वही उनकी प्रवृत्ति है प्रकृति होने से वात उस में दोष नहीं, परन्तु जब स्वस्थावस्था में वात बढ़ेगा तभी दोष होगा। जिस प्रकार कि विषकीट अपने विष से नहीं करना। इन वात आदि की अधिकता में वात आदि के विपरीत विरूद्ध गुणों का इनके कारणों के विपरीत गुण भी सेवन करना स्वास्थ्य वाली प्रकृति के मनुष्यों के लिए सब रसों का समानवस्था में अभ्यास करना उत्तम है। समान धातुओं वाला आदमी प्रशस्त है।
जब मल परिमाण से अधिक हो जाते हैं, तब ये विृकत होकर मल के स्थानों को पीड़ित करते है, मल के स्थान नीचे के दो गुदा, और उपस्थ शिर में सात दो नाक, दो कान, और आंखे एक मुख, निकलने के सब छिद्र ये मल के स्थान हैं। मल इनको पीड़ित करते हैं। भारीपन होने से मल की बृद्धि समझनी चाहिए और शरीर में हल्कापन होने से मल क्षय समझना चाहिए। मल के स्थानों से मल के न निकलने से मल का क्षय, मल स्थानों से मल का बार-बार अधिक बाहर निकलना वृद्धि को बताता है। मलों की बृद्धि और क्षय दूसरों के कारण हुए हैं, यह समझकर उनके चिन्हों से पहिचानकर उन से उत्पन्न साध्य रोगों को रोग और व्याधि के हेतु इन दोनों के विपरीत गुण, वीर्य विपाक और प्रभाव से विरूद्ध औषध, आहार और विहार द्वारा चिकित्सा करनी चाहिए। चिकित्सा करते समय वैद्य मात्रा औषध, आहार और विहार का परिमाण काल, दोष व्याधि के प्रकोप, ऋतु, रात दिन आदि समय का विचार कर ले। ये विषम धातु वाले रोगी और नीरोगी इन दोनों के लिए हितकारी है, धातु की विषमता से उत्पन्न होने वाले रोग नहीं होता, रोगी न हो अतः रोगी होने से पूर्व ही स्वस्थ वृत्त का सेवन करना चाहिए।
कारण से उत्पन्न होने वाले रोगों से बचने के उपाय-
वैशाख और इस से पूर्व के मास अर्थात चैत्र में, और भाद्रपद इससे पूर्व मास अर्थात श्रावण में तथा पौष इससे मास पूर्व मार्गशीर्ष में एकत्रित दोषों को बमन विरेचन आदि से निकाल देना चाहिए। हेमन्त ऋतु में संचित कफ को चैत्र मास में ग्रीष्म में संचित वायु को श्रावण मास में वर्षा में सचित पित्त को मार्गशीर्ष में निकाल देना चाहिए। इन मासों में दोषों के प्रकोप होने का भय रहता है। इसलिए प्रकोप होने से पूर्व ही दोषों को निकाल देना चाहिए। पहिले शरी को स्निग्ध और आदि से चिकना करके पसीना देना चाहिए। स्नेहन और स्वेदन के पीछे वमन कार्य और विरेचन कराना चाहिए। इनके पीछे वस्ति कर्म और अंत में नस्य कर्म अर्थात शिरोविरेचन देना चाहिए। स्निग्ध और स्विन्न शरीर वाले पुरूषों के लिए वमन कफ नाशक होने से चैत्र में, अनुवासन वस्तिकर्म वात हर होने से श्रावण मास में एवं पित्त नाशक होने से विरेचन मार्गशीर्ष मास में लेना चाहिए। अथवा चैत्र मास में वमन के पीछे विरेचन, मार्गशीर्ष में विरेचन से पूर्व वमन और पिफर चैत्र और मार्गशीर्ष दोनों में वस्तिकर्म एवं नस्य कर्म करना चाहिए। चैत्र में यदि वमनादि कार्य कर लिए हों तो श्रावण मास में अनुवासन और आस्थापन करना चाहिए। और यदि चैत्र वमन आदि न किये हों तो वमन विरेचन करके फिर वस्तिकर्म और नस्य करना चाहिए। स्नेह के पीछे स्वेद, स्वेद के पीछे वमन, वमन के पीछे विरेचन, विरेचन के पीछे वस्तिकर्म, और वस्तिकर्म के पीछे नस्य देना चाहिए। प्रथम स्वेदन, वमन, विरेचन, वस्ति, और नस्य कर्म ये क्रमशः तथा जिस पुरूष के लिए जो जो कर्म योग्य हों उन्हें करने के पीछे जरा और रोग को दूर करने वाली औषध का उपयोग करना चाहिए। रसायन सेवन के पीछे सिद्ध एवं वृष्य पौष्टिक प्रयोगों का सेवन समय को जनाने वाला वैद्य करावें। रस रक्तादि धातुओं को प्रकृतिस्थ होने से शरीर में दोष जन्य रोग नहीं होते। वृष्य आदि क्रिया करने से रस रक्तादि बढ़ते हैं और बुढ़ापे का अन्त हो जाता है, बुढ़ापा नहीं आता। यह उपरोक्त विधि शरीर दोष जन्य रोगों के अनुपत्ति के लिए कहा है। आगन्तुक रोगों के लिए भिन्न विधि कहते हैं।
जो कि भूत नाना सूक्ष्म प्राणी ग्रह आदि स्थावर या जंगम विष, झंझावात, अग्नि, ज्वालामुखी, दावानल, आदि चोट आदि से मनुष्यों के आगन्तुज अर्थात बाहर से होने वाले रोग होते हैं। उन में बुद्धि का अपराध मिथ्या या अन्यथा रूप प्रयोग हुआ होता है। शोक, भय, क्रोध अभिमान, दैष आदि मन के विकास अर्थात वात आदि दोष जन्य नहीं प्रत्युत ये सब बुद्धि के दोष से ही उत्पन्न।
आगन्तुज रोगों के प्रतीकार-ः आगन्तुज रोग वृद्धि के दोष से उत्पन्न होते हैं। इस लिए इस प्रज्ञापराध को छोड़ना चाहिए। इन्द्रियों को विषयों से रोकना बुद्धि, स्मृति भगवान का स्मरण, देश काल और आत्मा का चिन्तन, सच्चे कल्याणकारी मार्ग का अनुसरण करना, यह विधि आगन्तुज रोगों की उत्पत्ति से बचने का मार्ग है। इस प्रकार बरतने से आगन्तुज रोग उत्पन्न नहीं होते त्वति से पूर्व ही करें।
रास और तमस से मुक्त निभ्रान्त विद्वानों से उपदेश और बुद्धि से सिद्ध प्रमाण द्वारा सिद्ध किये, बुद्धि से स्वीकार किये ये दोनों मानसिक विकारों की अनुपत्ति में तथा उत्पन्न विकारों की शान्ति में कारण है।
वर्जने योग्य मनुष्य- जिनकी वाणी और मन पापमय हो, चुगलखार, झगड़लु, कमजोरी या छिद्र, को ढूढंकर उस पर हसने वाले लालची, जो दूसरी की उन्नति में द्वेष भाव रखते हैं। दूसरों की निन्दा ही करना जिनका काम है, चंचल प्रकृति, अस्थिर मन, दुष्मन से मिले हुए या काम क्रोधादि के वशीभूत, दयारहित निर्दयी, धर्म से न डरने वाले, ऐसे नीच पुरूषों को छोड़ देना चाहिए।
सेवन करना योग्य मनुष्य-
जो बुद्धि विद्या, आयु, शील, स्वभाव, धैर्य साहस, स्मरण शक्ति, मन का संयम आदि में अपने से बड़े हों, जो वृद्धों की सेवा करते हों, स्वभाव को जानने वाले, अनुभवी जिनको किसी प्रकार की चिन्ता नहीं, सुमुख सब प्राणियों के लिए पसन्न रहना, इन्द्रियों के विषयों में निवृत्त ब्रहम्चारी, सच्चे मार्ग का उपदेश करने वाले, पुण शब्दों को सुनाने वाले एवं पुण्य दर्शनशील, चिनका शब्द और दर्शन पवित्र करना है, इस प्रकार के आत्म पुरूषों का सेवन करना चहिए उनको गुरू मानना चाहिए। ये ज्ञान विज्ञान धैर्य स्मृति आदि की शिक्षा देकर मानस रोगों को नष्ट कर सकते हैं।
इह लोक और परलोक में सुख चाहने वाले बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि हितकारी, आहार, खान पान, आचार वर्तन, और चेष्टा क्रियाओं इन में विशेष रूप से यत्नवान रहे।
रात्रि में दही नहीं खाना चाहिए और रात के सिवाय अन्य समय में जब खाना हो तब भी था शक्कर के बिना, मूंग की दाल के बिना, शहद के बिना, अथवा आंवले के बिना नहीं खाना चाहिए।जब खाना हो शहद आंवला इन के साथ या गरम करके खाना चाहिए। रात में किसी प्रकार से नहीं खाना चाहिए। रात्रि में दही खाने से शरीर की शलेष्मा और स्वास्थ्य नष्ट हो जाते हैं और शरीर के दोष कुपित होते हैं। दही में घी मिलाने से दही कफ कारक हो जाता है। परन्तु वायु का नाश करता है।
शकर्रा युक्त दही पित्त को नहीं बढ़ाता, पन्तु आहार भोजन को पचा देता है। इसलिए तृष्णा, प्यास और कलेजे की जलन को मिटाता है। मूंग के साथ मिलाकर दही खाने से वातरक्त रोग में लाभ होता है। शहद के मिलाने से दही सुस्वाद और थोड़ा दोष वाला हो जाता है। दही को गरम करके खाने से रक्त पित्त जन्य विकार नष्ट होते हैं। आंवले के साथ खाने से भी रक्त पित्त रोग शान्त होता है। बहुत दही खाने वाला मनुष्य जो इस उपरोक्त विधि को छोड़कर दही खाता है, उसकी ज्वर, रक्त पित्त वीसर्प, कुष्ठ, पाण्डुरोग, भ्रम, और तीव्र कामला रोग हो जाता है।
मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले स्वाभाविक वेग, वेगों को रोकने से उत्पन्न होने वाले रोग इन रोगों की औषध, जिन उपस्थित वेगों को धारण करना चाहिए जिसके लिए जो लाभकारी है उचित एवं अहितकारी, छोड़ने योग्य और सेवनीय क्रम प्रकृत के अनुसार आहार, मलस्थान मल की वृद्धि क्षय, औषध, भविष्य में न होने वाले रोगों की औषध, सुख चाहने वाले बुद्धिमान व्यक्ति मनुष्य को जिन पुरूषों को छोड़ना या जिनका सेवन करना उचित है और दही को सेवन करने की बिघि,यह सब आत्रेय मुनि ने ‘नवेगान्धारणीय’ नामक अध्याय में सम्पूर्ण रूप से उपदेश किया है।
अष्टमोंध्यायः
आहार एवं ‘स्वस्थ चतुष्क’ कहने के अनन्तर ‘इन्द्रयोपकमणीय’ नामक अध्याय का व्याख्यान करते हैं। जैसा भगवान आत्रेय ने कहा था।
इस आयुर्वेद के प्रकरण में पांच इन्द्रिया है। पाच ही इन्द्रियांे के ग्राहय द्रव्य हैं। पांच ही इन्द्रियों के अधिष्ठान है। पांच ही इन्द्रियों के अर्थ, पांच प्रकार की इन्द्रियों का ज्ञान है ऐसा पूर्वाचार्यों ने इन्द्रियों के विषय में कहा है।
‘मन’ अतीन्द्रिय अर्थात इन्द्रियों में सूक्ष्तम है। वह इसी मन को सत्व कहते हैं। इसी मन को कितने चित्त इस नाम से जानते हैं। वह मन अपने विषय और आत्मा इन को श्रेष्ठता के अधीन व्यापार वाला है और इन्द्रियों की चेष्टाओं का कारण है। एवं इन्द्रियों की चेष्टाओं व्यापार वा प्रतीत का कारण मन ही है।
वास्तव में मन एक ही है परन्तु इन्द्रियों के अपने अपने द्रव्य में विषय के संकल्पों के बदलते रहने से एक पुरूष में अनेक मन एवं मन के सत्वगुण होने पर सूक्ष्म, रजस, तमस इन गुणों के न्यूनाधिक होने से अनेक मन एक ही मनुष्य में प्रतीत होते हैं। वास्तव में मन एक ही है अनेक नही है। क्योंकि एक समय में एक मन अनेक इन्द्रियों में प्रवृत्त नहीं हो सकता इस लिए एक समय में सब इन्द्रियों की प्रवृत्तियों चेष्ठा नहीं होती।
जिस गुण वाला मन (सत रज तम) बार बार अनुसरण करता है, मन को उसी ही गुणवाला मुनि लोग कहते हैं। क्योंकि जिन गुण की अधिकता होती है उसी गुण वाला मन होगा।
इन्द्रिया मन को साथ में लेकर ही विषय के ग्रहण करने में समर्थ होती है बिना मन के इन्द्रिया विषय को ग्रहण नहीं कर सकती।
आंख श्रोत नासिका, जिहवा और त्वचा ये पांच इन्द्रिया है। पांच इन्द्रियों के पाचं ग्राहय पदार्थ हैं। यथा आकाश वायु अग्नि, जल और पृथ्वी इन्द्रियों के पांच अधिष्ठान हैं, तथा चक्षु गोलक हो दोनों वाहय कान, जीभ, दोनों नासिकायें और त्वचा इन्द्रियों के पांच विषय है। शब्द स्पर्श रूप रस और गन्ध। इन्द्रिय ज्ञान भी पांच प्रकार का है चक्षुज्ञान, श्रोत ज्ञान गन्ध ज्ञान, रस ज्ञान, और स्पर्श ज्ञान।
ये पाचों इन्द्रियों के विषय, मन और आत्मा इनका एक साथ संयोग होने से उत्पन्न होते हैं। वह और ही क्षणिक स्थाई ज्ञान है। इस प्रकार से ये पांच-पांच पदार्थों के समूह होते है।
मन, मन के अर्थ (विषय) बुद्धि और आत्मा यह अध्यात्म द्रव्यों का और गुणों का संग्रह है। तथा जो कर्म द्रव्य में आश्रित है उसे क्रिया कहते हैं। ‘शुभ’ दोनों लोकों में कल्याणकारी अशुभ (लोकों में निन्दित) प्रवृत्ति निवृत्ति ये कारण है।
अनुमान द्वारा जानने योग्य इन्द्रियों पंचमहाभूतों के विकार के समान उत्पन्न हुई है तो भी तेज आंखों में आकाश श्रोतों में पृथ्वी और जल रसना में और त्वचा में विशेष रूप से रहते हैं।
इनमें जो जो इन्द्रियां जिस जिस से बनी है वे विशेष रूप से उसी उसी से बने अर्थ विषय को ग्रहण करती है। ये अपने समान स्वभाव वाली होने से समान जातिवाली विषय का ग्रहण करने में समर्थ होने से प्रघान भूतात्मक विषय को ही ग्रहण करता है। यथा आंख तेजस है इसलिए वह तेज की ओर दौड़ता है कान श्रोतव्य है इसलिए शब्द की ओर दौड़ते हैं।
इसमें मन के साथ इन्दिय की विषय में अतियोग, अयोग, या मिथ्यायोग होने से विकार उत्पन्न अर्थात रोग उत्पन्न होकर अपने अपने ज्ञान के नाश के लिए उद्यत हो जाता है। रामकंग से इन्द्रिय स्वभाव में रहकर अपने-अपने ज्ञान की वृद्धि करती है। समान अर्थात उचित योग से वृद्धि होती है।
मन का विषय चिन्तन करना है (सुख, दुख, प्रयत्न आदि चिन्तनीय होने से मन के विषय है) इसलिए मन और बुद्धि का समान योग स्वस्थता कारण है और मन एवं बुद्धि का अतियोग या हीन योग अथवा मिथ्यायोग विकृति अर्थात विकास या रोग का कारण है।
इसलिए अपनी प्रकृति में स्थित मन सहित इन्द्रियो को स्वस्थ तथा अपने रूप में रखने के लिए, विकृति से बचाने के लिए निम्न कारणों द्वारा प्रयत्न उचित अनुकूल से इन्द्रिय और विषय के संयोग न अति, न हीन न मिथ्यायोग से एवं बुद्धि द्वारा भली प्रकार देखकर कर्मो को उचित रूप में करने से और देश, काल, आत्मा के गुण के अविपरीत हितकारी वस्तुओं के सेवन करने से इन्द्रिया उपतप्त न होकर प्रकृति अवस्था में रहती है। इसलिए अपना या अपने शरीर का और आत्मा का कल्याण चाहने वाले सब पुरूषों को सदा स्मरण रखकर सद्वृत का (पांचों इन्द्रियों को मन के साथ संयुक्त करके) मन, बचन, और कर्म से पालन करना चाहिए।इस सद्वृत्त के पालन करने से आराग्यता एवं इन्द्रिविजय दोनों कार्य एक साथ् ही सिद्ध हो जाते हैं।
इस सद्वृत को सम्पूर्ण रूप में रहते हैं-देवता, गो ब्राहमण गुरू, (माता पिता अभ्यागत अतिथि) वृद्ध (विद्यावृद्ध धनबृद्ध आयुवृद्ध) सिद्ध आचार्य (उपनयन संस्कार करने वाले गुरू) इनकी पूजा सेवा करनी चहिए। अग्निहोत्र प्रातः सायं दोनों समय करना चाहिए। अनिन्दित, (दोषों को नष्ट करने वाली औषधियां) बनस्पतियां धारण करनी चाहिए। दोनों समय प्रातः सायं स्नान करना चाहिए। मल के स्थानों को बार बार एवं पांव को सदा पवित्र रक्खे। बाल, दाढ़ी मूछ नाखून कक्ष के एवं गुहय स्थनों के बालों को पंद्रह दिन में तीन बार पांच पाच दिन के पीछे कटवाना चाहिए। नित्य प्रति शुद्ध वस्त्र धारण करे, प्रसन्न मन रहे, सुगन्ध धारण करे।
उत्तम वेश धारण करे, शिर के बाल कंघीकर रक्खे, शिर कान त्वचा पर तेल का मर्दन करे, नित्य प्रति प्रयोगिक धूमपान करें घर आये हुए का या मिलने पर पहिले कुशल क्षेम पूछे, सुमुख सुन्दर प्रसन्न चेहरे वाला कठिन अवसरों पर भी सोचकर काम करने वाला, होम करने वाला यज्ञ देवयज्ञ, पित्रयज्ञ, ब्रहम्यज्ञ वैश्वदेव यज्ञ और सूयज्ञ करने वाला, दान वाला , अभयागतों को पूजा करने वाला, पिता पितामह आदि को श्रद्धापूर्वक अन्न वस्त्र देने वाला हो, समय पर हित परिमित और मधुर अर्थ से युक्त वाणी बोले, जितेन्द्रिय संयमी, धर्मात्मा हो, दूसरे की उन्नति को देखकर उन्नित करने में ईर्ष्या भाव रखे कि मैं भी ऐसा करूं जिससे मेरी भी उन्नति हो, परन्तु फल में ईर्ष्या न करे। चिन्ता रहित न डरने वाला, साहसी आहार और व्यवहार को छोड़कर अनयत्र लज्जाशील, महत्वाकांक्षी उत्साही कार्यों मे ंनिपुण, प्राणियों पर क्षमा करने वाला, अपकारी को भी क्षमा देने वाला धर्म में चित्त रखने वाला आस्तिक, विनय बुद्धि विद्या अभिजन और आयु में जा बड़े हों सिद्ध तप से जो बड़े हों ऐसे तपस्वी, और आचार्य इनकी सेवा करे। छत्र और दण्ड घारण करे, व्यर्थ या अकाल में न बोले, जूता पहिने, अपने चारो ओर कुछ दूर तक देखता हुआ चले मंगलजनक क्रियाशील रहे, कुचैले, हाड़ मांस कटि गुरू, अमेध्य, अपवित्र(शमसान) बाल, धान्यों के तुप, रोड़े कंकड़ आदि राख के घडे, आदि के ठीकरे, नहाने के स्थान, पूजा स्थान इन खानों को छोड़ने वाला हो श्रम से पूर्व ही आधी शक्ति व्यायाम को छोड़ दे, सब प्राणियों में बन्धु भाव भातृ भाव रखने वालो, क्रोधी पुरूशों को मनालेने वाला डरे हुए पुरूषों के लिए आश्वासन देने वाला दीनों गरीबों के लिए उपकार करने वाला, सत्य प्रतिष्ठा वाला शान्ति को मुख्य गिख्य गिनने वाला कठोर बचनों को सहन करने वाला, अक्रोधी, क्रोधियों को शान्त करने वाला, शन्तिमान, लड़ाई झगड़े के कारणों को नष्ट करने वाला हो।
झूठ न बोले, दूसरे के धन को न लेवे दूसरे की स्त्री को न चाहे, दूसरे की सम्पति की चाहना न करे, वैर न करें पाप को न करे, पाप में मन न लगाये अथवा पापी पुरूष पर भी पाप न करे, दसरों के दोषों को न कहे, दूसरों की गुप्त बातों को न जाने, अधार्मिक एवं राजा से द्ववेष करने वाले के साथ न बैठे, पागल पतित नीच कर्म करने वाले चाण्डाल आदि, भ्रूणघाती दुष्ट,के साथ न बैठे, दुष्टयान, पर न बैठे घुटने पलट कर न बैठे। बिना नीचे विछाये संकुचित स्थान पर उची नीची जगह पर न सोये। उचे नीचे प्रदेशों में या चोटियों पर न घूमे फिरे, वृक्ष पर न चढ़े पानी के तेज प्रवाह में स्नान न करे। नदी कि किनारे खड़े वृक्ष की छाया में नहीं बैठे, अग्नि की लपट के चारो न फिरे। जोर से न हंसे शब्द के साथ अधोवायु, आपान वायु न छोड़े। मुख को बिना ढपे जम्हाई छींक अथवा हंसी न करे। नाकन को न कुरेदे। दांनों को न किटकिटाये। नखों को न रगड़े अस्थियों को न बजाये, भूमि न कुरेदे, भूमि पर न लिखे, तिनके न तोड़े, मिटटी के ढेलों को न फोड़े, अंगों को व्यर्थ में टेड़ा मेड़ा न करे, न हिलाये, ज्येति, सूर्य अग्नि, तीव्रग्नि, अपवित्र चिता आदि निन्दित वस्तुआंें को न देखे। शव देखकर हुकार न छोड़े, चेत्य (गांव के देवता) गृह, आगन, चौराहा, वाग शमसान, में न रहे। आकेला एकान्त गृह में शून्य घर में या जंगल में प्रवेश न करे। पाप वृत्ति वाले स्त्री, मित्र अथवा नौकर का साथ न दे। अपने से श्रेष्ठों के साथ विरोघ न करे, अपने से नीच हीन की सेवा न करे। कुटिल को चाहना न करे। अनार्य दुष्ट का आश्रय न ले, किसी के लिए भय उत्पन्न न करे, अतिसाहस अति सोना, बहुत जागना, बहुत स्नान, बहुत पीना, बहुत खाना नहीं करे। घटने उठाकर देर तक न बैठे। सांप, दाढ़ वाले सिंह आदि संीग वाले भैंस बैल आदि जन्तुओं के पास न जाये। सामने की वायु, धूप, ओस, तेज वायु, को छोड़ दे। झगड़ा आरम्भ न करे। बिना सावधानी के अग्नि की उपासना पूजा न करे, जूठे भोजन को पुनः आग पर गरम न करे। थकान मिटे बिना, मुख और सिर को जल से गीना किये बिना वा नंगा होकर स्नान न करे। नहाने की धोती से सिर का स्पर्श न करे, बालों के अग्रभागों को ताड़न न करे स्नान करके बिन जिन कपड़ों से स्नान किया है उन्हीं को निचोड़कर धारण न करे। रत्न मणि आदि, पूज्य भगवान आदि का नाम मंगल कल्याणकारी वस्तुओं से वाम पार्श्व से न जाये। अपूज्य अमंगल, बस्तुओं के दक्षिण पार्श्व से न जाये।
इन अवस्थाओं में भोजन न करे- रत्न को हाथ में लिये बिना, स्नान किये बिना, बस्त्र पहिने बिना, गायत्री जाप किये बिना, हवन किये बिना, देवताओं के लिए दिये बिना, पिता माता को खिलाये बिना, आचार्य एवं बड़े पुरूषों को, अतिथियों को, आश्रितों को खिलाये बिना, अशुभ गन्धवाला पुष्पमाला धारण किये बिना, हाथ पांव मुख धोये बिना, मलिन मुख से , उत्तर दिशा की ओर मुख करके, अन्य मन से, बिना भक्ति के दिया, ठीक प्रकार से या पवित्रता से न दिया, भूखे के हाथ से परसा, बिना पात्रों के मैले पात्रों में, मैले या अनुचित स्थान पर कुसमय में, संकुचित स्थान में, अग्नि को दिये बिना, निन्दा करते हुए, निन्दित और प्रतिकूल अन्न को अपने मन के विरूद्ध मनुष्यों के पास में भोजन नहीं करना चाहिए। जिसे एक रात बीत गयी है ऐसे वासी भोजन को नहीं खाना चाहिए। मांस, हरड़ सूखे हुए शाक, फल इनको वासी अर्थात एक रात बीतने पर भी खा सकते हैं। सम्पूर्ण न खावे, पात्र में थोड़ा छोड़ देना चाहिए। परन्तु दही, शहद, लवण, सत्तू, और घी इनको सम्पूर्ण खा लेना चाहिए, पवित्र होने से इन को झूठा न छोड़े। रात में दही नहीं खाये, अकेले सतुओं न खाये अर्थात केवल सत्तू न खाये। रात में सत्तू न खाये, भोजन खाकर सत्तू न खाये, पानी मे भीगे हु सत्तू या जौ का सत्तू बनाकर नहीं खाना चाहिए। दातों से काटकर न खाये।
बिना झुके छींक न ले, न खाये, न सोये, मलमूत्र आदि वेग उपस्थित होने पर दूसरा काम न करे, पहला वेग का निराकरण करे। वायु, अग्नि, जल चन्द्रमा, सूर्य ब्राहम्मण गुरू पिता माता इनकी और मुख करके न थूके, न आपान वायु और मल, मूत्र का त्याग न करे। रास्ते में, मनुष्यों के बैठने के स्थान में, भोजन के समय मूत्र त्याग न करे। जप हवन, पठन बलि, पवित्र क्रियाओं के स्थान पर नाक का मल नहीं फेके।
स्त्री का तिरस्कार न करे। स्त्री का अधिक विश्वास न करे। स्त्री को गुप्त बात न कहे। स्त्री को अधिकारी न करे। अधिकार न देवे, रजस्वला, रोगिणी, अपवित्र, चाण्डाल आदि, कुष्ट आदि निन्दित रोग से पीड़ित,इच्छित रूप आचार, उपचार से रहित, अचतुर, जो स्वयं नहीं जानती हो, दूसरे पुरूष को चाहने वाली, परस्त्री असमानजातीय, कामनारहित इन स्त्रियों के साथ वा योनि को छोड़कर अनयत्र गुदा व मुख में मैथुन नहीं करना चाहिए। मंदिर, चौराहा, आंगन उपवन, बाग, शमसान, वध्यभूमि में पानी, औषधि, ब्राहम्ण गुरू, माता पिता और मंदिर के पास प्रातः सायं दोनों संध्याकालों में अति अधिक मात्रा में निषिद्ध तिथियों में (पूर्णिमा अष्टमी, चतुर्दशी, संक्राति श्राद्ध दिनांें में, अमावस्या, में प्रतिपदा में) अपवित्र, अवस्था में बाजीकरण औषध खाये बिना, मन में मैथुनेच्छा किये बिना, शिशन में उत्तेजना हुए बिना, खाये बिना, खाली पेट, पेट भर के और विषयम स्थान पर स्थित होकर मूत्र वेग से पीड़ित खुले अनावृत स्थान में स्त्री के साथ मैथुन न करे।
गुरूजनों की निन्दा न करे। अपवित्र अवस्था में अभिचार हिंसा का प्रयोग श्येनादि उपचार कर्म दैत्य पूजा, एवं देवता अध्ययन पठन आदि नहीं करे।
निम्न अवस्थाओं में अध्ययन पठन नहीं करना चाहिए ऋतु के बिना विजली चमकने पर, दिशाओं के जलने पर, ग्राम नगर आदि में आग लगने पर भूकम्प आने पर, विवाह आदि बड़े उत्सवों में विजयादशमी, दीपमालिका होली आदि में उल्कापात होने पर, चन्द्र्रग्रहण या सूर्य ग्रहण होने पर, कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी, आमावस्या और प्रतिपदा को जिन तिथियों में चन्द्रमा नहीं दीखता संध्या काल में गुरू के मुख से बिना पढ़े अक्षर को छोड़ते हुए, खाते हुए, अधिक मात्रा में रूक्ष स्वर से, ग्वर के बिना, पदों की व्यवस्था के बिना, विराम आदि चिन्हों का ध्यान न रखकर, रूक रूक कर, अति निर्बल, बहुत जोर से बहुत धीमी आवाज से भी नहीं पढ़ना चाहिए।
समय को न खोये नियम का उल्ंघन न करे। रात्रि में न घूमे जंगल अदि में वीयाबान स्थान में न घूमे। सन्ध्या समयों में भोजन, अध्ययन, मैथुन, नींद नहीं करनी चाहिए। बालक, बृद्ध, लालची, मूर्ख कुष्ट रोगी, नपुंसक, अनुत्साही, अल्प सत्व के साथ मित्रता न करे। मद्य शराब, जुआ, वेश्या इनमें मन नहीं लगाये। गुप्त रहस्य को न कहे। किसी का भी अपमान न करे। अहंकार या घण्मड न करे। कर्यों मे मूढ़ नहे। गुणों में दोषों को न देखे। निन्दक चुगलखोर, न बने। ब्राहम्णों की निन्दा न करे। गाय के प्रति दण्ड न उठावे। जो अपने अनुकूल ही उनकी निन्दा न करे। गुरू आचार्य, सभा, वयोवृद्ध, जन समूह, समाज और राजा की निन्दा न करे। भाई बन्धु आदि अनुरक्त, स्नेही, मित्र आदि आपत्ति में सहायक इनको कभी बाहर न निकाले, कष्ट न दे।
बहुत उतावला, जल्दबाज न हो, बहुत उच्छश्रृखल उद्दत न बने। नौकरों का पोषण अवश्य करे। अपने मनुष्यों में, घर के आदमियों में अविश्वास न करे। अकेला सुख का अनुभव न करे। अकेला मधरु पदार्थ न खाये स्वाभाविक व्यवहार, आचार, उपचार में दुःखी व्यक्तियों की भांति न रहे, सम्य बनकर रहे। सब जगह सब का विश्वास न करे। सब स्थानों पर सब का अविश्वास भी न करे। संदेह भी न करे। सम समय सोचना विचारता भी न रहे। काम के समय का उलंघन न करे। अज्ञात स्थान आदि पर न बैठे न जाये। इन्द्रियों के वश में न हो चंचल मन को इधर उधर न घुमाये। बुद्धि और ज्ञानेन्द्रियों का अतियोग न करे। उन पर अधिक बोझ न डाले, अधिक विषय सेवन न करे। दीर्घ सूत्री अर्थात विलम्ब से काम करने वाला न बने। जितना क्रोध आये उतना उग्र कर्म न करे। और जितना खुशी हो उतनी अधिक खुशी न मनाये। शोक चिन्ता के वश में न हो। कार्य में सफलता मिलने पर बहुत प्रसन्न न हो और कार्य में असफलता मिलने पर दीन उदास न हो।बार बार प्रकृति अर्थात जन्म मरण के स्वभाव को ध्यान में न रखे। शुभ कारण से कार्य का आरम्भ करे। इतना कर लिया यह समझकर न बैठ जाये। निन्दा का स्मरण न करे।
अपवित्र अवस्था में उत्तम गौ का घी, अक्षत, तिल, कुशा और सरसो द्वारा अग्नि में वेदमंत्रों से हवन न करे और प्रार्थना करे कि अग्नि मेरे शरीर से बाहर न जाय। वायु मेरे अन्दर प्राणों को धारण करे। विष्णु मेरे अन्दर बल का संचार करें। इन्द्र मुझा में बल बढ़ावें। कल्याणकारी जल मुझा में प्रविष्ट हो, ‘आपो हिष्ठा मयो भुवस्ता न ऊर्जे दधातन0’’ इस मंत्र से जल का स्पर्श स्नान आचमन करना चाहिए। दोनों समय भोजन करने के उपरान्त ओष्ठ और पांव को धोकर शुष्क कर लेना चाहिए, शिर और आंख कान, नाक इन्द्रियों को जल से स्पर्श करे। फिर अपने हृदय, शिर को जल से स्पर्श करे। ब्रहम्चर्य (काय मन और वाणि ने मैथुन को छोड़ना ब्रम्चर्याश्रम में गृहवस्थाश्रम में भी अपनी पत्नी में ऋतुकाल को छोड़कर) तथा अन्यों को ज्ञान-दान, मैत्री सब प्राणियों में आत्मवत प्रवृत्ति सब प्राणियों में दया भाव हर्ष प्रसन्नता सब प्राणियों में उपेक्षा अर्थात अप्रतिग्रह बुद्धि प्रशम अर्थात शान्त इन्द्रिय एवं चित्तवाला बने।
पंचेन्द्रिय और इनके पांच प्रकार, मन एवं चार कारण( समयोग मिथ्यायोग, हीन योग और अति योग) और सम्पूर्ण सद्वृत्त को इन्द्रियोग अध्याय में कह दिया जो मनुष्य कहे हुए स्वस्थवृत्त का रूप से पालन करता है वह सौ वर्ष तक नीरोग रहता है और आयु का भंग नहीं होता, वह सौ वर्ष तक जीता है। साधुओं से पूजित होकर मनुष्य लोक को अपने यश से भर देता है, यश्स्वी बनता है। धर्म और अर्थ को प्राप्त करता है। सब प्राणियों के प्रति बन्धुभाव उत्पन्न कर लेता है। पुण्य कर्मों वाला मनुष्य अति उत्कृष्ट लोकों को प्राप्त करता है। इसलिए सब पुरूषों को चाहिए कि सदा इस सदवृत्त का पालन करे। इस सदवृत्त के अतिरिक्त और जो कुछ उत्तम कर्म हो जो कि यहा पर नहीं भी कहे हैं उनको भी स्वीकार करके पालन करना चाहिए ऐसा भगवान आत्रेय का अभिप्राय है।
नवमों अध्यायः
अब चिकित्सा के क्षुद्र चार चरण नामक अध्याय का व्याख्यान करते हैं जैसा भगवान आत्रेय ने कहा था।
वैद्य औषध, परिचारक और रोगी ये चार पाद अर्थात चिकित्सा के चार अंग हैं। ये चारो ही विकास अर्थात रोगों की शान्ति में गुणवान कारण है। शरीर के धातु वात, पित्त और कफ की विषमता का नाम ही विकार अर्थाता रोग है और धातुओं का साम्य अर्थात अनुकूलता रहने का नाम प्रकृति है। आरोग्यता ही सुख है, रोग का होना दुःख है। वैद्यक शास्त्र में सुख-आरोग्यता है, और दुःख रोग है।
चिकित्सा का लक्षण-
धातुओं के विषम होने पर विषक रोगी औषध और परिचारक ये चारो मिलकर धातुओं को साम्य अर्थात अनुकूल करने के लिए उसी की चिकित्सा कहते हैं।
वैद्य के गुण- सद्गुरू के उपदेश में पूर्ण रूप से शास्त्र का ठीक ठीक ज्ञान चिकित्सा कर्म का बहुत बार दर्शन चिकित्सा कार्य में कुशलता, चिकित्सा कर्म की सिद्धहस्ता, पवित्रता स्वच्छता ये वैद्य के गुण हैं।
द्रव्य के गुण- द्रव्य की प्रचुरता रोगियों को दिये जाने वाले द्रव्य को रोग को दूर करने में सामर्थ्य और जिसके अनेक प्रकार के कल्प, (स्वरस, कल्क, चूर्ण, कषाय आदि) बनाये जा सके। संपत अर्थात रस, वीर्य प्रभाव गुण सम्पूर्ण हो ठीक ठीक ऋतु में एकत्र की गयी हो, ये चार गुण औष में होने चाहिए।
परिचारक के गुण-
सेवा कर्म को जानने वाला, कर्म कुशल, रोगी में प्रीति रखने वाला शौच अर्थात शुद्धि स्वच्छता ये चार गुण परिचारक के हैं।
रोगी के गुण- स्मरण शक्ति, वैद्य के आदेश के अनुसार करने वाला, डरपोक न हो, रोग या चिकित्सा कर्म से न घबराने वाला, अपनी शिकायतों को भली प्रकार बता सके ये चार गुण रोगी के हैं।
सोलह गुण युक्त चारो पाद मिलकर ही चिकित्सा में कारण है इन सब में प्रधान कारण ‘भिषक’ अर्थात वैद्य ही है। क्यांेकि वही विशेष रूप से जानने वाला, परिचारक आदि को आदेश देने वाला, दवाइयों का प्रयोग करने वाला होता है। तीनों पाद वैद्य के अधीन है और वैद्य स्वतंत्रत है इसलिए प्रधान है। खाना पकाने में जिस प्रकार पाचक कारण है, और पात्र ईधन और आग ये उसके अधीन रहते हैं। और जिस प्रकार विजेता की विजय में भूमि स्थान सेना प्रहरण शस्त्र आदि कारण निमित्त बनते हैं उसी प्रकार सिद्धि अर्थात चिकित्सा की सफलता में रोगी, औषध और परिचारक ये तीन कारण निमित्त होते हैं चिकित्सा में मुख्य कारण वैद्य ही होता है।
जिस प्रकार कुम्हार के बिना मिटटी, दण्ड, चाक सूत्र आदि मिल भी घड़े को नहीं बना सकते उसी प्रकार वैद्य के बिना रोगी, द्रव्य और परिचारक मिलकर भी चिकित्सा कार्य में सफलता नहीं प्राप्त कर सकते। रोगी परिचारक और द्रव्य इन तीनों के होने पर भी अतिशय भयानक रोग गर्न्धव पुर की भांति नष्ट हो जाते हैं। और दूसरे साधारण रोग भी थोड़ी चिकित्सा से भी अच्छे हो सकते हैं। वै जो बढ़ते हैं इन दोनों में ज्ञानवान और अज्ञानी वैद्य ही कारण होता है। गन्धर्व पुर जादूगर का बनाया अथवा आकाश का महल।
मूढ़ वैद्य इलाज करे, इससे अच्छा अपनी हत्या कर लेना है। अन्धा करके डरता हुआ जिस प्रकार हाथ से टटोल कर चढ़ता है, वायु के वश में पड़ी हुई नाव जिस प्रकार कहीं की कहीं बह जाती है, उसी प्रकार मूढ़ वैद्य भी चिकित्सा कर्म में प्रवृत्त होता है। नियत आयु वाले रोगियों के स्वतः अच्छा हो जाने से अपने को वैद्य मानने वाला मनुष्य जिनकी आयु अभी शेष है, ऐसे सैकड़ों रोगियों को अपनी चिकित्सा से बिना समय के ही शीघ्र मार देता है। इसलिए शास्त्र में तत्वार्थ के ज्ञान में क्रिया में कर्म और कुशलता में इन चार गुणों से युक्त वैद्य ही ‘प्राणाभिसर’ अर्थात रोगों के जाते प्राणों को भी लौटा लाने वाला कहलाता है।
जिस वैद्य को रोगोत्पत्ति के कारण, लक्षण, प्रशमन, रोगो के शान्ति और पुनः आक्रमण न होना इन चार बातों का ज्ञान है वही राजवैद्य होने योग्य है।
शस्त्र शास्त्र और पानी ये तीनों गुण दोषों को उत्पन्न करने में पात्र की अपेक्षा करते हैं। जैसे निर्मल पानी मैले पात्र में रखने से मैला हो जाता है और स्वच्छ पात्र में साफ दीखता है। तलवार से जहां दुष्ट चोर आदि का वध हो सकता है, वहां सज्जन का भी गला काटा जा सकता है। शास्त्र द्वारा जहां रोगी को बचाया जा सकता है। वहां मूढ़ वैद्य मार भी सकता है। इसलिए चिकित्सा के लिए वैद्य को अपनी बुद्धि को सदा स्वच्छ रखना चाहिए।
आयुर्वेद विद्या शास्त्रार्थ मूलक उहापोह (विज्ञान) बहुत शास्त्र के ज्ञान के तत्परता, लग्न, चिकित्साकुशलता जिस वैद्य में ये उपरोक्त छः गुण हैं उसके लिए कोई भी व्याधि असाध्य नहीं है। आयुर्वेद विद्या, विशुद्धि बुद्धि दृष्ट चिकित्सा, चिकित्सा कार्य में अनेक रोगियों को आरोग्य युक्त करने में सफलता, सद्गुरू का आश्रय एक एक भी गुण वैद्य पद प्राप्त करने में समर्थ है। परन्तु जिस पुरूष में उक्त आदि सब गुण होते हैं वही सच्चे अर्थों में वैद्य कहला सकता है। वही प्राणियों के लिए सुख देने वाला होता है।
आयुर्वेद शास्त्र तो प्रकाश करने के लिए ज्योति है और अपनी बुद्धि आंख है। इन दोनों को मिलाकर ठीक तरह से प्रयोग करके चिकित्सक भूल नहीं करता। चिकित्सा के तीन चरण रोगी, परिचारक और द्रव्य वैद्य पर ही आधारित है। इसलिए अपने गुणों को विशेष रूप से प्राप्त करने में वैद्य को प्रयत्नशील रहना चाहिए। वैद्य का व्यवहार चार प्रकार का है। रोग से पीड़ित पुरूष में मित्रता और उन पर दया का भाव, साध्य रोगी में स्नेह भाव, मरसन्न रोगी में उपेक्षा बुद्धि रखना।
चिकित्सा के चार चरण प्रत्येक चरण के चार-चार गुण सब चरणों में प्रधान भिषक है क्यों प्रधान है। वैद्य के गुण, वैद्यों की चार प्रकार की बुद्धि और ब्राम्ही बुद्धि यह सब इस अध्याय में कह दिया है।
दशमों अध्यायः
इस अनन्तर ‘महाचतुष्पाद’ नामक अध्याय का व्याखान करेगें जैसा भगवान आत्रेय ने कहा था। चार चरण और सोलह कलायुक्त चिकित्सा होती है ऐसा वैद्य कहते हैं पूर्व के अध्याय में जो सोलह गुणों से युक्त चिकित्सा का उपदेश किया है उसी चिकित्सा को युक्ति चिकित्सा का उपदेश किया है उसी चिकित्सा को युक्ति पूर्वक प्रयोग करने से आरोग्यता मिलती है। ऐसा पुनर्वसु आत्रेय ने कहा है।
मैत्रेय के विचार में यह ठीक नहीं, क्योंकि कुछ रोगी जिन को सब प्रकार से साधन प्राप्त है। जिनके सेवक भी हैं, जो संयमी जितेन्द्रिय भी है, और चतुर वैद्य उनकी चिकित्सा करते हैं वे अच्छे (स्वस्थ) होते देखे जाते हैं। इस के सिवाय उपरोक्त सब कुछ होते हएु भी कुछ रोगी मरते हुए भी देखे जाते हैं। इसलिए कहते हैं कि सोलह गुणों से युक्त चिकित्सा कुछ फलदायक नहीं। जिस प्रकार एक बड़े भारी गाढ़े या तालाब में थोड़ा सा पानी डालने पर कुछ लाभ नहीं होता और जिस प्रकार बहती हुई नदी में फेंगी हुई धूलि की मुटठी निर्रथक होती है वह पानी में बह जाती है और जिस प्रकार रेत के बहुत बड़े ढेर में डाली हुई रेत की एक मुटठी कुछ लाभ नहीं कुछ रोगी साधनों के बिना ही सेवकों रहित, अजितेन्द्रिय अपथ्यसेवी, और मूढ़ वैद्यों से चिकित्सा कराने पर भी स्वस्थ होते हुए देखे जाते हैं। एवं कुछ (इसं उपरोक्त अवस्था में) मरते हुए भी देखे जाते हैं। चिकित्सा करने पर आरोग्य युक्त स्वस्थ हो जाते हैं। बहुत से चिकित्सा करने पर भी मर जाते हैं। बहुत चिकित्सा न करने पर भी स्वस्थ हो जाते हैं और न करने पर भी मर जाते हैं अतः सन्देह होता है कि चिकित्सा करना और न करना दोनों बराबर है।
आत्रेय भगवान इसका उत्तर देते हैं कि मैत्रेय तुम्हारा ऐसा विचार करना ठीक नहीं है। क्यांेकि रोगी सोलह गुणों से युक्त चिकित्सा करने पर भी स्वस्थ नहीं होते, मर जाते हैं। यह कथन ठीक नहीं है। क्योंकि चिकित्सा से अच्छे होने वाले रोगों में चिकित्सा निष्फल नहीं होती, और जो रोगी औषध चिकित्सा के बिना भी स्वस्थ हो जाते हैं उनमें चिकित्सा के पूर्ण कारणों के होने की आवश्यकता भी नहीं होती। जैसे गिरे हुए मनुष्य को जो कि अपने आप उठने में समर्थ है। उठाने के लिए दूसरा पुरूष सहायता देता है। तब वह जल्दी बिना कष्ट के ही खड़ा हो जाता है। इस प्रकार सम्पूर्ण चिकित्सा प्राप्त होने से रोगी स्वस्थ हो जाता है। जो रोगी सम्पूर्ण चिकित्सा के मिलने पर भी मर जाते हैं वे सब रोगी भी सोलह गुण युक्त चिकित्सा से स्वस्थ नहीं हो सकते है। क्यांेकि सब रोग उपाय से साध्य नहीं है। जो रोग उपाय से वाद भी अच्छे नहीं होते। इसी प्रकार जो रोगी असाध्य है उनकी सारा औषध समुदाय भी ठीक नहीं कर सकता। ज्ञानवान बैद्य भी मरणासन्न रोगी को स्वस्थ करने में समर्थ नहीं होता। जो बैद्य साध्य असाध्य का विचार करके चिकित्सा प्रारम्भ करते हैं वे कुशल चिकित्सा कार्य में सफल, यश्वशी होते हैं। जिस प्रकार कि प्रयोग विधि को जानने वाला अभ्यासी, धनुर्धारी धनुष को लेकर बहुत दूर के नहीं, प्रत्युत समीपवर्ती स्थल लक्ष्य पर बाण फेकता हुआ नहीं चूकता लक्ष्य बेध कर ही लेता है। इसी प्रकार वैद्य अपने गुणों में युक्त उपकारवान, साध्नावान, साध्य असाध्य का विचार करके काम आरम्भ करके रोगी के साथ रोग की स्वस्थ कर देता है। इसमें भूल नहीं करता इस लिए कहते हैं कि चिकित्सा करना और न करना दोनों समान नही है।
और यह हमारा प्रत्यक्ष भी है कि रोगी की हम रोगों की प्रकृति से विरीत गुण वाली औषध से चिकित्सा करते हैं। क्षीण धातु वाले व्यक्ति की पौष्टिक औषधियों से चिकित्सा करते हैं। कृश को मोटा बनाते हैं स्थूल चर्बी वाले पुरूष को पतला करते है। गरमी से पीड़ित व्यक्ति की शीतल चिकित्सा करते हैं शीत से पीड़ित व्यक्ति की उष्ण पदार्थों से चिकित्सा करते हैं कम हु धातुओं को पूर्ण करते हैं, परिमाण से अधिक बढ़े हुए धातुओं को कम करते हैं। रोगों की कारण से विपरीत चिकित्सा करते हुए दोषों को प्रकृति में भली प्रकार से स्थित करते हैं। रोगी पुरूषों के लिए ऐसा करते हुए ये भैषय समुदाय अर्थात सोलह गुणयुक्त चिकित्सा व्याधिनाशक और सुखकारी होती है।
रोग के साध्य और असाध्य रूप को एवं साध्य असाध्य के विषय में जानकर विचार पूर्वक समय पर चिकित्सा कार्य का आरम्भ करता है वह उस कार्य को अवश्य पूर्ण करता है और जो चिकित्साक असाध्य व्याधि को चिकित्सा करता है वह धन, विद्या और यश की हानि उठाता है। उसकी निन्दा होती है औ जो उस से चिकित्सा नहीं करवाते उसका धन्धा नहीं चलता।
साध्य व्याधियां दो प्रकार की होती है एक सुख साध्य -सरलता से अच्छी होने वाली, ओर कष्ट साध्य- कठिनाई से अच्छी होने वाली। असाध्य व्याधियां भी दो प्रकार की होती हैं। एक साध्य जो कि चिकित्सा से कुछ समय के लिए शान्त की जा सकती है और चिकित्सा के छोड़ने पर फिर खड़ी हो जाती है। दूसरी सर्वथा असाध्य जो कभी अच्छी नहीं होती। साध्य व्याधियों के पुनः अल्प साध्य, मध्य साध्य, और उत्कृष्ठ साध्य और जो निश्चित रूप से असाध्य है उनका कोई नियत भेद नहीं है। याप्य असाध्य रोगों के तीन भेद हैं यथा अल्प याप्य मध्यम याप्य, और उत्कृष्ट याप्य।
सुख साध्य व्याधि के लक्षण-
रोगोत्पत्ति के कारण थोड़े हों बहुत अधिक या तीव्र कारण न हो अर्थात रोग के प्राथमिक लक्षण भी हल्के हो, और रूप अर्थात स्पष्ट लक्षण रोग के थोड़े और हल्के हों। दाूष वातादि कारण के समान न हो, पित्त के कारण रक्त कुपित न हो, रोगोत्पादक दोष वात आदि रोगी की प्रकृति न हो, वात जन्य व्याधि में रोगी की प्रकृति वात न हो। हेमन्त में कफ संचय होता है, इस समय कफ का रोग न हो शरीर का अवयव या आनूप जल बहुल प्रदेश अर्थात कष्ट साध्य स्थान पर रोग न हुआ हो, अथवा जहां पर कठिनता से चिकित्सा की जाय ऐसे स्थान पर रोग न हुआ हो, दोष को गति एक मार्ग में हो, दो मार्ग में न हो, रोग नवीन हो, रोग के साथ कोई उपद्रव न हो, और चिकित्सा के चारो चरण प्राप्त हो, रोगोत्पत्ति में कारण एक दोष हो तथा शरीर सम्पूर्ण प्रकार की औषध का सहन कर सके तो ये सुख साध्य अर्थात सुगमता से अच्छे होने वाले रोग के लक्षण हैं।
कष्ट साध्य रोग के लक्षण-
रोग का कारण, रोग का पूर्व रूप और रोग का रूप, स्पष्ट चिन्ह, माध्यम बल, संख्या में मध्यम हो अर्थात जिस रोग की उत्पन्न करने वाले दोष प्रकोष्ठ के कारण न तो कम और न अधिक हो काल प्रकृति और दूष्य इनमें से काई एक रोगोत्पादक दोष के समान साधारण हो, अधिक उपद्रव से पीड़ित न हो, तो वह रोग कृच्छसाध्य है।
गभर्वती वृद्ध बालक इनकी सब व्याध्यिां कष्ट साध्य है, शस्त्र क्षार, और अग्नि इनसे चिकित्सा करते समय जो व्याधि उत्पन्न हो जाय, नवीन न हो पुराना हो, मर्म स्थान, सन्धि स्थान आदि में जो रोग हो, एक मार्गगामी हो, चिकित्सा के चारो अंग पूर्ण न हो दोष दो मार्गनुसारी हो, बहुत समय का न हो, और दो दोषों से उत्पन्न हुआ हो। वह रोग भी कष्ट साध्य है।
याप्य व्याधि का लक्षण-
असाध्य व्याधि, पथ्य आहार, विहार के पालन करने से आयु के शेष होने के कारण याप्य होती है। कुछ काल तक आराम मिलता है परन्तु थोड़े से भी करण से पुनः शीघ्र उत्पन्न हो जाती है इस प्रकार की व्यधि को याप्य कहते हैं।
असाध्य व्याधि का लक्षण-
मेद आधि गम्भीर धातु में स्थित, रस रक्तादि बहुत धातुओं में स्थित मर्म सन्धि में आश्रित हो लगातार रात दिन रहता हो 24 घण्टे 12 महीने बना रहे देर तक दो चार साल का हो गया हो, दो दोषों से उत्पन्न हो ऐसे रोग को याप्य और इस प्रकार तीनों दोषों से उत्पन्न रोग असाध्य समझने चाहिए। जो रोग चिकित्सा से बाहर चला गया हो, बहुत बढ़ गया हो सब मार्ग तीनों मार्गें में पंहुच गया हो, अत्यन्त पसन्नता, अति बैचैनी एवं मूर्च्छा को उत्पन्न करे। जिस रोग से इन्द्रिय आंख का देखना, या कान का सुनना आदि नष्ट हो जाये। निर्बल पुरूष में जो रोग बहुत बढ़ा हुआ हो, जिस रोग के लक्षण निश्चित मृत्यु को बताने वाले स्पस्ट हो वह रोग असाध्य है ऐसा रोगी भी असाध्य है।
वैद्य को चाहिए कि चिकित्सा करने से पूर्व रोगी के उनके लक्षणों से परीक्षा, जांच कर ले कि वह साध्य है या असाध्य है। पीछे साध्य रोगों कार्य आरम्भ करना चाहिए असाध्यों में हाथ न लगावें। जौ वैद्य साध्य और आसाध्य के भेदों को भली प्रकार जानता है वह ज्ञानी बुद्धिमान वैद्य, मौत्रय के सामन लोगों की मिथ्या बुद्धि को नहीं बढ़ाता है।
इस महाचतुष्पाद नाक अध्याय में औषध चतुष्पाद गुण भेषज के आश्रित प्रभाव आत्रेय एवं मैत्रेय की दो प्रकार की बुद्धि चार प्रकार के भेद से रोग एवं उनके लक्षण कह दिये है और उन कारणों का भी वर्णन कर दिया है जिनसे वैद्य यश्वस्वी होता हैै।
एकादशो अध्यायः
अब तिस्त्रैणीय नामक अध्याय का व्याखान करेगें जैसा भगवान आत्रेय ने कहा था।
इस जगत में जिस पुरूष का मन, ज्ञान पौरूष, और पराक्रम मानसिक बल नष्ट नहीं हुआ, जो इह लोक में और परलोक में हित चाहता है उस को तीन इच्छायें रखनी चाहिए। प्राण या जीवन की इच्छा धन की इच्छा, परलोक की इच्छा।।
इन तीन इच्छाओं में से प्राणैषणा को सब से प्रथम करे, क्योंकि प्राणों के छूट जाने पर सब कुछ छूट जाता है। प्राणषणा के स्वस्थ पुरूष को चाहिए कि स्वस्थ वृत्त का पालन करे, जिससे कि वह रोगी न हो और स्वस्थ वृत्त और रोग शान्ति के लिए वातें पूर्व कह दी गयी है आगे विस्तार में भी कहेगें। उनका ठीक-ठीक प्रकार से पालन करने से मनुष्य प्राणों की रक्षा कर के दीर्घायु प्राप्त करता है। इस प्रकार से प्रथमैषणा का उपदेश कर दिया।
अब दूसरी धनैषणा को भी करे। प्राणों से उत्तर कर धन ही आवश्यक होता है। क्योंकि इससे बढ़कर और कोई पाप संसार में नहीं है बिना साधनों के दीर्घ जीवन व्यतीत करना। इसलिए उपकरणों अर्थात धन कमाने के साधनों को प्राप्त करने का यत्न करना चाहिए। धन कमाने के साधनों का भी उपदेश करते है, जैसे खेती, पशुओं का पालन, वाणिज्य व्यापार, राजा की सेवा आदि। इनके सिवाय अन्य और भी जो जो कार्य सज्जन पुरूषों से अनिन्द्रित, जीविका को देने वाले हो, उन को करे इस प्रकार करने से दीर्घायु प्राप्त करता है और तिरस्काररहित जीवन व्यतीत करता है। इस प्रकार से दूसरी धनैषणा की भी व्याख्या कर दी।
अब तीसरी परलोकेषणा को भी प्राप्त करे। इस परालोकैषणा के विषय में सन्देह है कि वहां से मरने के पीछे फिर जन्म होगा वा नहीं। संशय क्यो है कहते हैं कुछ मनुष्य ऐसे हैं जो कि प्रत्यक्ष से जानने योग्य वस्तु को और परोक्ष को नहीं मानते। परोक्ष आंख से दिखाई नहीं देता, ये नास्तिक मत को स्वीकार करते है, पुर्नजन्म को नहीं मानते। श्रुति की भिन्नता के कारण पुनर्जन्म में संदेह है। कुछ मनुष्य जन्म का कारण माता-पिता को मानते हैं। और कोई स्वभाव को ही जन्म का कारण मानते हैं। तीसरे दूसरे को समस्त जगत का कारण मानते हैं। चौथे लोग दृढ़ इच्छा को ही जन्म का कारण मानते हैं अर्थात अपने आप बिना करण के ही जन्म हो गया है। इसलिए संन्देह होता है कि पुनर्जन्म है वा नहीं।
इस अवस्था में बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि नास्तिक बुद्धि अर्थात परलोक नहीं है इस विचार को संशय में छोड़ दे। क्योंकि प्रत्यक्ष ज्ञान बहुत थोड़ा है और अप्रत्यक्ष ज्ञान बहुत है जिसको आगम शास्त्र, अनुमान और युक्ति से जाना जाता है। जिन ज्ञानेन्द्रियों से प्रत्यक्ष ज्ञान किया जाता है वे इन्द्रिा स्वयं अप्रत्यक्ष है, आंख आंख को नहीं देख सकती, नाक नाक को नहीं सूंध सकती, कान कान को नहीं सुन सकते। और रूप आदि बहुत से समीप होने से (जैसे पल्कों में लगा हुआ काजल) अति विप्रकर्ष अर्थात बहुत दूर होने से ( जैसे बहुत दूर उड़ता हुआ पक्षी) बीच में व्यवधान आने से (जैसे दीवार के पीछे रक्खी हुई बस्तु) इन्द्रि के निर्बल होने से, तिरस्कृत होने से यथा- मध्यान्ह में सूर्य की किरणों द्वारा तिरस्कृत नक्षत्रादि, अतिसूक्ष्म होने से यथा-मध्यान्ह से सूर्य की किरणों द्वारा तिरस्कृत नक्षत्रादि अति सूक्ष्म होने से जैसे कृषि या द्रवणुकादि का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता। इसलिए जो चावक आदि नास्तिक का यह कहना है कि ‘प्रत्यक्ष’ इन्द्रियों से जिनका ज्ञान होता है वही है उसके अतिरिक्त और नहीं है वह अपरीक्षित अर्थात बिना सोचे विचारे कहा गया है।
नाना यादिजनों के बचन भी परलोक के न होने में प्रमाण नहीं है क्योंकि वे तक से विरूद्ध है।
जो लोग कहते हैं कि माता पिता की आत्मा पुत्र रूप से उत्पन्न होती है। इस अवस्था में आत्मा की गति दो प्रकार से हो सकती है। एक आत्मा सम्पूर्ण पुत्र रूप में आये, दूसरी अवस्था में आत्मा का कोई अवयव पुत्र रूप में आये। यदि सम्पूर्ण आत्मा पुत्र रूप में आता है तो माता या पिता किसी एक की मृत्यु हो जानी चाहिए, ओर दूसरी अवस्था में सूक्ष्म आत्मा का कोई अवयव हो ही नहीं सकता। परमाणुओं के संयोग से बनी बस्तु का भाग हो सकता है परमाणु का नहीं।
जिस प्रकार माता पिता की आत्मा उत्पत्ति का कारण नहीं बन सकती उसी प्रकार ये बुद्धि और मन में उत्पत्ति का हेतु नहीं बन सकते, क्योंकि मन और बुद्धि दोनों सूक्ष्म है। इसलिए इनका भी विभाग नहीं बन सकता। औरयदि सम्पूर्ण अवतरण मानो तो माता पिता में से एक मन और बुद्धि से रहित अर्थात ज्ञान, चिन्तन बीच से सूक्ष्म होना चाहिए। इसलिए यह भी ठीक नहीं। एक और भी दोष है। उनके मत में योनि चार प्रकार की नहीं होती। प्राणियों मी उत्पत्ति में छः धातु (पृथ्वी, अप, तेज वायु आकाश, एवं छठी चेतना) अपने लक्षणों से स्वभाव से ही कारण बनते हैं। इनके संयोग और वियोग में कर्म ही कारण है।
ईश्वर का ही बनाया जगत मानकर जो लोग आत्मा का अस्त्वि नहीं मानते उनका कथन भी ठीक नहीं है। क्योंकि अनादि धातु का दूसरे से बनाया जाना सम्भव नहीं है। यदि पूर्व आत्मा नहीं है तो दूसरा पुरूष भी किस उदाहरण को लेकर दूसरे को क्योंकि अचेतन बस्तु चेतन को उत्पन्न नहीं कर सकता। यदि परमात्मा केवल शरीर का बनाने वाला मानते हो तो तुम्हारे और हमारे सिद्धान्त में कोई भेद नहीं है। इसलिए आत्मा नित्य है वह समय समय पर स्थूल शरीर को छोड़कर परलोक में कर्मों का भोग करके भंग की समाप्ति पर और भोग्य कर्म फलों के योग के लिए पुनः उत्पन्न होता है।
दृढ़इच्छा भी जन्म का कारण नहीं है, क्योंकि यदृच्छाधारी के मत में न कोई प्रमाण है और न कोई परभ्क्ष्य अर्थात प्रमेय वेस्तु है। इसलिए माता, पिता, कन्या, बहिन, पत्नी गुरू, वृद्ध तपस्वी, इत्यादि परीक्षणीय वस्तु के आभाव में मनमाना आचार होना सम्भव है। और कर्म भी नहीं है, जिसका कि अच्छा या बुरा फल मिलेगा, इसलिए कर्म फल भी नहीं है। न कर्म का कोई कर्ता है जो कर्म करे। यह सब यदृच्छा से ही, बिना करण होता है, कारण के न होने से मनचाहा आचरण करने में कोई दोष नहीं होगा। इससे गुरू सिद्ध पुरूषों में पूज्यापूज्य भाव भी नहीं रहेगा। वह माता, कन्या आदि में दारवत् बुद्धि कर सकेगा। इसलिए जिसका आत्मा यदृच्छा से नष्ट हो जाता है ऐस नास्तिक का आत्मा नहीं रहता। अतः नास्तिक होना सब पातकों से बड़ा पातक है।
इसलिए बुद्धिमान को चाहिए कि उल्टे मार्ग में जाने वाली इस विपरीत बुद्धि को छोड़ दे और सज्जन पुरूषों की बुद्धि रूप दीपक से सब बस्तुओं को ठीक ठीक रूप में देखे।
संसार में जो कुछ दीख पड़ता है वह सब दो प्रकार का है, एक सत् और एक असत्। इसकी परीक्षा चार प्रकार से होती है।
1. आतोपदेश
2. प्रत्यक्ष
3. अनुमान
4. युक्ति
जो पुरूष तप और प्राण के बल से रजोगुण और तमोगुण से युक्त हो चुके हैं, केवल सत्व गुण ही जिन में रह गया है, उनका ज्ञान भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों में विशुद्ध और कभी भी वाधित नही होता। ऐसे पुरूष आप्त शिष्ट और विशुद्ध होते है। इनके वाक्य बिना संदेह के होते हैं। ये पुरूष सदा सत्य ही कहेगें। जो पुरूष रजस और तमस से रहित है वे असत्य बोल कैसे सकते है।
प्रत्यक्ष लक्षण-
आत्मा इन्द्रिय, मन, और अर्थ पदार्थ इन चारो का एक साथ संयोग होने से जो ज्ञान उत्पन्न होता है उस को प्रत्यक्ष कहते हेै।
अनुमान-
प्रथम प्रत्यक्ष प्रमाण से देखकर तीन प्रकार से कार्य लिंगानुमान, कारण, लिगानुमान और कार्य-कारण लिंगानुमान होता है, भूत, भविष्यत् और वर्तमान इन तीनों समय में परोक्ष का अनुमान किया जाता है। जैसे कि छिपी अग्नि को धुंआं देखकर जानते हैं और गर्भ को देखकर मैथुन कर्म का ज्ञान कर लेते हैं। इसी प्रकार से अतीत काल का ज्ञान अनुमान से कर लेते हैं और जिस प्रकार बीज को देखकर अनागत फल अनुमान हो जाता है। जैसा बीज होता है वैसा ही फल लगता है। इसी प्रकार भविष्य काल का भी अनुमान से ज्ञान करते हैं।
युक्ति-
पानी कर्षण बीज और ऋतु इन चारों के संयोग से अन्न उत्पन्न होता है। उत्तम क्षेत्र में समय पर उत्तम बीज पानी से सींचकर बोने से अनाज होता है। इसलिए पृथ्वी, अप, तेज वायु और आकाश एवं चेतना इन छः के संयोग से गर्भ का होना सम्भव है यह युक्ति है। इसी प्रकार मध्य अरणी का अधः नीचे की लकड़ी मन्थन ओर मथनी चालाने वाला कर्ता, इन तीनों के संयोग से अग्नि उत्पन्न होना सम्भव है। इसी प्रकार तचुष्पाद युक्ति से युक्त सम्पत रोग को नाश करने वाली है। यदि चिकित्सा के चारो अंग ठीक तरह से प्रयुक्त किये जायें, तो रोग मिटना सम्मय है।
जो बुद्धि बहुत प्रकार के कारणों से उत्पन्न पदार्थों को ज्ञान के लिए देखती है। उस बुद्धि को युक्ति कहते हैं। यदि बुद्धि तीनों कालों के विषय को देखती है, इस युक्ति से त्रिवर्ग अर्थात धर्म, अर्थ और काम तीनों पुरूषार्थों सिद्ध होते हैं। यह चार प्रकार की परीक्षा है, इसमें भिन्न और परीक्षा नहीं है। इस चार प्रकार की परीक्षा से कुछ सत् असत् भाव आभाव जो कुछ गेय है यह सब जाना जाता है। सत असत की परीक्षा करके ही जाना गया है कि पुनर्जन्म होता है।
आस पुरूषों का आगम बेद है वेदों के सिवाय और भी कोई अन्य जो कि वेद के अर्थ के अनुकूल, परीक्षा से बनाया हुआ शिष्ट पुरूषों से अनुमत, जनसमाज के कल्याण के लिए प्रयत्न अन्य ज्योतिष, व्याकरण, आयुर्वेद स्मृति आदि है। वे भी असामागम अर्थात शब्द प्रमाण है। आसागम से भाी जाना जाता है। कि ज्ञान तप, यज्ञ, सत्य, अहिंसा, ब्रम्हचर्य आदि कर्म अभ्युदय और विशलेषण करने वाले हैं। मनोदोष, राजस, और तमस, जिन के शान्त नहीं हो गये इन रजोगुणी या तमोगुणी पुरूषों को अपुनर्भव नहीं कहा गया, अर्थात रजोगुणी या तमोगुणी पुरूषों का पुनर्जन्म होता है। ऐसा धर्म शास्त्रों में उपदेश किया गया है। धर्म शास्त्रों में सावधान, राग, मोह, द्वेष, भय, लोभ, मोह, मान से रहित, ब्रम्हचारी, आप्त विद्वान, कर्म योग को जानने वाले, जिनके मन, बुद्धि एवे प्रचार ठीक बने हुए हैं, ऐसे अति प्राचीन महिर्षियों ने दिव्य चक्षुओं से देखकर निश्चयपूर्वक पुनर्जन्म, का उपदेश किया है, इसलिए उनका निश्चय सत्य करके जाने।
प्रत्यक्ष से भी जाना जाता है कि पुनर्जन्म है। माता पिता से विभिन्न प्रकृति के पुत्र होते हें। एक ही माता पिता के दो पुत्रों मे ंसगे भाइयों में रंग, स्वर, आकृति, चेहरा, मन, ज्ञान, और भाग्य, प्रारब्ध भिन होते हैं। श्रेष्ठ और नीच कुल में जन्म होते हैं। किसी की दासता और किसी की ऐश्वर्य सम्पत्ति होती है। कोई सुख पूर्वक जिन्दगी वसर करता है, कोई दुःख से जीवन व्यतीत करता है आयु की विषमता, थोड़ा जीना या अधिक देर जीना, यहां किये कर्म का फल न मिलना, पढ़े सीखे बिना रोने, दुग्ध पान, हसने डरने आदि कार्यों में प्रवृत्ति का होना, शरीर पर राज्य चिन्ह या दरिद्रयसूचक चिन्हों का होना, एक सदृश काम करने पर भी फल में भिन्नता का रहना, कहीं पर बुद्धि का होना और पर बुद्धि का न होना, जाति, पूर्व जन्म वृतान्त का स्मरण करना, यहां मरने पर फिर यहां आना, एक समान एक दृष्टि से देखने पर प्रिय एवं रूप, राग, द्वेष बुद्धि का हनो ये सब बातें पुनर्जन्म को सिद्ध करती है।
उपरोक्त बातों को देखकर ही अनुमान भी किया जाता है कि अपना किया हुआ कर्म नहीं छोड़ा जा सकता, उसका विनाश, नहीं हो सकता, पूर्व जन्म में किया हुआ ‘भाग्य’ नाम आनुवांिशक अर्थात आत्मा के साथ परलोक में भी निश्चित रूप से बंधा हुआ है। उसकी का यह फल है जो कि माता पिता से पुत्र भिन्न प्रकृति के उत्पन्न होते हैं इत्यादि। यहां किये कर्म से दूसरा जन्म् होगा, बीज से फल का अनुमान होता है, कर्म से पुनर्जन्म का और पुनर्जन्म से कर्म का अनुमान होता है।
युक्ति भी है कि पृथ्वी, अप, तेज, वायु, आकाश और चेतना इन छः धातुओं के समुदाय से मिलने से गर्भ उत्पन्न होता है और कर्ता और करण के मिलने से क्रिया उत्पन्न होती है, कर्ता आत्मा, करण स्त्री पुरूष, उनके संयोग से गर्भाशय रूप क्षेत्र में जन्म होता है। किये हुए ही कर्म का फल होता है, न किये हुए कर्म का फल नहीं होता। जिस प्रकार बिना बीज के अंकुर उत्पन्न नहीं होता वैसे कर्म के अनुसार समान ही फल मिलता है यथा- एक जाति के बीज से दूसरी जाति का फल उत्पन्न नहीं होता।
इस प्रकार आसोपदेश, प्रत्यक्ष अनुमान और बुद्धि युक्ति चारो प्रमाणों द्वारा पुनर्जन्म के सिद्ध होने पर धर्म-साधन के मागों वित्त लगावे। यथा- सृष्टि माता, पिता, आचार्य की सेवा, अध्ययन, पठन पाठन में, ब्रम्यचर्य काय, मन, वाणी, से मैथुन त्याग, ब्रहम्यचर्य का पालन, विवाह कर्म में, सन्तानोत्पत्ति, आश्रित जन के पोषण में, अतिथि सत्कार में, यथा शक्ति दान देने में, दूसरे के धन को न चाहने में, द्वन्द्व सुख-दुःख में, दूसरे के गुणों में दोष न देखने में शरीर को बिना कष्ट पंहुचाये शरीर, वाणी और मन से कर्म करने में, देह परीक्षा में, इन्द्रिय परीक्षा, मन परीक्षा, विषय की परीक्षा, ज्ञान की परीक्षा, आत्मा की परीक्षा और मन की समाधि में न का लगाना ही धर्म मार्ग है। और भी दूसरक इसी प्रकार के कर्म, सज्जनों में अनिन्दत, पूजित, स्वर्ग सुखक को देने वाले, जीवन पालन करने वाले हो, उनको करने का उद्योग करे, ऐसा करने पर इहलोक में यश मिलता है और मरने पर स्वर्ग अर्थात पुनर्जन्म से सुख मिलेगा, इस प्रकार तीसरी परलोकोषणा भी कह दी।
तीन प्रकार के उपस्तम्भ अर्थात शरी कीधारण करने वाले तत्व हैं, तीन प्रकार के बल हैं, तीन कारण है। तीन प्रकार के रोग हैं, तीन रोगमार्ग है, तीन प्रकार के चिकित्सक हैं, तीन प्रकार के औषध है।
तीन उपस्तम्भ तत्व जो शरीर को धारण करते हैं, आहार, स्वप्न, और ब्रम्हचर्य है। ये तीनों की युक्ति पूर्वक प्रयुक्त करने पर शरीर दृझ़, मजबूत, बल, वर्ण पुष्टि से युक्त होता है। जब तक शरीर में धर्माधर्म आयु के बनाने में कारण रहते हैं। इन तीनों उपस्तम्भों का उचित मात्रा में सेवन करना ही आयु का कारण है। अहित वस्तुओं का सेवन न करना ही आयु में कारण है, उन अहित वस्तुओं को यहीं पर कहेगें।
तीन प्रकार का बल है- सहज, कालजन्य, और युक्तिजन्य, इन में उत्पत्ति के समय ही शरीर और मन को गर्भाशय में मिलता है जो बल उसे सहज या प्राकृतिक बल कहते हैं। कालजन्य ऋतुओं के विभागनुसार आहार-बिहार के द्वारा ओर बाल्य, यौवन और वृद्धवस्था में उत्तम बल। यौवनावस्था में बलाधिक्य रहता है। बलकारक आहार या चेष्टा बिहार से जो बल उत्तम किया जाता है वह युक्तिकृत है।
रोग आयतन अर्थात कारण तीन है, अर्थ, अर्थात इन्द्रियों के विषय कर्म और काल इन तीनों का अतियोग, आयोग ओर मिथ्यायोग ये तीन रोगी के आयतन है। बहुत चमकने वाले पदार्थ सूर्य आदि का देर तक देखना चक्षुइन्द्रिय का अतियोग है। सर्वथा न ही देखन अयोग है। बहुत क्लेशदायक पदार्थ का देखना बहुत दूर की वस्तु को देखना, रौद्र भयानक, डरावनी, अद्भुत अप्रिय, कोमल, और विकृत रूपी देखना, आंख का ‘मिथ्यायोग है। इसी प्रकार बादल की घरघराहट की अधिक सुनना, ढोल या नगाड़े की आवाज को बहुत सुनना तोप आदि के बहुत उंचे शब्द की अधिक सुनना, कान का अतियोग है। सर्वथा न सुनना अयोग है। कठोर पुत्र धन आदि इष्ट बस्तुओं के नाश को सुनना, इष्ट बस्तु के मरण को सुनना, दुर्वचन, तिरस्कार सुनना, भयोत्पादक भयानक शब्दों का सुनना, श्रोत्रेन्द्रिय का मिथ्यायोग है। मरिच आदि गन्ध सूघंना, उग्र, चमेली आदि गंध का अधिक सूंघना, मालकांगिनी आदि गन्ध का अधिक मात्रा में सूंघना नासा का अति योग है। सर्वथा न सूघना, नाक का अयोग है। सड़ी दुर्गन्ध युक्त गली की अपवित्र जहरीली वायु मुर्दे की गन्ध जैसी बस्तुओं को सूघना नाक का मिथ्या योग है। इसी प्रकर मधुर आदि रसों का अधिक मात्रा में उपयोग रसनेन्द्रिय का अतियोग है। सर्वथा रसों का न खाना अयोग है। आगे विभान स्थान में कहे हुए प्रकृति करण संयोग देश काल, उपयोग, संस्थपयोग और राशि इन आठ में से राशि को छोड़कर शेष सात के विरूद्ध आहार करने का नाम रसनेन्द्रिय का मिथ्यायोग है। बहुत ठण्डे बहुत गरम स्पर्श बहुत अधिक स्नान, बहुत मालिश, बहुत उबटन लगाना, त्वक इन्द्रिय का अतियोग है। इनके विल्कुल सेवन न करना अयोग है। उंचे नीचे स्थान का चोट घाव आदि और शव आदि अपवित्र वस्तुओं का स्पर्श करना मिथ्यायोग है।
इन पांच इन्द्रियों में से एक त्वचा इन्द्रिय शेष प्राण, रसना, चक्षु, और कर्म इन चार इन्द्रियों में और गुदा, लिंग, हाथ पैर और वाणी में भी व्यापक है और यह स्वक इन्द्रिय मन के साथ समवाय सम्बन्ध से संयुक्त है। इसलिए त्वक इन्द्रिय सब इन्द्रियों में फैली होने से और चित्त का इस स्वगिन्द्रिय के साथ समवाय सम्बन्ध होने से मन भी व्यापक हो जाता है। इसलिए सब इन्द्रियों में व्यापक स्पशेन्द्रिय के साथ समवाय सम्बन्ध से जुड़ा हुआ मन आत्मा के अभीप्सित विषय को ग्रहण करने के लिए स्पशेन्द्रिय द्वारा प्राप्त मार्ग से उस विषय को ग्रहण करने वाली इन्द्रिय तक पंहुच जाता है। इस से सब इन्द्रियों में व्यापक त्वक के स्पर्श से उत्पन्न जो अपने अपने विषय के ज्ञान विशेष उत्पन्न होते हैं। ये शरीर के अनुकूल न होने पर पांच प्रकार के होने पर भी तीन प्रकार होते हैं। यथा (1) असात्मयेन्द्रियासंयोग’ अर्थात इन्द्रियों का विषय के साथ अनुचित रूप में संयोग होना अतियोग अयोग और मिथ्यायोग इन तीन प्रकार का हो जाता है सात्म्य का अर्थ उपशय है, शरीर के अनुकूल पड़े यह सात्म्य है।
वाणी मन और शरीर इन की चेष्ठा का नाम कर्म है। इन में वाणी, मन और शरीर की अतिप्रवृत्ति का नाम अतियोग है। इनकी सर्वथा प्रवृत्ति न होना अयोग है। वाणी मल मूत्रादि के उपस्थिति वेगों को रोकना, अनुपस्थित वेगों को बलपूर्वक बाहर निकालना सम स्थान पर विषम टेढ़ा मेढ़ा गिरना, अनुचित रूप से चलना, उंचे स्थान से कूदना, अंगों को टेड़ा मेड़ा करना। अंगों को पीड़ित करना, खुजाना, दबाना आदि, अंगों पर दण्ड आदि से प्रहर करना, अंगो को मर्दन करना, श्वास घोटना, श्वास बन्द करना, संक्लेश व्रत, उपवास आदि, विषम नृत्य आदि कर्म भी शरीर के मिथ्यायोग हैं। निन्दा चुगली, मिथ्या बोलना, बिना समय के बात करना, झगड़ा करना, जी को दुखाने वाला अप्रिय, असम्बद्ध प्रतिकूल और कर्कश बोलना, वाणी का मिथ्यायोग है। भय शोक, चिन्ता, क्रोध, लोभ, मोह, अज्ञान, मान, अंहकार, ईर्ष्या मिथ्ययादर्शन, नास्तिक्य बुद्धि ये मन के मिथ्यायोग है।
संक्षेप में- वाणी मन और शरी के हो हितकारी और नहीं कहे हुए कर्म हैं जिनका अतियोग अयोग में समावेश नहीं होता वे सब मिथ्यायोग जानने चाहिए। वाणी मन और शरीर इनके अतियोग अयोग और मिथ्यायोग को प्रज्ञापराध कहते हैं।
हेमन्त और शिशिर शीतकाल, वसन्त और ग्रीष्म उष्ण काल, वर्षा और शरद और वर्षा काल। इस प्रकार से हेमन्त, शिशिर, बसन्त ग्रीष्म वर्षा और शरद इन छः ऋतुओं वाला संवत्सर रूप काल, शीत, उष्ण और वर्षा के रूप में तीन प्रकार का है। इन में अपने लक्षणों से अधिक हेमन्त आदि का होना काल का अतियोग है। शीतकाल में बहुत अधिक शीत, ग्रीष्म काल में बहुत अधिक गरमी वर्षा काल में बहुत अधिक बरसात का पड़ना ये काल के अतियोग हैं। और हेमन्त आदि काल में अपने लक्षणों से कम शीत आदि का होना अयोग है। हेमन्त आद काल में अपने लक्षणों का होना अर्थात शीत काल में वर्षा या गरमी पड़ना, गर्मियों में शीत या वर्षा होना, वर्षा काल में शीत या गरमी पड़ना, काल का मिथ्या योग है। काल का ही दूसरा नाम परिणाम है।
ये उपर कहे असात्म्येन्द्रियार्ध’ ‘प्रज्ञापरार्ध’ और परिणाम ये तीनों अतियोग अयोग मिथ्यायोग के द्वारा सब रोगों के कारण बनते हैं। इन्द्रियार्थ संयोग, बुद्धि संयोग, और काल संयोग ये तीनों स्वास्थ्य के कारण बनते हें। क्यांेकि सृष्टि के आरम्भ में जितने ही पदार्थ है, उनके दो ही स्वरूप है एक भाव दूसरा आभाव। अपने स्वरूप में रहने का नाम ‘भाव’ और अपने स्वरूप में मित्र दूसरे स्वरूप से रहना ‘आभाव’ है। ये दोनों (भाव और अभाव) काल, बुद्धि और इन्द्रियार्थ संयोग के समयोग, अतियोग, अयोग और मिथ्यायोग के बिना नहीं होते।
रोग तीन प्रकार के हैं, (1) निज जो शरीर अपने शरीर मेे उत्पन्न है(2) आगन्तुज (3) मानस। इनमें (1) निज जो शरीर के दोष वात, पित्त कफ के कारण उत्पन्न होने वाले हैं। (2) आगन्तुज भूत, विष, स्थावर, जंगम विष से जन्य, दुष्ट वायु से, आग से चोट आदि से उत्पन्न होने वाले (3) इष्ट वस्तु के न मिलने और अनिष्ट वस्तु के मिल जाने से मानस रोग उत्पन्न होते हैं।
बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि मानस व्याधि के रहते हुए भी क्रोध, काम, लोभ, मोह के विपरीत, उत्तम बुद्धि से हित और अहित कार्यों का विचार करते हुए धर्म, अर्थ और काम इनके अहितकारक कार्यों को छोड़ने में तत्पर एवं धर्म अर्थ और काम के लिए हितकारी कार्यों को सेवन करने में प्रयत्नवान रहना चाहिए। क्योंकि संसार में धर्म अर्थ और काम तीनों के बिना मनोजन्य सुख या दुःख कुछ भी नहीं होता। इसलिए इन के हितकारी कार्यों का ग्रहण और अहितकारी कार्यों का त्याग करने में प्रत्यनशील रहना चाहिए, इन के लिए विद्यावृद्ध पुरूषों का सेवन करना चाहिए। आत्मज्ञान, देश ज्ञान, काल-ज्ञान, बल-ज्ञान, और शक्ति ज्ञान के लिए उचित रीति से प्रयत्न करना चाहिए। और इस प्रसंग में एक श्लोक है धर्म, अर्थ, काम का सेवन करना, धर्म, अर्थ काम इन को उपदेश करने वाले विद्यावृद्ध पुरूष की सेवा करना, आत्मज्ञान, देश, काल बल आदि आ ज्ञान करना मानस रोगों की औषध है।
रोगों के तीन मार्ग है जैसे (1) शाखा, (2) मर्म, अस्थि-संघ्यिां (3) और कोष्ठ इनमें शाखा रक्त आदि छः धात और त्वचा ये साथ वाहय रोगमार्ग है, वस्ति (मूत्राशय) हृदय दिल और सिर, मस्तिष्क एक सौ सात मर्म और अस्थि (हडिडयां) संधियों के जोड तथा में बंधी हुई स्नायु और कण्डारायें ये मयम रोग मार्ग हैं। वह दूसरा मार्ग है। शरीर के बीच में, बड़ा भारी स्रोत, बड़े भारी गढे के तुल्य है, इस को आमाशय या पकाशय के नाम से कहते हैं, यह तीसरा आभयान्तर रोगमार्ग है।
इन में गण्ड (शोथ, गलगण्ड रोग नहीं) फुन्सी, अलजी, चर्म कील, अधिमांस मशक, कुष्ठ, व्यंग ओर अजयल्लिका, आदि रोग बहिमार्ग में होते हैं। विसर्प सूजन गुल्म अर्श विद्रधि आदि रोग शाखनुसारी अर्थात रक्तादि मार्गों के अनुसारी होते हैं। पक्षाघात, मन्यावह अस्तानक अर्दित शोथ, राजयक्षमा, अस्थि शूल सज्जिशूल, गुदभं्रश आदि हिक्का आदि एवं शिरो रोग, हृदय रोग तथा वस्ति रोग और अण्ड बृद्धि भी ये मध्यम मार्गानुसारी रोग है। ज्वर अतिसार, छर्दि हैजा कास, दवास, हिक्का अनाह, उदर प्लीहा, आदि रोग अन्तमार्ग से उत्पन्न होते हैं। वीसर्प सूजन गुल्म, अर्श और विद्रधि जो शास्त्रानुसारी रोग है। वे कोष्ठानुसारी होते है। (रक्तानुभाग रोग काष्ठाानुसारी नहीं होते और कोष्ठानुसारी रोग शास्त्रानुसारी रोग नहीं होते।
त्रिविधा भिषक इति-
विषक भी तीन प्रकार के होते हैं 1. उद्यचर, 2. सिद्धसाधित और 3. वैद्य गुणों से युक्त ये तीन प्रकर के चिकित्सक इस पृथ्वी पर मिलते हैं।
छद्यचर वैद्या का लक्षण- वैद्यों या औषधियों के वर्तन, पुस्त अर्थात मिटटी या लोहे के बने मनुष्य के ढांचे पुस्तकों पत्तों को देखने से जो मनुष्य भिषक शब्द प्राप्त करता है, वै वैद्यों के नकलची ढोंगी मूर्ख हैं। वे त्याज्य हैं।
सिद्धसाधत वैद्य- अन्य स्थान पर चिकित्सा कर्म में यश, ज्ञान और सफलता प्राप्त किये हुए वैद्यों के नाम से धोखा करके जो बैद्य बन जाते हैं, उनको सिद्धसाधित वैद्य समझना। इनको भी छोड़ देना चाहिए।
सद्वैद्य का लक्षण्- औषध का, प्रयोग और शास्त्र का ज्ञान लोक व्यवहार के जानने, प्रख्यात एवं रोगियों को सुखी करने वाले ‘प्राणभिसर’ कहते हें। इन्ही पुरूषों में वैद्य का लक्षण विद्यमान है। उन्हीं को वैद्य कहना चाहिए।
औषध तीन प्रकार का है- दैवव्यपाश्रय, युक्तिव्ययाश्रय और सत्वाजय इनमें दैव व्ययपाश्रय देव अर्थात ईश्वर पर आश्रित औषध, मन्त्र औषध, मणि मंगल, शुभ कर्म नियम, प्रायश्चित, उपवास, स्वस्तिपाठ, नमस्मार तीर्थाठन आदि है। युक्ति अर्थात योग पर आश्रित औषध आहार एवं औषध द्रव्यों-दोष नाशक पदार्थों की योजना। सत्वाजय-मन की अहितकारक विषयों को रोकना तीसरी प्रकार की औषध है।
शरीर के वात पित्त कफ, इन दोषों को कुपित होने पर शरीर को ही आश्रय करके तीन प्रकर की औषधियों का विशेष रूप से व्यवहार करते हैं। जैसे अन्तः परिमार्जन, वहिपरिमार्जन और शस्त्र-प्रणिधान। इनमें जो औषध या आहार शरीर के अन्दर घुकर उत्पन्न हुए रोगों को शान्त करता है वह ‘अन्तःपरिमार्जन है। और जो शरीर के बाहर ही त्वचा पर अभ्यंग, स्वेद, प्रलेप परिषेक उन्मर्दन आदि द्वारा रोगों को शान्त करता है उसे ‘वहिपरिमार्जन’ कहते हे। छेदन, भेदन दारण(चीरना) लेखन खुरचना, उत्पाठन (उखाड़ना) प्रच्छन शस्त्र आदि से फाड़ना सीवन, एव्रण (नाड़ी या गति व्रण को ढूढना) क्षार (द्रव्यों को भस्मकर शरण होने वाला सार भाग) जोक इनके उपयोग की शस्त्र प्राणिधान कहते हैं।
बुद्धिमान रोग के होने पर ‘बहिपरिमार्जन’ अथवा ‘अन्तःपरिमार्जन’ या शस्त्र क्रिया से शान्ति प्राप्त करता है। परन्तु बाल, अनभिज्ञ, पुरूष मोह वश अथवा प्रमाद से उत्पन्न होते हुए शत्रु को नहीं पहिचानता। रोग प्रथम सूक्ष्म रूप होता है, और पीछे बढ़ जाता है। बढ़ने पर इस रोग की जड़ जम जाती है। जड़ पकड़ लेने पर रोग मूढ़ व्यक्ति की आयु और बल दोनों का हर लेता है। जब तक मनुष्य रोग से पीड़ित नहीं होता, तब तक प्रतीकार का विचार नहीं करता है। सब पुत्रों स्त्रियों और जाति सम्बन्धियों को बुला कर कहते है कि मेरो सर्वस्व देकर भी किसी वैद्य को लाओ, इस प्रकार के रोगग्रस्त निर्बल क्षीणेन्द्रिय दीन, मरासन्न व्यक्ति को कौन वैद्य रक्षा कर सकता है। वह मूढ़ रक्षा करने को न पाकर प्राण त्याग देता है। जिस प्रकार पूंछ में रस्सी से बंधी गोह बलवान पुरूष के खीचने पर मर जाती है ऐसे ही वह भी मर जाता है। इसीलिए जो व्यक्ति सुख चाहे वह रोगों के उत्प्नन होने से पूर्व (संचय वस्था में रोगी की तरूणवस्था में ही दोषों का औषधियों से प्रतीकार करे।
त्रिस्त्रेषणीय अध्याय में बुद्धिमान ऋिषि कृष्णात्रेय ने तीन एषणायें उपस्तम्भ, बल, रोगों के कारण रोग मार्ग वैद्य, भैषज्य, औषध, इन आठाों के तीन-तीन भेद कर कल्पना सहित उपदेश किये हैं।
द्वादशो अध्यायः
इसके आगे वातकलाकलीय नामक अध्याय का व्याख्यान करेगें, जैसा भगवान आत्रेय ने कहा था-
वायु के अंशाश विकल्पना के सम्बन्ध में महर्षि लोग एकत्र होकर परम एक दूसरे मत जानने के लिए पूछने लगे कि वायु के क्या गुण हैं वायु को प्रकुपित करने वाले कौन से कारण है? कुपित वायु को शान्त करने वाली वस्तुएं कौन सी है? और किस प्रकार से अमूर्त अदृश्य एवं निरन्तर गतिशील चंचल स्वभाव वायु को विना प्राप्त किये कुपित करने वाली वस्तुएं इसे कैसे कुपित करती हैं, अथवा शान्त करने वाली वस्तुए किस प्रकार से इस को शान्त करती हैं और शरीर के अन्दर गति करने वाले एवं लोक में चलने वाले कुपित एवं अकुपित वायु के शरीर के अनदर गति करते हुए कौन कौन से कर्म हैं और शरीर के बाहर लोक में गति करते हुए कौन कौन से कर्म होते हैं?
इस प्रसंग में ऋषि कुश बोले- वायु के रूक्ष, लघु, शीत, दारूण, खर, विशद, ये छः गुण होते हैं।
इसको सुनकर ऋषि कुमार शिरा भरद्वाज बोले ‘‘ जिस प्रकार आपने कहा, ठीक इसी प्रकार है। ये रूक्ष आदि छः गुण ही वायु के हैं, इसलिए इन गुणों वाले पदार्थों इन गुणों वाले प्रभावों और इन गुण वाले कर्मों के पुनः पुनः सेवन करने से वायु का प्रकोप होता है। क्योंकि धातुओं के समान गुण वाले पदार्थों वा कर्मों के पुनः पुनः सेवन करने से धातुओं की वृद्धि होती है।
इस वात को सुनकर कंकायन नाम बलख देश के वैद्य बोले जिस प्रकार आपने कहा ठीक ऐसा ही है। ये ही कारण वात को कुपित करते हैं। इनके विपरीत स्निग्ध, गुरू, उष्ण, मृदु, पिच्छिल श्लक्षण, स्थूल, स्थिर गुण वाले द्रव्य या इस प्रकार के कर्म इस कुपित वायु को प्रशमन करते हैं। क्योंकि कोपक वस्तुओं के कारणों के विपरीत गुण वाले द्रव्य धातुओं को शान्त करते हैं।
कंकायन ऋषि के बचन सुनकर वडिश धामार्गव बोले- आपने जो कहा सो ठीक ही कहा है। ये ही आपके कहे हुए कारण वायु को कुपित और शान्त करने वाले होते है। जिस प्रकार कि इस सूक्ष्म एवं निरन्तर गतिशील वायु को प्राप्त करके ये रूक्ष आदि गुण इस वायु को कुपित करते हें तथा शान्त करते हें इसकी व्याख्या करेगें। वात को कुपित करने वाले द्रव्य शरीर को रूक्ष लघु ठण्डा दारूण खरखरा विशद (जो चिप चिपा न हो) और छिद्र युक्त कर देते हैं। रूक्ष लघु आदि शरीर में आश्रय पाकर संचित हुआ वायु प्रकुपित हो जाता है। वात को शान्त करने वाले द्रव्य एवं कर्म शरीर को स्निग्ध, गुरू, उष्ण गरम, मृदु चिपचिपा, तथा गाढ़ा कर देते हैं। इस प्रकार के शरीर में संचार करता हुआ वायु आश्रय न पाकर शान्त हो जाता है।
वडिश के सत्य एवं ऋषियों के अनुमोदित उस बचन को सुनकर राजर्षि वार्योविद ने कहा- आपने जो कुछ कहा है वह ठीक ही है, अर्थात इन नियमों के प्रतिकूल एक भी उदाहरण नहीं है। ‘‘अपवाद’’ का अर्थ निन्दागामी होता है। अभिप्राय यह है कि सब ऋिषियों का इस विषय मं एक ही मत है। कुपित तथा शान्त हुए शीरर में संचार करने वाले एवं शरीर के बाहर संचार करने वाले वायु एवं शरीर के बाहर संचार करने वाले वायु के शरीर में तथा शरीर से बाहर जो कर्म है उनके अवयवों को प्रत्याक्षदि प्रमाणों से सिद्ध कर तथा वायु को नमस्कार कर यथाशक्ति कहूंगा। वायु प्राणादि पांच रूपों वाला है। सम्पूर्ण उच्च या नीच विविध प्रकार की चेष्टाओं का प्रवर्तक है, मनका नियामक तथा नेता (ले जाने वाला) हैं (वायु मन को अनिष्ट विषय से लौटाकर इष्ट विषय में लगाता है) यही वायु सम्पूर्ण इन्द्रियों को विषयों में प्रेरणा करता है।
सम्पूर्ण शब्द आदि इन्द्रियों के विषयों का चयन करने वाला भी वायु ही है। वायु ही शरीरस्थ धातुओं को यथानियम अपने अपने स्थालों पर स्थापित करता हैं शरीर को जोड़ने वाला भी यही वायु है, वाणी को प्रवृत्त करने वाला, स्पर्श तथा शब्द की प्रकृति (कारण) श्रोतेन्द्रिय एवं स्पर्शनेन्द्रिय का मूल कारण वायु ही है।
यह वायु हर्ष तथा उत्साह की योनि है (अभिव्यक्ति) का कारण है। अग्नि का प्रेरक शीरस्थ दोषों का शोषण करने वाला मलों को बाहर निकालने वाला, स्थूल एवं सूक्ष्म श्रोतों को भेदन करने वाला, शरीररोत्पत्ति के समय गर्भ की की आकृतियों को बनाने वाला भी वायु ही है। यह वायु आयु के अनुवर्तन परिपालन का कारण भूत होता है। उपर्युक्त सभी कर्म शान्त वायु के कहे गये हैं। शीरर में कुपित हुआ वायु तो शरीर को नाना प्रकार के रोगों से पीड़ित करता है, जिस के बल वर्ण आदि क्षीण होता है, मन को दुःखित करता है, सम्पूर्ण इन्द्रियों को नष्ट करता है, गर्भ को नाश करता है, अथवा जितने काल तक गर्भ को गर्भाशय में रहना चाहिए उससे अधिक काल तक गर्भाशय में ठहराता है। भय, शोक, मोह, दीनता, अतिप्रलाप, इनको उत्पन्न करता है और मृत्यु का भी कारण होता है। प्रकृतिस्थ वायु के लोक में संचरण करने से ये कर्म होते हैं जैसे पृथ्वी का धारण करना, अग्नि को जलाना, सूर्य चन्द्रमा, नक्षत्र तथा ग्रहों को बराबर नियमपूर्वक गति में रखना, बादलों को बनाना, जलों का छोड़ना, स्रोतों को बहाना, फल फूलों को उत्पन्न करना, बृक्षादि को पृथ्वी से बाहर निकालना, अंकुरित करना, ऋतुओं का विभाग करना, स्वर्णादि धातुओं का आकार तथा परिमाण की व्यतः यह वायु प्रकुपित होकर संसार में संचरण करता है तो इससे ये कर्म होते हैं समुद्रों को उत्पीड़न करना, लालच आदि जलाशय के जलों को उंचा करना, (तट के बाहर जल को निकालना) नदियों को विपरीत दिशा में बहाना, भूकंप कराना, मेघों का गर्जन कराना, पर्वतों के चोटियों को तोड़ना, वृक्षों को उखाड़ना, नीहार गर्जन, धूलि बालू मछली मेढ़क, सांप क्षार, राख रूधिर, छोटे-छोटे पत्थर तथा विजली को आकाश से गिराना, छहो ऋतुओं को नाश करना, अन्न को उत्पन्न न होने देना, प्राणियों को मारना, उत्पन्न हुए वस्तुओं का नाश करना चारों युगों का संहार करने वाले बादल, सूर्य अग्नि, एवं वायु की सृष्टि करना इत्यादि होते हैं।
वह भगवान वायु उत्पत्ति के कारण है, अविनाशी है एवं प्राणियों का उत्पादक तथा नाशक है। सुख एवं दुःख को देने वाला मृत्यु यम, नियन्ता, प्रजापति, अदिति, विश्वकर्मा, विश्वरूप, सवर्ग सम्पूर्ण नियमों कर्मों तथा शरीरों को बनाने वाला सभी वस्तुओं का विधाता, सूक्ष्म, व्यापक, विष्णु, पृथ्वीआदि लोकों को आक्रमण करने वाला भगवान वायु ही है।
वार्योविद के बचन को सुनकर भगवान मरीचि ने कहा, यद्यपि आपने जो कहा है वह ठीक है तथापि आयुर्वेद में इस विषय को कहना या जानना निष्प्रयोजन है यहां तो केवल चिकित्सा सम्बन्धी कथा हो रही है।
वार्योविद बोले-चिकित्सा शास्त्र में वायु बहुत बलवान, बहुत कठोर, अति शीघ्रकारी, अतिचपल, अति दुखदायक है यदि ऐसा ज्ञात न हो तो, सहसा वायु के कुपित होने पर वैद्य किस प्रकार से उसको बिना जाने पहिले ही इससे बचने को कहेगा। वायु के विषय में यथार्थ रूप में कहना, जानना, स्तुति करना भी आरोग्यलाभ, बल, कान्ति, तेज, शक्ति को बढ़ाने, ज्ञान वृद्धि करने और दीर्धतम आयु को प्राप्त करने और बढ़ाने के लिए है।
मरीचि बोले- शरीर में स्थित पित्त के अन्दर पंहुची हुई अग्नि ही कुपित और अकुपित अवस्था में शुभ एवं अशुभ कर्मों को (क्रमशः) करती है। यथा-कुपित न होने पर पचन क्रिया को (भ्राजक पित्त) स्वाभाविक रंग को (रंजक पित्त), शौर्य, हर्ष, प्रसाद प्रसन्नता को (साधक अग्नि) उत्पन्न करती है। कुपित होने पर, पाचन क्रिया की जड़ता, मंन्द दृष्टि उष्णता को अयोग्य प्रमाण में, विकृत वर्ण, भय, क्रोध मूर्च्छा उत्पन्न करता है। इसी प्रकार कुपित और अकुपित अवस्थाओं में पित्त अन्य द्वन्द्वों को भी उत्पन्न करता है। मरीचि ऋषि के बचन सुनकर काप्य बोले-शरीरस्थ कफ में सोम (जल) पंहुचकर कुपित और अकुपित अवस्था में शुभ एवं अशुभ कर्मों को करता है। अकुपित अवस्था में शरीर की दृढ़ता वृद्धि, कार्यों में उत्साह, पुरूषत्व, ज्ञान, बुद्धि आदि को उत्पन्न करता है। कुपित होने पर शरीर का ढीलापन, निर्बलता, आलस्य, नपुंसकता, मूढ़ता, मूर्च्छा आदि उत्पन्न करता है। इस प्रकार कुपित और अकुपित अवस्था में दूसरे द्वंद्वों को भी उत्पन्न करता है।
काप्य ऋषि के बचनों को सुनकर पुनर्वसु आत्रेय बोले- आप सबने जो कुछ कहा वह सब ठीक है। परन्तु आपने जो यह कहा कि अकेला वायु या अकेला पित्त अथवा अकेला ही कुपित और अकुपित अवस्था में सब शुभ-अशुभ कर्म करते हैं। यह बचन व्यभिचरित होने से ठीक नहीं है। सब हो वात पित्त कफ तीनों अकुपित अर्थात स्वस्थावस्था में प्रकृति युक्त स्वस्थ इन्द्रिययुक्त पुरूष को बल, वर्ण, सुख और दीघार्यु प्रदान करते हैं। जिस प्रकार कि उचित रूप में सेवन किये हुए धर्म अर्थ और काम पुरूष को इस लोक में और परलोक में बड़े भागी कल्याण से युक्त करते हैं, जिस प्रकार की विकृत हुई तीनों ऋतुएं (ग्रीष्म, शीत, और वर्षा) संसार को प्रलयकाल से कष्टों में पीड़ित करते हैं। इसी प्रकार कुपित हुए वात पित्त कफ पुरूष को बड़े भारी विपरीत बल, वर्ण, सुख से हीन तथा अल्पायु बनाते हैं।
भगवान आत्रेय के कथन को सब ऋषियों ने अनुमोदन किया। जिस प्रकार कि देवता इन्द्र के बचनों को सराहते हैं, इस प्रकार ऋषियों ने आत्रेय के बचनों की प्रशंसा की।
वायु के छः गुण, दो प्रकार के कारण, कुपित और अकुपित, वायु के नाना प्रकार के कर्म, कफ और पित्त के पृथक कर्म, महर्षियों एवं पुनर्वसु आत्रेय की समति, ये सेब इस वात कलाकलीय अध्याय में सम्पूर्ण रूप से कह दिया।
त्रयोदशो अध्यायः
इसके आगे स्नेह अध्याय का व्याख्यान करेगें जैसा भगवान आत्रेय ने कहा था। जिन तत्व ज्ञानी लोगों ने जानने योग्य बातों को भली प्रकार जान लिया था ऐसे मुनियों के साथ बैठे हुए पुनर्वसु आत्रेय से ऋषि अग्निवेश ने अपने सन्देह को जगत के कल्याण के लिए पूछा-
स्नेहों के उत्पत्ति स्थान कौन से हैं? स्नेह कितने हैं? पृथक-पृथक प्रत्येक स्नेह के गुण क्या है? प्रत्येक स्नेह का समय, अनुपान क्या है? विचारणाऐं कितने प्रकार की होती हे? मात्रायें कितनी है उनका परिमाण क्या और कौन सा परिमाण किसके लिए कहा गया है कौन सा स्नेह किस के लिए हितकारी है? स्नेहन में कौन से स्नेह उत्तम है स्नेह के योग्य कौन है? स्नेह के अयोग्य कौन है? अस्निग्ध और अतिस्निग्ध के लक्षण क्या है? स्नेह पान से पूर्व क्या पीना और क्या नहीं पीना चाहिए स्नेह के जीर्ण होने पर क्या पीना हितकारी और क्या अहितकारी है? मृदु क्रूर कोष्ठ वाले कौन है? स्नेह से कौन से रोग उत्पन्न होते हैं? उनका उपचार क्या है? संशमन संशोधन और स्नेहन में कैसे वर्ताव से रहे? किन-किन पुरूषों में विचारणा किस विधि से प्रयोग करनी चाहिए? स्नेह सम्बन्धी अनन्त ज्ञान को जानने की मेरी इच्छा है।
अग्निवेश के सन्देह को दूर करने के वाले भगवान पुनर्वसु ने उत्तर दिया- स्नेहों के उत्पत्ति स्थान दो प्रकार के हैं, स्थावर और जंगम। इनमें तिल, चिरौजी फल, चिलगोजा, बहेड़ा, चीता, हरड़ बड़ी हरड़, ऐरण्ड, महुआ, सरसो, कुसुम्म, बेलेगिरी, भिलावा, मूलक, अलसी, निकोटक, अखरोट, नाटा करंजुआ, सोहजन ये स्नेह स्थावर उत्पत्ति स्थान है। मछलियों, मृग, पक्षी, एवं उनका दूध दही घृत, मांस, वसा, और मज्जा ये स्नेह के जंगम उत्पत्ति स्थान कहे हैं।
सब प्रकार के तेलों में तिल का तेल श्रेष्ठ है। बल और मृदुता लाने के लिए तिल का तेल सब में श्रेष्ठ है और बिरेचन के लिए ऐरण्ड का तेल सर्व श्रेष्ठ है। सब प्रकार के स्नेह में घी, तेल वसा और मज्जा ये चार श्रेष्ठ है। इन चारों में घी सबसे श्रेष्ठ है क्योंकि यह अन्य पदार्थों का गुण अपने में ले लेता है।
घी वात और पित्त का नाशक है, रस, शुक्र ओज को बढ़ाता है। बढ़ी हुई उष्णिमा को शान्त करता है, शरीर में कोमलता पैदा करता है, स्वर और कान्ति को बढ़ाता है। 175
तेल वायु नाशक परन्तु कफ को नहीं बढ़ाता है। बल बर्धक, त्वचा के लिए हितकारी, उष्णवीर्य, उष्णगुण, शरीर को स्थिर बनाने वाला एवं स्त्री जननेद्रिय का शोधन करता है। (तिल के तेल में ये गुण विशेष रूप से हैं।)
भाले आदि से बिधने चोट लगाकर आदि के टूटने चोट लगने, योनि की भं्रशता, कर्ण रोग, शिरे रोग, पुरूषत्व बढ़ाने वाला, शरीर को चिकना करने और व्यायाम अर्थात शारीरिक श्रम में वसा हितकारी है।
बल शुक्र रस, कफ, मेद और मज्जा को बढ़ाती है। विशेषकर अस्थियों की शक्ति बढ़ाती एवं शरीर को चिकना बनाने में विशेष रूप से हितकारी है।
घी शरद ऋतु में चर्बी और मज्जा बसन्त ऋतु में और तेल वर्षा काल में सेवन करना चाहिए। अति उष्ण अथवा आते शीतकाल में स्नेह नहीं पीना चाहिए। तीव्र व्याधि में ग्रीष्म ऋतु में रात्रि के समय, वात और पित्त की अधिकता होने पर स्नेह पी लेना चाहिए। कफ प्रधान व्याधि में शीतकाल में अन्दर (हेमन्त शिशिर ऋतु में) मध्यान्ह समय दिन के समय स्नेहपान करना चाहिए।
वात प्रधान या पित्त प्रधान रोगी ग्रीष्म ऋतु में या दिन के समय यदि स्नेहपान करता है तो मूर्छा, प्यास, उन्माद, अथवा कामला रोग उत्पन्न हो जाते हैं। कफ प्रधान रोगी यदि शीत ऋतु में या रात्रि के समय स्नेहपान करता है तो उसे अफरा अरूचि, शूल-पीड़ा, या पाण्डु रोगउ उत्पन्न हो जाता है। घी पीने के उपरोन्त गरम जल तेल के उपरान्त यूष, और वसा एवं मज्जा के उपरान्त माण्ड पीना उत्तम है अथवा सब के पीछे गरम पानी पीना श्रेष्यकर है।
स्नेह की विचारणाऐं-
स्नेह की विचार धारा उपायेग विधि 24 प्रकार की है। जैसे ओदन-चावल पांच गुणे जल में पकाओ (2) विलेपी- अर्थात दरकच किये चावलों को चार गुणे जल में पकाने से बहुत माण्डयुक्त यवागू बनता है। (3) रस (मांस रस) ठीक तरह से पका मांस, (4) यवागू -दरकच किये चावल को छः गुने जल में पकाने से मांट युक्त द्रव हो) (5) सूप-दाल को 16 या 18 गुणे जल में पका कर चतुर्थांश शेष रखे। (6) शाक (7) यूप- अन्न को दलकर 14 या 18 गुणे जल में पकायें आधा पानी शेष रखें। काम्बलिक, खड, सत्तू, तिलपिष्ठ, (तिलकुट या खल) मदिरा, चाटन, भक्ष्य, (मालपुआ, पूरण पोली आदि) अभ्यंजन, मालिश, बस्ति, उत्तर बस्ति, गण्डूष, अर्थात मुख में तेल का रखना, कान में तेल डालना, नस्य कर्म, नेत्र के अन्दर स्नेह प्रदान करके आंख की तृप्त करना, यह स्नेह की चौबीस प्रकार की प्रविचारणा अर्थात सेवन बिधि है।
शुद्ध स्नेह पीने को विचारणा नहीं कहते। यह तो स्नेह का सर्व प्रथम श्रेष्ठ रूप है। इसके पीछे प्रकृति, देह, आदि देखकर पाचन शक्ति की विवेचना करके ओटन आदि सेवन बिधि करनी चाहिए।
छः रसों (मधुर अम्ल, लवण, तिक्त, कटु और कषाय) के परस्पर मिलने से 63 प्रकार के भेद हो जाते हैं। इन तिरसठ भेदों के साथ जब स्नेह मिलता है तो वह भी 63 प्रकार का हो जाता है और जब किसी भी रस के साथ न मिलकर शुद्ध स्नेह रूप में ही रहता है तब एक भेद होता है। इस एक प्रकार को भी मिलाकर स्नेह के 64 प्रकार हो जाते हैं। इस प्रकार से स्नेह की विचारणा अर्थात सेवन बिधि 64 प्रकार की है। सात्म्य, ऋतु, और रोग बल आदि का विचार करके सेवन बिधि का प्रयोग करना चाहिए।
स्नेह की मात्रा-
स्नेह की मात्रा तीन प्रकार की है। प्रधान, मध्यम और ह्रस्व। इनमें जो स्नेह की मात्रा रात और दिन में जीर्ण होती है, वह स्नेह की प्रधान मात्रा है और जो सारे दिन भर (12 घंटे) में जीर्ण होती है वह मध्यम, और जो आधे दिन (6 घंटे) में जीर्ण होती है वह स्नेह की ह्रस्व मात्रा है। ये मात्रायें स्नेह के जीर्ण होने के समय के अनुसार है। इस प्रकार से स्नेह की मात्रा और मान कह दिया है।
अब प्रत्येक पुरूष के लिए स्नेह प्रयोगों को कहते हैं। 178
जो मनुष्य नित्य प्रति विशेष रूप से स्नेह का व्यवहार करते हैं, भूख और प्यास को न सहन कर सकने वाले उत्तम बलवान जठरान्ग्नि वाले, श्रेष्ठ शारीरिक बल वाले, गुल्म रोगी सर्वविषाक्रान्त रोगी, वीसर्प रोगी, पागल, मूत्र कृच्छ रोगी, और जिनका मल सूखा रहता है, वे स्नेह की उत्तम मात्रा का पान करें। स्नेह की प्रधान मात्रा के पीने के गुण सुनों- यदि मात्रा को भली प्रकर से प्रयोग किया जाये तो उपरोक्त समस्त रोग मिट जाते हैं। वह शरीर के दोषों को खींचकर बाहर कर देते हैं। शरीर के सब भागों में उपर, नीचे तिरछे सब जगत फैल जाता है। वह बल बर्धक एवं शरीर, इन्द्रिय और चित्त को फिर से हरा भरा बना देती है।
मध्यम मात्रा-
गांठे फोड़े फन्सियां खाज पामाख् कुष्ठ रोगी, प्रमेही, अतिमूत्र रोगी, वातरक्त रोगी अधिक न खाने वाले, न कम खाने वाले मृदुकोष्ठ वाले, (जिनको दूध से भी विरेचन हो जाता है) और मध्यम बल वाले व्यक्ति स्नेह की मध्यम मात्रा पान करे। यह मध्यम मात्रा मृदु विरेचक, थोड़ा कष्ट करने वाली, एवं बल को बहुत नहीं घटाती, सुखपूर्वक सरलता से शरीर को कोमल कर देती है, इसीलिए शरीर को शोधन करने के लिए हितकारी है।
ह्रस्व मात्रा-
बृद्ध बालक कोमल नाजुक प्रकृति के, ऐस की जिन्दगी वसर करने वाले, खाली पेट रहन से जिनके पेट में दर्द होने लगता है, मन्दाग्नि, निर्बल जठराग्नि वाले, जिनको ज्वर अतिसार, कास, पुराना बहुत दिनों का हो, और निर्बल, अल्प शारीरिक बल वाले व्यक्ति स्नेह की ह्रस्व मात्रा लेवें। यह मात्रा जीर्ण होने में सरल है, सुख पूर्वक पच जाती है। शरीर को चिकना करती है एवं बल बढ़ाती हैं पुरूषकरक, बल कारक, निरापद, एवं देर तक सेवन व्यवहार में लाई जा सकती है।
कौनसा स्नेह किसके लिए हितकारी है-
जिनकी प्रकृति वात-पित्त हो, वात पित्त के रोगी, उत्तम दृष्टि चाहने वाले, उर क्षत रोग से क्षीण, निर्बल, बृद्ध, बालक, निर्बल मनुष्य, आयु की वृद्धि काी कामना करने वाले, बल, वर्ण, कान्ति स्वर को चाहने वाले, शरीर पुष्टि के इच्छुक, संतति की चाह वाले, सुकुमारता, कोमलता, इच्छुक, तेज, ओज, स्मृति, बुद्धि, अग्नि, धारण करने की शक्ति और इन्द्रिय बल को चाहने वाले और आग, जल, शस्त्र विष से आक्रान्त रोगी घी का सेवन करें।
जिनमें कफ की या चर्बी की अधिकता हो, जिनका पेट या गर्दन मोीट और ढीली हो, वात रोगों से पीड़ित, वात प्रकृति के , जो बल, पतलापन, हल्कापन, मजबूती, शरीर की स्थिरता, चिकनापन, और त्वचा की कोमलता चाहते है, कृमि रोग से आक्रान्त, क्रूर कोष्ट वाले (जिनको तीव्र विरेचन से प्रभाव होता है) नाड़ीव्रण, से आक्रान्त और जिनको तेल सेवन करने का अभ्यास है वे शीतकाल में दिन के समय तेल पान करें।
वायु और धूप का सेवन करने वाले, रूक्ष प्रकृति, भार के उठाने या मार्ग चलने वाले, परिश्रम के कारण जो निर्बल हो गये, जिनका वीर्य या रक्त सूख गया है। कफ क्षीण हो, मेद क्षीण हो, जिनको अस्थि, संधि सिरा , स्नायु मर्म कोष्ठ के भयानक रोग हो, जिनकी इन्द्रियों को बलवान वायु घेरे रहता है जिनका अग्नि बल जठराग्नि बलवान हो, और जो वसा सेवन करने के अभ्यासी हों, ऐसे पुरूष को स्नेहनन करने के लिए वसा चर्बी का पान करें।
जिनकी जठराग्नि दीप्त है, जो क्लेश को सहन कर सकते हों, खूब खाने वाले, स्नेह सेवन के अभ्यासी, वात रोगी और क्रूरकोष्ठ वाले व्यक्तियों को मज्जा द्वारा स्नेह करना चाहिए।
जिन पुरूषों के लिए जो जो स्नेह हितकारी है, उनके लिए उसी स्नेह का उपदेश किया गया है स्नेह की सेवन बिधि दो प्रकार की है। एक सात रात की और दूसरी तीन रात की। इनमें क्रूर कोष्ठ व्यक्तियों के लिए सात रात, और मृदुकोष्ठ के व्यक्तियों के लिए तीन रात है।
स्नेह योग्य व्यक्ति जो स्वेद देने या संशोधन के योग्य है, रूक्ष प्रकृति वात रोगी, नित्य व्यायाम सेवी, नित्य मद्य सेवी, नित्य स्त्री सेवी और जो चिन्ता करते रहते हैं वे व्यक्ति स्नेह के योग्य हैं।
स्नेह के अयोग्य व्यक्तिः- संशोधन किये बिना जिनका रूक्षण करना कहा जायेगा, जिनका कफ और मेद बढ़ा हो, जिनके नाक, मुख, और गुदा से स्राव होता हो, जिनको सदा मन्दाग्नि रहती हो, प्यास और मूर्छा से आक्रान्त, गर्भवती, तालुकण्ठ जिनका सूखता हो, भोजन से अरूचि करने वाले, वमन करत हुए, उदर रोगी या विष से आक्रान्त, दुर्बल, ग्लानि करने वाले (कच्चे दिल के, घृणा करने की प्रकृति के) स्नेह के पीने में जो प्रसन्न नहीं होते, घृणा करते है और मद से ग्रस्त व्यक्तियों को और नस्य कर्म एवं अनुवासन वस्ति जिन्होने ली हो उनकी स्नेहन नहीं देना चाहिए। यदि इनको स्नेह पिलाया जायेगा तो भयानक रोग हो जायेगें।
अस्निग्ध, स्निग्ध, और अतिस्निग्ध के लक्षण-
जिसका मल बंधा हुआ, रूक्षता वायु अपनी प्रकृति में न हो जठराग्नि मंद हो शरीर में कर्कश्ता रूखापन हो, तो समझे कि स्नेहन क्रिया ठीक से नहीं हुई।
वायु की अनुकूलता जठराग्नि को बढ़ना (भूख लखना) मल, चिकना और पतला, अंगो में कोमलता और चिकनापन हो, तो समझना चाहिए कि उचित रूप में स्नेहन हुआ है।
पीलापन, निस्तेज वर्ण, शरीर में भारीपन, आलस्य, मल का भली प्रकार पाक न होना, अरूचि, सुस्ती, वमन की इच्छा से अतिस्निग्ध के लक्षण हैं।
स्नेह से पूर्व लेने योग्य हितकारी पदार्थ- स्नेह पान करने की इच्छा वाले व्यक्ति को चाहिए कि स्नेह पीने से पहिले, दिन, और गरम, जो कफकारक न हो, अतिस्निग्ध, अतिविकार, युक्त, असंकीर्ण ऐसे भोजन को मात्रा से खाये जो दो तीन वस्तुओं को मिलाकर न बनाया गया हो और अगले दिन जब भोजन के समय आकांक्षा हो तब संशमन स्नेह को ही पान करे।
संशोधन के उददेश्य से स्नेह पान करने के लिए रात्रि का भोजन जीर्ण होने पर प्रातःकाल स्नेहपान करे।
स्नेह काल में हित अहित पीने स्नान, शौच आदि कार्यों में गरम पानी का व्यवहार करे, मैथुन को छोड़ दे। रात्रि में सोये, दिन में न सोये रात में न जागे, उपस्थित हुए मल, वायु और डकार के वेगों को न रोके। व्यायाम-श्रम, और जोर से या अधिक भाषण, क्रोध, शोक, सरदी या गरमी न सहे। खुली वायु में वायु के सामने न बैठे और सोये। स्नेह को पीने के पीछे इन कार्यों का पालन करे। स्नेह पीने के पीछे पुनः स्नेह पान करने पर, स्नेह पीकर भोजन आदि में दूसरी बार स्नेह युक्त पदार्थ खाने स्नेह के मिथ्यायोग से भयानक रोग हो जाते हैं।
मृदु कोष वाला व्यक्ति स्नेह का अच्छपान करके तीन रात्रि तक सेवन करने पर स्निग्ध हो जाता है। क्रूरकोष्ठ वाला व्यक्ति स्नेह का सात दिन अच्छपान करके स्निग्ध होता है।
गुड़ गन्ने का रस, दही का द्रव्य भाग, दूध, बिलोई हुई दही, खीर खिचड़ी, घी गम्भारी का रस त्रिफला, अंगूर का रस, पीलू का रस, गरम जल, नवीन मदिरा, इनको पीने से मृदुकोष्ठ, व्यक्तियों को विरेचन हो जाता है। अर्थात जिनको इन बस्तुओं से विरेचन हो जाय वह मृदुकोष्ठ होता है।
इन पदार्थों से क्रूर कोष्ठ वाले व्यक्तियों को कभी विरेचन नहीं होता है। क्योंकि क्रूरकोष्ठ व्यक्ति की ग्रहणी (नाड़ी) अति प्रबल वायु वाली होती है।
मृदुकोष्ठ की ग्रहणी और पित्त प्रबल एवं मन्दकफ तथा अल्पवायु युक्त है। इसीलिए गुण आदि से उसे विरेचन हो जाता है।
स्नेह की व्यापत्तियां-
जिनकी ग्रहणी (अग्नि की अधिस्ठान भूमि) प्रबल पित्तवाली हो (कफ और वायु से युक्त न हो) और जिनका अग्निबल बढ़ा होता है, उस पुरूष का पिया हुआ स्नेह अग्नि के तेज से शीघ्र भस्म हो जाता है। वह महाबलवान जठराग्नि पीये हुए स्नेह को जीर्ण करके फिर बलवान बनकर ओज को घटाती हुई, उपद्रवों से युक्त प्रबल प्यास को पैदा कर देती है। ऐसी अवस्था में स्नेह के कारण बहुत बढ़ी हुई जठराग्नि को शान्त करने के लिए गुरू भोजन भी समर्थ नहीं होता। इसलिये स्नेहपान से प्रबल अग्नि वाले पुरूष को यदि शीतल जल पीने के नहीं दिया जाय तो वह इसी अग्नि से जलने लगता है। जिस प्रकार की घास-फूस या कांटों के बीच में फसा हुए सांप अपनी अग्नि रूपी अपने विष से स्वयं जलने लगता है। और दुगुने क्रोध से फुंकारे मारता है।
व्यापत्तियों के उपाय कहते हैं-
यदि स्नेह के पान में अजीर्णवस्था अर्थात स्नेह के जीर्ण न हुए बिना ही प्यास लगने लगे तब बैद्य स्नेह को वमन से बाहर करा देवे। इसके पीछे शीतल जल और रूक्ष भोजन कराके फिर बमन करा देवे। इसलिए केवल पित्त की प्रधानता में, विशेष कर आम सहित पित्त विकास में घी नहीं पीना चाहिए। क्योंकि पित्त के तीक्षण गुण वाला होने से सम्पूर्ण देह में व्याप्त होने वाला घी रूप स्नेह सारे शरीर में फैल जायेगा। शरीर में फैलकर उसको पीना कर देता और चेतना नाश करके प्राण नाश कर देता है।
तन्द्रा(आलस्य) उत्क्लेश(वमन की इच्छा) अनाह (अफारा) ज्वर, स्तम्भ, शरीर की जड़ता, संज्ञानाश, कुष्ठ, खाज, वाण्डुता, शोथ, अर्श अरूचि, प्यास, मरोड़ ग्रहणीरोग अंगों के गीले कपड़े में लिपटने का सा भान होना या ऐठन, वाणी का बन्द हो जाना, उदरशूलख् आमदोष, स्नेह के मिथ्यायोग के लक्षण हैं। इन लक्षणों के होने पर भी वमन कराना चाहिए, स्वेद देना चाहिए, समय की प्रतीक्षा करनी (स्नेह दोष के क्षय होने तक भोजन नहीं करना) चाहिए, प्रत्येक व्याधि का बल विचार करके जो व्याधि स्रसंन योग्य हो उसका सं्रसन करना चाहिए। इसी प्रकार ‘तक्रारिष्ठ’ का प्रयोग रूक्ष, खान पान देना आठों प्रकार के मूत्रों और त्रिफला का सेवन करना स्नेह जन्य रोगों की चिकित्सा है।
रोग होने के कारण-
स्नेह लेने के ठीक समय पर स्नेह न लेने से, जो स्नेह जिस पुरूष के लिए हितकारी है उसके सेवन से, उचित मात्रा में न लेने से, स्नेह के मिथ्या अनुचित उपयोग से, और स्नेह के अति सेवन से स्नेह जन्य विकार उत्पन्न होते हैं।
स्नेह पान के पीछे पुरूष तीन रात तक ठहरे। इन तीन दिनों में स्नेह मिश्रित द्रव, उष्ण मांस रसयुक्त भात खाकर विरेचन लेवे। एक दिन जिसने आराम किया ऐसा पुरूष पहले की भांति भोजन करके वमन (कारक द्रव्य ) पीये।
संशमन के उददेश्य से स्नेह पान करने में विरेनच लिए हुए समान व्यवहार करना चाहिए।
विचारणा का प्रयोग-
जो मनुष्य स्नेह से द्वेष करते हों, नित्य प्रति स्नेह का व्यवहार करते हों, मृदुकोष्ठ वाले, कष्ट को सहन न करने वाले, जो नित्य मदिरा सेवी हों, उनमें विचारणा का प्रयोग करना चाहिए। प्रयोग करने की विधि कहते है-
वटेर, मोर, हंस, सुअर, मुर्गी, हाथी, बकरा, मेढ़ा और मछली इनके मांसों का रस स्नेहन क्रिया में हितकारी है। इन मांस रसों का संस्कर करने के लिए जौ, बेर, कुल्थी, घी या तेल, गुड़ अनारदाना, दही, सोंठ काली मिर्च पिप्पली ये याथायोग्य मिलाने चाहिए।
घी में बनाये हुए भूनकर बनाये हुए तिलकुट को भोजन से पूर्व खाने से शरीर का स्नेहन करते हैं। इसी प्रकार बहुत स्नेह वाली खिचड़ी तथा तिल युक्त ‘काम्बलिक अर्थात यूप’ भोजन से पूर्व खाने से शरीर का स्नेहन करते है।
राब (आधा पका गन्ने का रस) अदरख, और तेल इन तीनों को एक करके, शराब में मिलाकर रूक्ष व्यक्ति पिये। इसके जीर्ण होने पर भुने हुए मांस से भोजन खाये।
वात प्रकृति का मनुष्य मद्य, या मण्ड के साथ तेल, वसा, या मज्जा को मिलाकर पीये तो स्नेहन होता है। वात प्रकृति का आदमी राब के साथ दूध को पिये तो भी स्नेहन होता है।
धारोष्ण, ताजे दुहे हुए दूध को शर्करा एवं घी के साथ पीने से शरीर का तुरन्त स्नेहन होता है। अथवा राब के साथ दही की मलाई खाने से भी स्नेहन तुरन्त होता है।
आगे कही जाने वाली पांचप्रसूतिका पेया’ को पीकर मनुष्य शीघ्र ही स्निग्ध बन जाता है। उड़दो को चावलों में मिलाकर घी आदि में स्नेह में खूब भुन कर दूध में पकाई (घी से युक्त) खीर जल्दी ही स्निग्ध कर देती है।
पांच प्रसूति की पेया- घी, तेल, बसा, मज्जा और चावल, प्रत्येक आठ-आठ तोले लेकर छः गुने जल में पकावे। इसका नाम पांच प्रसूतिकी पेया है। स्नेहन की इच्छा करने वाले व्यक्ति को इसका सेवन करना चहिए।
कुष्ठ रोगी, शोथ रोगी, प्रमेह रोगी- इनके स्नेहन के लिए ग्राम्य निन्दित मांस, जलीय मांस, गुड़ दही, दूध और तिल इनका प्रयोग नहीं करना चाहिए। क्योंकि ये वस्तुये इनको बढ़ाती है। इन रोगियो के लिए, इन रोगों को नाश करने वाली औषधियों से सिद्ध किये हुए घृत आदि स्नेह, एवं इन रोगियों के लिए विकार न करने वाले स्नेहों से इनकी चिकित्सा करनी चाहिए। अथवा पिप्पली के कल्क या हरीतकी के कल्क अथवा त्रिफला के कल्क द्वारा सिद्ध घृतादि स्नेह के द्वारा कुष्ठ रोगी, शोथ रोगी, प्रमेह रोगी का स्नेहन करना चाहिए।
द्राक्षायूप, आंवले का यूप और खटटी दही (ये मिलित चार भाग) सोंठ, मरिच और पिप्पली (मिलित एक भाग) इनका कल्क डालकर उचित मात्रा में घृत सिद्ध करना चाहिए। इस घृत के पान करने से मनुष्य का स्नेहन होता है।
जौ बेर कुल्थी प्रत्येक का क्वाथ, दूध, दही, और मद्य, क्षार और घी, इनको मिलाकर घी सिद्ध करना चाहिए। यह स्नेहन के लिए श्रेष्ठ है।
तैल, वसा, मज्जा, घी, बेर, और त्रिफला इनका क्वाथ, में चारो स्नेह सिद्ध करने चाहिए। यह स्नेह योनिरोग और वीर्य रोगियों में स्नेहन कार्य के लिए उपयोगी है।
जिस प्रकार वस्त्र पानी का उचित मात्रा को ही ग्रहण करता है और अधिक पानी निकल जाता है इस प्रकार अग्नि स्नेह की योग्य मात्रा को ही जीर्ण करती है। अधिक मात्रा निकल जाती है।
जिस प्रकार मिटटी के ढेले पर जल्दी से गिरा हुआ बहुत सा पानी, ढेले को गीला करके बह जाता है, और ढेला गलने लगता है, उसी प्रकार जल्दी से अधिक मात्रा में पिया स्नेह जल्दी से गुदा मार्ग से बाहर बह जाता है। जितने भी स्नेह कहे हैं, वे सब सेन्धव लवण के साथ सेवन करने से मनुष्य को शीघ्र ही स्निग्ध कर देते हैं। क्योंकि नमक अभिष्यन्दि (द्रवकारक) अरूक्ष सूक्ष्म, उष्ण और व्यवायी गुण वाला है। अभिष्यन्दि होने से दोष समूह को तोड़ता है। रूक्ष न होने से स्नेहन करता है। सूक्ष्म होने से शरीर के सूक्ष्म भागों में घुस जाता है। गरम होने से पीये हुए स्नेह को शीघ्र जीर्ण करता है। व्यवायी होने से स्नेह के साथ सारे शरीर में फैल जाता है।
संशोधन करने से पूर्व स्नेहन करना चाहिए। इसके पीछे स्वेदन करना चाहिए। स्नेह और स्वेदन कर चुकने पर पीछे संशोधन अथवा संशमन चिकित्सा करनी चाहिए।
स्नेहों के प्रकार, सम्पूर्ण स्नेहबिधि, स्नेह की व्यापत्तियां और उनकी भेषज औषधियां समेत सिद्धि भगवान पुनर्वसु आत्रेय ने अग्निवेश के प्रश्नानुसार सब कह दी।
चतुर्दशो अध्यायः
अब स्नेह के उपरान्त स्वेद सम्बन्धी अध्याय का व्याख्यान करते हैं, जैसा भगवान आत्रेय ने कहा था।
अब स्वेद बिधियों का उपदेश करेगें। जिनको उचित प्रकार से करने पर स्वेदन से शान्त होने वाले, वात-कफ जन्य रोग शान्त हो जाते हैं।
पहले स्नेहन कार्य करके वायु को शमन कर लेने पर शरीर में मल, मूत्र और वीर्य ये किसी भी प्रकार रूके नहीं रहते।
सूखे हुए काठ भी स्नेहन और स्वेदन द्वारा मन के अनुसार मोड़ी या सीधी की जा सकती है। फिर जीवित (रसयुक्त और कोमल) मनुष्यों को वैद्य क्या स्नेहन और स्वेदन द्वारा इच्छानुसार परिवर्तित नहीं कर सकेगा।
व्याधि, काल, रोगी पुरूष, इच्छा इनके अनुसार न बहुत गरम, न बहुत कोमल, उस उस रोग को नाश करने वाले द्रव्यों द्वारा स्वेदन करने योग्य स्थानों से दिया गया स्वेद कार्य करने में समर्थ होता है।
शीत रोग में शीत शरीर में महाबलवान पुरूष के लिए महा स्वेद जिसे शरीर सहन कर सके उतना ही देना चाहिए। शीत रोग और शीत शरीर वाले निर्बल पुरूषमें दुर्बल स्वेद देना चाहिए। मध्यम बल पुरूष में शीत व्याधि और शीत शरी में मध्यम स्वेद देना चाहिए। वात कफ जनित व्याधि में स्निग्ध और रूक्ष द्रव्यों से बनाया स्निग्ध रूक्ष स्वेद देना चाहिए। केवल वात जन्य व्याधियों में स्निग्ध पदार्थों से स्निग्ध स्वेद देना चाहिए। केवल कफजन्य व्याधि में रूक्ष पदार्थों से रूक्ष स्वेद देना चाहिए।
वायु यदि आमाशय (कफ स्थान) में पंहुची हो तो प्रथम स्नेह कर्म न करके रूक्ष कर्म करे जिससे कफ निकल जाय। फिर वायु को शान्त करने के लिए स्नेहन कार्य करे। इसी प्रकार जब कफ पक्काशय वात स्थान में पंहुचा हो तब पहिले रूक्ष कार्य न करके स्नेहन कार्य करें। जिससे कि वायु की शान्ति हो फिर कफ की शान्ति के लिए रूक्ष कार्य करे। हृदय, आंख, इनका मृदु स्वेद द्वारा स्ेदन करना चाहिए। यदि दूसरी चिकित्सा से कार्य चल जाय, तो स्वेद बिल्कुल न करे। वंक्षण स्थिति में रोगी में वक्षणी में मध्यम स्वेद देना चाहिए। शेष अंगों की (रोगी की) इच्छानुसार स्वेदन करे।
धूल आदि दूधक पदार्थों से रहित, रूई से, रूई के वस्त्रों से अथवा गेंहू की पोटली बांधकर आंख पर स्वेद देना चाहिए। स्वेद देने से पूर्व आंख को कमल, या नीला कमल, इनके पत्तों से ढाप लेना चाहिए। शीतल मोतियों की मालाओं से, शीतल पात्रों से जल से भीगे कमलों से और हाथों से स्वेदन किये जाते रोगी के हृदय को स्पर्थ करता रहे।
सरदी और बेदना हट जाने पर, शरीर में जड़ता तथा भारीपन प्रतीत न होने पर और शरीर में कोमलता, उत्पन्न होने से, तथा शरीर पर पसीना आ जाने से स्वेद देना बन्द कर दे।
अति स्वेदन के लक्षण और उपचार-
अतिस्वेद, देने से पित्त का प्रकोप, मूर्च्छा शरीर में सुस्ती, प्यास का लगना, जलन पसीने का बहुत आना, अंगों में निर्बलता आ जाती है। अति स्वेद के लिए कही हुई ग्रीष्म ऋतु की मधुर स्निग्ध, शीतल गुणवाली, सम्पूर्ण परिचर्या करे। यह अति स्वेद की चिकित्सा है।
स्वेद न देने योग्य व्यक्ति- जो वात कफ प्रकृति के मनुष्य नित्य प्रति पाचानादि कषायों और मद्य का सेवन करते हो, गर्भवती,, रक्तपित्त रोगी, पित्त प्रकृति, या पित्त जन्य रोग वाले व्यक्ति, अतिसार, रोगी, रूक्ष प्रकृति, मधुमेही, सब प्रकार से प्रमेह रोगी, इनमें खासकर मधुमेह के रोगी, जिनकी गुदा पक गयी हो, या गुदा बाहर आ अगयी हो, विष रोगी, या नशे में मस्त अथवा शराब से उत्पन्न रोग वाला, परिश्रम करने से थके, मूर्छित, बेहोश रोगी, स्थूल चर्बी वाले पुरूष, पित्त जन्य प्रमेहों प्यासे पुरूष, भूखे, क्रोधी, शोक चिन्ता ग्रस्त, कामला, उदर रोगी, कुष्ठ रोगी, वात रक्त रोगी, निर्बल, बहुत रूक्ष शरीर वाले, जिनका ओज क्षीण हो गया हो, उनका तथा तिमिर रोगियों को स्वेद नहीं देना चाहिए। (परन्तु तीव्र व्याधि में अल्प स्वेद दिया जा सकता है। )
स्वेद योग्य व्यक्ति-
जुकाम, खांसी, हिक्का, दमा, शरीर का भारीपन, कान की दर्द, शिरोवेदना, स्वरभेद, गलगण्ड, चेहरे का लकवा, एकांग वात, सर्वाग वात, पक्षाघात रोग, विनामक, में पेट का अफारा, मल-मूत्र के अवरोध में, शुक्र के अवरोध, जम्भाई का अधिक आना, पार्श्व शूल, पृष्ठ बेदना, कटिशूल, कुक्षिशूल, गृधसी, रोग, मूत्रकृच्छ, रोग अण्ड बृद्धि, सारे शरीर में बेदना, पांव की बेदना, या ऐंठन, घुटना अथवा जंघा की पीड़ा अथवा ऐंठन, खल्ली अर्थात हाथ पांव के ऐठन में आम रोग, शीतावस्था, कंपकपी, वातकण्टक, गुल्फाश्रित वात रोग, शरीर को संकुचित करने वाले वात रोग, आयाम अन्तरायाम वात रोग, शूल बेदना, स्तम्भ, भारीपन, अंग का सो जाना, या स्पर्श ज्ञान का आभाव, शून्यता, ज्वरादि और वात शलेष्मा, आदि रोगी की दशाओं में स्वेद देना हितकारी है।
स्वेदन द्रव्य-194
तिल उड़द कुलथी, चागेरी चौपतिया, घृत, तेल, ओदन पके हुए चावल, खीर तिल और मांस की खिचड़ी मंास इन पदार्थों को गोलाकार बनाकर पिण्ड स्वेद का प्रयोग करना चाहिए। रूक्ष स्वेद के द्रव्य के गाय का गोबर, गधे का मल, उँट का मल, सुअर का मल, और घोड़े की लीद, छिलकों वाले जौ रेता, पांसु ईट का चूरा, लोहे का चूरा, इनका पोटली बनाकर रोगियों को स्वेद देना चाहिए और तिल, उड़द आदि में वात रोगियों को स्वेद देना चाहिए। पिण्ड स्वेद को संकर स्वेद कहते हैं। ये तिल आदि पदार्थ प्रस्तर स्वेद में भी प्रशस्त है। नाड़ी स्वेद- भूमि को खोद कर बनाया हुआ घर, जेन्ताक अर्थात कृतिम विधि से गरम किया हुआ घर उष्ण गर्म अर्थात हमाम बिना खिड़की के घर इनमें वातहर, या कफहर लकड़ियों को जलाकर धुवें रहित अंगारी से इन घरों को गरम करके शरी का स्नेहन करने के पीछे मनुष्य सुखपूर्वक स्वेद ले सकता है।
नाड़ी स्वेद के लिए- पालतू पशु ओर जलीय जन्तुओं का मांस, दूध बकरी का सिर, सुअर का मध्य भाग, पित्त, रक्त एरण्ड के बीच, तिल इन सबको यथायोग्य उबालकर नालिका द्वारा स्वेद देवे।
देश काल के विभाग को समझने वाला और युक्ति प्रयोग बिधि जानने वाला, वैद्य स्वेद देवे। यह स्वेद वात रोग में हितकारी है। वरना, गिलोय, ऐरण्ड, सहजन, मूली के बीज, वासा, रेणु, करंज, आक, पाषाणभेद, और चंगेरी के पत्ते लाल सहजन, शिलाहा, अजक (तुलसी भेद) इनके पत्तों को और छालों को भी क्वाथ करके देश काल के विभाग को जानने वाला, युक्ति को समझने वाला वैद्य नाड़ी स्वेद देवे, यह स्वेद कफ जन्य रोगों में हितकारी है। भूतीक (बड़ी अजवायन) पंचमूल, (वहत्यपंचमूल वात कफ हर होने से) सैरेय (झिंटी), दही का पानी (मस्तु) आठों प्रकार के मूत्र, अम्लवर्ग से, स्नेह, घृत तैल, आदि के साथ क्वाथ करके वात-कफ में नाड़ी स्वेद देना चाहिए। ये ग्राम्य मांस आदि तीनों क्वाथ क्रम से वात जन्य, कफ जन्य और वातकफ जन्य रोगों में ‘जलकोष्ठक’ अर्थात इनके क्वाथों से भरे द्रोणोपात्र में खड़ा करके आदमी को स्वेद देवे। स्वेदन के लिए घी का कोठा (कोष्ठ) दूध का कोठा या तेल का कोठा भी बना लेना चाहिए।
उपनाह बिधि- गेंहू का दरकच चूर्ण, जौ का चूर्ण, कांजी, तेल, मद्यकिट के साथ मिलकर गरम करके उपनाह (पुटिलस) बांधना वातजन्य रोगों में उपकारी है। चन्दन अगरू आदि सुगन्धित पदार्थ म? पात्र में बैठै तलछट प्रक्षेप, जीवन्ती सौंफ, कफजन्य रोगों में इनकी पुटिलस लगावे। अलसी, कूठ और तैल से पुलटिस तैयार के, इसे वात-कफ रोगियों में प्रयोग करे दुर्गन्द रहित, वालों वाली एवं उष्ण वीर्य वाली खालों से लेप को बांध देना चाहिए। और जब ऐसे चमड़े न मिले तो रेशमी बस्त्रों से या उन से बने कम्बल से बांधना चाहिए। रात्रि में प्रलेप लगाकर बांधे हुए बन्धन को दिन में खोल देना चाहिए। दिन में बाधे बंधन को रात में खोल देना चाहिए। जिससे कि जलन उत्पन्न न हो। शीत (हेमन्त अैर शिशिर) काल में वंधी रहने में कोई डर नहीं दिन में बंधी पटटी रात भी रह जाय, तो कोई डर नहीं।
स्वेद कर्म के तेरह प्रकार हैं 1. संकर, 2. प्रस्तर 3. नाड़ी 4. परिषेक, 5. अवगाहन, 6. जेन्ताक 7. अश्मघन, 8. कर्ष, 9. कुटी, 10. भृ 11. कुम्भिक, 12. कूप, 13. होलाक ये तेरह प्रकार के स्वेद है। इन तेरह स्वेदों को क्रमशः कहते हैं।
(1) संकर स्वेद- तिल, माष आदि पदार्थों का पिण्ड बनाकर वस्त्र में लपेट कर अथवा बिना वस्त्र में लपेटे ही गरम करके स्वेदन कार्य करने का नाम ‘संकर स्वेद’ है।
2. प्रस्तर स्वेद- शूक धान्य (चावल गेंहू आदि) शमी धान्य (मूंग उड़द चना आदि) पुलाक, (चावल रहित धान्य पटास) वेसवार, पायस, (मावा, खोया) कृशरा, तिल उड़द, की बनी यवागू, उत्कारिका (उड़द की बनी पूरी या पूवा) आदि वस्तुओं को गरम करके पत्थर अथवा काष्ठ आदि कड़ी बस्तु पर फैलाये हुए) रेशम, कम्बल (उनी वस्त्र) को फैलाकर इन पर औषध लगा देवे। फिर शरीर पर स्नेह लगाकर इन पत्तों या वस्त्र पर सेट कर स्वेद लेने का नाम ‘प्रस्तरस्वेद’ है।
3. नाड़ी स्वेद- पहिले कहे हुए स्वेदन द्रव्यों के मूल, फल, पत्र और कोपल और पशु, पक्षी इनका मांस, सिर, पांव आदि उष्ण स्वभावयुक्त अथवा यथायोग्य अम्ल, लवण एवं स्नेह युक्त आठों प्रकार के मूत्र, गौर आदि के दूध और मस्तु को घड़े में बन्द बन्द करके इसके मुख को ढक्कन से बन्द कर दे फिर इस को गरम करे। इन घड़े में शर, ईषीक आदि से बनी नलिका (नली) को लगाकर इसके द्वारा वातहर तेल से स्निग्ध पुरूष को स्वेद देना चाहिए। नलिका को नली लगाकर इसके द्वारा वातहर तैल में स्निग्ध पुरूष को स्वेद देना चाहिए। नालिका का स्वरूप सरकण्डा का अगला भाग, पत्ता, बांस का पत्ता, करंज का पत्ता, आक का पत्ता इन में से किसी की नलिका बनाले। नली हाथी की सूड के समान उपर से मोटी नीचे पतली मुख पर से गोल हो, तथा व्याम अर्थात पुरूष के दोनों हाथ फैला लेने पर इस लम्बाई के बराबर लम्बी, अथवा आधे व्याम लम्बी, और जड़ से अग्र तक व्याम के चौथाई भाग घेर में व्याम लम्बी और जड़ से अग्र तक व्याम के चौथाई भाग घेर में वा व्याम का आठवा भाग होना चाहिए।और नाड़ी के चारो और जितने भी छेद हों उन सब को वातनाशक एरण्ड आदि के पत्तों से बन्द करके दो या तीन बा टेढ़ी घुमाकर पात्र के मुख में लगी हुई नलिका से वाष्प रोगी को देने चाहिए। दो तीन बार टेढ़ी मेढ़ी घुमाने से वाष्प उपर की ओर न जाकर प्रबल वेग से त्वचा की न जलता हुआ सूखपूर्वक स्वेदन करता है।
4. परिषेक स्वेद- वातनाशक एवं विशेष रूप से त्रिदोषनाशक द्रव्यों के मूल, फल, पत्र शुंग, आदि को सुखदायक क्वाथ जिसे शरीर सहन कर सके इतने गरम क्वाथ को सच्छिद्र वर्तन के ढक्कन में छेद रखकर जिससे वाष्प निकल सके, अथवा वर्तन में नाली लगाकर यथायोग्य स्नेह से स्निग्ध शीर वाले मनुष्य को कपड़ों में सम्पूर्ण रूप में ढांप कर देना चाहिए।
5. अवगाह स्वेद- वात नाशक द्रव्यों से क्वाथ, घी, तेल, मांस रस गरम पानी बनाकर कोठी लकड़ी का बना हुए बड़ा पात्र जिसमें मनुष्य बैठ सके उसमें बैठकर स्नान करना अवगाहन है।
6. जेन्ताक स्वेद- जेन्ताक स्वेद करने की इच्छा करने वाल वैद्य सब से प्रथम भूमि की परीक्षा करे। इसके लिए मनुष्य के निवास स्थान से पूर्व अथवा उत्तर दिशा में जो भूमि प्रदेश (वृक्ष आदि के उत्पन्न होने से) प्रशस्त एवं गुणवान तथा सुन्दर हो, काली मिटटी वाला या स्वर्ण (पीली मिटटी) का हो तालाब, पुष्करिणी, वावड़ी, अथवा बड़े तालब के दक्षिण या पश्चिम किनारे पर, जहां पर किनारे का अच्छा घाट बना हो, जहां भूमि उंची नीची न हो बिल्कुल समान हो (2) कूटागार निर्माण वहां से पानी से सात या आठ हाथ पीछे हटकर जलाशय के पश्चिम किनारे पर पूर्वा भिमुख अथवा जलाश के दक्षिण किनारे पर उत्तराभिमुख कूटागार बनाना चाहिए। यह कूटागार उंचाई में 16 हाथ और चौड़ाई में 16 हाथ चारो और से गोलाकार बहुत रोशनदानों वाला मिटटी से लिपा पुताकर तैयार करना चाहिए। इस घर के अन्दर दिचार के चारो ओर किवाड़ तक एक हाथ भर उंची चबूतरी बनानी चाहिए। मध्य में चारो ओर किवाड़ तक एक हाथ भर उंची चबूतरी बनानी चाहिए। मध्य में चार हाथ विस्तृत पुरूष के परिमाण की मिटटी से बनी कन्दूक आकार की बहुत सूक्ष्म छोटे-छोटे छिद्रों वाला अंगार कोष्ठ रूप स्तम्भ बनाये और इस का ढक्कन भी बनाये। (3) स्वेदन विधि- इस भाड़ को खैर, अश्वकर्ण (बड़े पत्तों वाला ढाक) की लकड़ियों से भरकर जला देवे। जिस समय जिस समय यह मालूम हो जाय कि लकड़िया भली प्रकार जल चुकीं, धुआं नहीं रहा, और घर भी आग से गरम हो गया है तथा पसीना देने की योग्यता वाली गरमी से युक्त है। तब वातहर तेल से स्निग्ध एवं वस्त्र से ढंके हुए पुरूष को इस घर में प्रवेश करावे। प्रवेश कराने से पूर्व उस को समझा दे कि हे सौम्य कल्याण मंगल और आरोग्यता के लिए इस घर में प्रवेश करो। इस घर में प्रविष्ठ होकर इस चबूतरे के उपर दक्षिण पार्श्व से, या वाम पार्श्व से जिससे चाही उस पाशर्व से जैसे आराम मिले वैसे सुखपूर्वक लेटो। परन्तु पसीने आने से उत्पन्न मूर्च्छा के कारण व्याकुल होने पर भी इस चबूतरे को प्राणों के रहने तक बिल्कुल मत छोड़े। क्योंकि इस चबूतरे पर से फिसलकर दरवाजे को न पाकर मूर्च्छा की व्याकुलता के कारण प्राण निकल जायेगें। इसलिए चबूतरे को बिल्कुल न छोड़ना। जिस समय कफ का जोर घट जाय, पसीना भी सब स्रोतों से भली प्रकार निकल जाय, सारे छिद्र खुल जायें, शरीर हल्का हो जाय, मल बन्ध, जड़ता, स्पर्श ज्ञान का अभाव, पीड़ा ओर भारीपन, शरीर में नहीं रहे, उस समय चबूतरे के साथ साथ चलकर दरवाजे के पास पंहुच जाना और बाहर निकल कर आंखों की रक्षा के लिए सहसार शीतल जल का प्रयोग न करना कुछ देर ठहर कर जब थकान और गरमी, शिथिलता दूर हा जाय तब थोड़े गरम पानी से इच्छानुसार स्नान करके भोजन करना।
7 अशमघन स्वेद बिधि- पुरूष लेट सके, इतनी बड़ी लम्बी, चौड़ी मजबूत पत्थर की बनी शिला को, वातनाशक (देवदारू या अगर आदि) लकड़ियां जलाकर गरम करे। गरम होने के पर सब अंगारों को दूर हटा दे, शिला पर गरम पानी छि़ड़क देवे जिससे उपर की गरमी बाहर हो जाय सब अंगों पर तेल का अभ्यंग करके मनुष्य सोता हुआ सूत का चादर, मृग चर्म रेशमी चादर कम्बल आदि भली प्रकार ओढ़कर सुख पूर्वक स्वित्र होता है। इस प्रकार अश्मघन श्वेद बता दिया गया है।
कर्षू स्वेद बिधि- स्थान के विभाग को जानने वाला बैद्य शैया के नीचे हाण्डी के आकर का एक गोल गढडा बनावे। इस गड्ढे को जलते हुए परन्तु धूम रहित अंगारों से भर दे। इस गडढे के उपर खाट बिछाकर लेटने से सुख पूर्वक पसीना आता है।
कुटी स्वेद विधि- न बहुत उंचा न बहुत चौड़ी गोलाकर रोशन दान रहित (जिसमें वायु के लिए छेद न हो) तथा मोटी दिवारों वाली कुटी बनाये। इस घर को अन्दर से कुष्ठ आदि उष्णवीर्य द्रव्यों से लेप देना चाहिए। इस लिए कुटी के बीच में वैद्य लम्बी, चौड़ी शैया बनाये। इस शैया के चारो ओर अंगारों से भरी अंगीठियां रख देवे। फिर व्याघ्र चर्म मृर्ग चर्म, रेशम कम्बल, चित्र विचित्र गरम बस्त्र शैया पर विछाकर लपेट लेने चाहिए। शरीर पर स्नेह लगाकर स्वेद लेना चाहिए। इस प्रकार सुख पूर्वक स्वेदन हो जाता है।
भू स्वेद विधि- जो बिधि अश्मघन स्वेद की है, वही भू स्वेद की है। इस स्वेद के लिए भूमि उत्तम, वायु रहित तथा समान हो उंची नीची नहीं होनी चाहिए।
कुम्भी स्वेद विधि- घड़े को वातहर देवदारू आदि क्वाथ से भर कर भूमि में आधा तिहाई भाग गाड़ देना चाहिए। इसके उपर एक खाट बिछा दे। खाट के उपर बहुत गहरा मोटा कपड़ा न बिछाना चाहिए। फिर लोहे के गोले, या पत्थरों को खूब गरम करके भूमि या गड़ी और वात हर क्वाथ से भरी कुभी में गिरा दे। इनकी गरमी से, शैया के उपर अंगों को लपेट कर लेटे हुए शरीर पर वातनाशक स्नेह का मर्दन किये हुए पुरूष को सुखपूर्वक स्वेदन होता है।
कूप स्वेद विधि- जितनी जगह पर खाट बिछती हो, उतने स्थान पर शैया के बराबर लम्बा, चौड़ा एक गड्ढा खोदे। इस गडढे की गहराई दुगन हो। इस कुएं को वायु रहित स्थान पर बनाये इस कुए को अन्दर भली प्रकार लेप कर साफ स्वच्छ कर लेना चाहिए। इस गर्त में हाथी, घोड़े आदि के शुष्क मल (गोटों को) डालकर जला देना चाहिए। जब धुआं निकलना बन्द हो जाय। तब इस कूप के उपर चारपाई बछाकर कोई वस्त्र इस पर बिछाकर, शरीर पर वातहर तैल मर्दन करके व्याघ्र चर्म मृगछाला, कम्बल आदि ओढ़कर लेने से सुखपूर्वक स्वेद हो जाता है।
होलाक स्वेद- हाथी, घोड़ा गाय, गधा, उंट इनके छानों (मल) को लम्बी परन्तु गोलाकार (घीतिका अर्थात चिता के रूप में) बनाकर जला देना चाहिए और जब यह चिता धूम रहित हो जाय, तब इस पर यथोक्त शैया आदि बिछाकर, वातहर तैल का मर्दन करके, उष्ण वस्त्र ओढ़कर सोने से सुखपूर्वक पसीना आता है। इस सुखकारक होलाकस्वेद है। ये तेरह प्रकार के स्वेद अग्नि के अधीन है, इनका महर्षि ने उपदेश किया है।
अग्नि रहित स्वेद-व्यायाम उष्ण सदन (वायु और शीत स्पर्श रहित तहखाना भूमि के नीचे गरम घर) कम्बल आदि भारी वस्त्र, क्षुधा, बहुपान, (गरम पानी या पद्य आदि का बहुत पीना) भय, क्रोध, उपनाह, (पुटिल्स) युद्ध आतप (धूप) ये दस अग्नि के बिना भी शरीर में स्वेदन करते हैं।
इस प्रकार से दो प्रकार की स्वेद कह दिया, अग्नि गुण वाला और अग्नि गुण रहित एकांग और सर्वोग स्वेद, स्निग्ध एवं रूक्ष स्वेद, इस प्रकार तीन प्रकार के दो-दो स्वेदों को कह दिया, स्निग्ध मनुष्य की स्वेद द्वारा चिकित्सा करनी चाहिए। स्वेदन हो जाने पर पथ्य भोजन करना चाहिए। स्वेद दिया मनुष्य उस दिन व्यायाम को न करे।
किस प्रकार से स्वेद कार्य कर सकता है, किनके लिए उपकारी है, किस प्रकार, किस स्थान पर, कैसा स्थान, किस प्रकार रक्षा करनी, सम्यक स्विच, अति स्वेद के लक्षण, अति स्वेद की चिकित्सा स्वेद, के अयोग्य काटर स्वेद के योग्य स्वेदन द्रव्य तेरह प्रकर का स्ेवद आथ्र बना अग्नि के दस प्रकार का स्वेद, संक्ष्ेप रूप में छः स्वेद ये सब स्वदाध्याय में कह दिया। स्वेद अधिकर में जो कुछ कहना चाहिए था वह सब महर्षि ने कह दिया है। शिष्यों को ठीक-ठीक प्रकर समझना चाहिए। इसके उपदेश करने वाले पुनर्वसु आत्रेय हैं।
पंचदशोध्यायः
अब उप कल्पनीय अध्याय का व्याख्यान करेगें। ऐसा भगवान आत्रेय ने कहा था।
इस लोक में राजा अथवा राजा के समान ठाठ वाले पुरूष को या बहुत धन और नौकर चाकरों वाले किसी रईस को वमन, विरेचन देने की इच्छा करने वैद्य को चाहिए कि औषध पिलाने से पूर्व ही सब आवश्यक बस्तुएं अपने पास एकत्र कर ले। क्योंकि यदि औषध ठीक प्रकर से काम कर गयी तो ये वस्तुएं फिर काम में आ जायेगी और यदि प्रयोग से कुछ तकलीफ हो गयी तो इनकी सहायता से प्रतिकार किया जा सकेगा। और यदि सब आवश्यक उपकरणों को समीप में न रक्खा जाय तो उपद्रव हो जाने पर, तुरन्त बाजार से खरीद कर सब बस्तुओं को लाना भी उतना सरल नहीं होता जितना कि प्रथम से ही सब बस्तुओं का संग्रह करना सरल है।
ऐसा कहते हुए भवान आत्रेय को अग्निवेश बोले-भगवन् ज्ञानवान वैद्य को चाहिए कि वह संशाधन देने से पूर्व रोगी के बल, आयु, क्रिया, सहनशक्ति, देश, काल, दोष का बलाबल, प्रकृति, आदि बातों का विचार करके योग्य मात्रा में औषधि पिलाये। जिससे कि औषध देने पर वह औषधि निश्चय ही गुणकारी सफल हो। क्योंकि सब कार्यों को भली प्रकार उचित रीति से करने पर सफलता अवश्य होती है। अनुचित रीति से करने पर आपत्यिों का होना भी निश्चिित है और यदि ज्ञानपूर्वक किया हुआ कर्म उचित या अनुचित रूप से करने पर कभी सिद्ध हो जाता है, और कभी सिद्ध नहीं होता, तो ज्ञान आज्ञान के समान ही है। पढ़ना न पढ़ना बराबर हो जाता है।
अग्निवेश को भगवान आत्रेय ने कहा- हे अग्निवेश औषध देने पर निश्चय रूप से सफल हो, ऐसा औषधोपचार करना हम या हम जैसे तपोबल द्वारा रजस, तमस से निर्मुक्त हुए पुरूषों से ही सम्भव है और इस प्रयोग की सफलता को पूरे पूरे रूप से उपदेश करने के लिए कोई तैयार नहीं। इसी प्रकार ऐसा भी कोई शिष्य नहीं है जो कि इस प्रयोग को यथावत रूप में जान सके और जानकर प्रयोग ठीक ठीक प्रकार से कर सके। ऐसा भी कोई आदमी नहीं है। क्योंकि प्रत्येक पुरूष में दोष, औषध, देश समय, बल, शरीर, भोजन, सात्म्य, सत्व, प्रकृति और आयु इनकी स्थिति प्रतिक्षण बदलती रहती है। इन दोष आदि की सूक्ष्म विवेचना निर्मल एवं विशाल बुद्धि वाले पुरूष की भी बुद्धि को चकरा देते हैं। फिर अल्प बुिद्ध वाले मनुष्या का तो कहना ही क्या? इसलिए थोडी बुद्धि वाले मनुष्य की बुद्धि को व्याकुल करने के कारण दोनों वाले अर्थात औषधियों का उचित प्रयोग और औषध प्रयोग के मिथ्यायोग से उत्पन्न आपत्तियों को सिद्धि स्थान में कहेगें।
इस आध्याय में संशोधन के उपायेगी नाना प्रकार के उपकरणों का संक्षेप से उपदेश करेगें। सबसे पहले मकान बनाने की विद्या (स्थापत्य कर्म या वास्तु विद्या) का जानने वाला चतुर शिल्पी ऐसा गृह बनाये जो मजबूत हो, जिसमें खुली वायु सामने से न आकर एक पार्श्व से पर्याप्त मात्रा में आ सके। जिसमें रोगी आराम से घूम फिर सके, पहाड़ की तराई या पहाड़ पर न बना हो, धुआं, गरमी, धूप और धूल जिसमें न आ सके, मन को अच्छे न लगने वाले शब्द, स्पर्श रूप रस और गन्ध जहां पर न जा सके, पानी का घड़ा उखल मूसल मल त्याग का स्थान, स्नान घर, रसोई पाकशाला साथ हो।
इसके उपरान्त पवित्र शुद्ध स्वभा, निर्मल, आचरण के रोगी से प्रेम रखने वाले, कर्मकुशल, सेवा कर्म में दक्ष, अपने अपने कर्म में कुशल शिक्षित रसोई बनाने में होशियार रसोइये, स्नान कराने वाले, हाथ पांव मलने वाले, शरीर को पकड़ थाम कर खड़ा करने वाले बिठाने वाले, औषध दवाई पीसने वाले, सब कार्यों में अनुकूल नौकर, गाने बजाने में चतुर, स्तुति पाठ करने वाले, श्लोक, गाथा, कहानी, आख्यायिका, बातचीत इतिहास, पुराण आदि सुनाने वाले, अभिप्रयों, को उसके इशारों से पहिचानने वाले, मालिक के मन के अनुकूल देश, काल को समझने वाले यार दोस्त, सोसायटी के आदमी वहा रहने चाहिए। इसी प्रकार वटेर, कवड़ा खरगोश हरिण काला हरिण काल पुच्छ मृगमातृका, और भेढ़ा इन को भी एकत्र करना चाहिए। दूध देने वाली अच्छे शान्त स्वभाव की रोग रहित जिसका बछड़ा जीता हो, ऐसी गाय रक्खे। इस गाय के लिए रहने, घास पानी और अच्छा बन्दोवस्त करे, छोटा पात्र आचमन का पात्र, पानी रखने का बड़ा पात्र मणिक घड़ा थाली, कढ़ाही, बड़ा घड़ा मजबूत छोटा कलशा, कूड़ा गहरा बर्तन, सकोरा, ढक्कन, कड़छी, चटाई, ढाकने का ऊपर का ढक्कन, तेल पकाने की कड़ाही, रई (मथानी) मृगछाल, पुराने (परन्तु साफ धुले) वस्त्र, सूत कपास, रूई, उन, तथा लेटने या बैठने के साधनों (खाट, तकिया, आसन) के पास में पानी बरतने का गंगासागर, पीकदान, और सुन्दर सफेद चाहनी की भांति श्वेत चादर और तकिया, लगा पलंग, सूख पूर्वक बैठने के लिए गादी, तकिया या आराम कुर्सी, एवं स्नेहन, स्वेदन, अभ्यंग, पलेप, स्नान, अनुलेपन, वमन, विरेचन, आस्थापन, अनुवासन, शिरोविरेचन, मूत्र त्याग का स्थान, मल त्याग का स्थान, उत्तम एवं सुखकरण तथा साधनयुक्त बनावे। स्वच्छ धुली, चिकनी, खुरदुरी, मध्यम रूप की पथर की शिला, एवं कैंची, फावड़ा गण्डासा दरांती, आदि शस्त्र ये सब पदार्थ एकत्र करे। धूमनेत्र, धूमनलिका, और उत्तर वस्ति का नलिका, बुहारनी, तराजू, द्रव मापने के लिए पात्र, घी, तैल, वसा, मज्जा, मधु, राब, नमक, ईधन, पानी, मधु सीधु, सुरा, कांजी, तुषोदक, मैरे, मेदक, दही, दही का पानी, छाछ, धान्य, कांजी, आठो प्रकार के मूत्र शलि (हेमन्त धान,) साठी चावल, मूंग, उड़द, जौ, तिल, कुल्थी, बैर, किसमिश, फालसा, हरण, आंवला, बहेड़ा, और नाना प्रकार के स्नेह एवं स्वेदन के साधन, वमन, विरेचन के पदार्थ, संग्रहणीय, दीपनीय, पाचनीय, शामक, वातनाशक गुण की औषधियां, तथा इनके अतिरिक्त और भी जो साधन या द्रव्य आपत्तियों को दूर करने वाले हों, उनकी ओर जो उपयोग के लिए आवश्यक प्रतीत हो, उन सबको एकत्र करना चाहिए।
साधन द्रव्य एकत्र करने के उपरान्त पुरूष को पहिले कही हुई विधि से स्नेह एवं स्वेदन करनी चाहिए। स्नेहन और स्वेदन क्रिया करते हुए बीच में यदि सहसा कोई भयानक तीव्र, शारीरिक या मानसिक व्याधि उत्पन्न हो जाय तो स्नेहन और स्वेदन बन्द करके प्रथम उत्पन्न व्याधि का प्रतीकार करना चाहिए। इस उपस्थित राकग के प्रतीकार में तिने दिन लगें, उतने दिनों तक रोग को आराम करना चाहिए।
फिर मनुष्य को स्नेह एवं स्वेदन क्रिया से युक्त कराकर, सुखपूर्वक बिठाकर पहिले दिन का खाया हुआ भोजन जीर्ण होने पर, सम्पूर्ण अंगों का स्नान कराके शरीर पर चन्दन, अगरू आदि द्रव्य लगाकर, माला पहिनाकर, उत्तम स्वच्छ वस्त्र पहिने हुए, देवता, ब्राहम्ण गुरू, वृद्ध और वैद्य की पूजा कराकर, पुण्य नक्षत्र तिथि मुहूर्त में ब्राहम्णों से मंगल पाठ कराव कर, पशस्त मंगल किया आर्वाद मंत्रों से अभिमत्रित शहद, मुलेहठी, सैन्धव नमक, गुण से युक्त मदनफल के कषाय को उचित मात्रा में पिलावे।
मदन फल के कषाय की मात्रा, तथा सम्पूर्ण संशोधनों की मात्रा प्रत्येक पुरूष को देखकर निश्चित की जाती है। जितनी मात्रा पान करने पर शरीर के विकार जन्य दोषों को बाहर निकाल सके और अतियोग आदि विकास उत्पन्न न करे, उतनी इस संशोधन औषध की मात्रा वैद्य को समझनी चाहिए।
उचित मात्रा में वमन औषध पिलाकर कुछ काल तक एकाग्र चित्त से ध्यानावस्थित होकर प्रतीक्षा करे और जब पसीना उत्पन्न होकर दोष निकल जावे, शरीर में रोमांच हो तब दोष को अपने स्थान से चलायमान समझे। जब वमन की अच्छा, और मुख से थूक गिरने लगे उस समय दोष को एकत्र होकर ऊपर की ओर आता हुआ जानना चाहिए। इसके पीछे रोगी मनुष्य को घुटने उठाकर मिलाकर, बैठने को उत्तम गददे और चादर तथा तकिये से युक्त खाट देवे। वमन करते हुए रोगी को पकड़कर सहारा देना चाहिए। इसके लिए कोई माथे को कोई पसलियों को पकड़े, कोई पेट को दबाये, और कोई पीठ को मले इस कार्य में जिनके सामने लम्बा अनुभव हो ऐसे मनोनुकूल मित्र सहायता करे।
इसके अनन्तर वैद्य रोगी को उदेश दे कि तालु और गला खोलकर बहुत अधिक बल से नहीं, त्रत्युत साधारण शक्ति से बाहर आते हुए वेग को बाहर के। इसके लिए गर्दन, तथा मुख को आगे की ओर झुका दे तथा अनुपस्थित वेग को बाहर निकालने के लिए खूब अच्छी प्रकार से नखों से रहित दो अंगुलियों, अथवा कमल, कुमुद या सुगन्धित कमल की डण्डों से धीरे-धीरे गले के भीतर स्पर्श करें और वेग को बाहर कर देवे। रोगी वैद्य के अनुसार करे। वैद्य रोगी के वमन किये पदार्थ को सावधानी से देखे। कुशल, चतुर वैद्य वेग को देख कर ही सम्यक योग, अयोग और अतियोग का अनुमान कर सकता है। वेग को समझने में चतुर वैद्य वेग देखकर लक्षणों से अतियोग आदि के प्रतिकार को ठकी प्रकार से समझ लेता है। इसलिए वैद्य सावधानी से वगेों को देखे।
अयोग, सम्यक योग और अतियोग के विशेष लक्षण ये हैं। जैसे किसी विशेष कारण से ( गले में अंगुली आदि डालने से भी वमन का थोडा आना अथवा, वमनकारक औषध ही केवल बाहर आना) वेगों का रूक जाना ये अयोग के चिन्ह हैं। न तो बहुत जल्दी न तो बहुत देर में ठीक समय पर वमन का आना, वमन करने में कष्ट का अधिक न होना, क्रम से पहले कफ, फिर पित्त और अम्ल में वायु इन दोषों का बाहर आना, और वमन का अपने आप रूक जाना सम्यक योग के लक्षण हैं। सम्यक योग में दोषों के प्रमाणों के अनुसार तीक्ष्ण, मृदु और मध्य भाग होते हैं। वमन के अतियोग से झाागदार, रक्त मिश्रित, चन्द्रिका का आना ये अतियोग के लक्षण हैं। अतियोग और अयोग से होने वाले उपद्रवों को जानना चाहिए।अफारा, गुदा में काटने के समान पीड़ा होना, स्राव, हृदय का बाहर आना अर्थात कलेजे का मुख को आना, (आमाशय का बाहर आना सा प्रतीत होना) अंगों में वेदना और जकड़ना, रक्त का बाहर निकलना, शरीर का विभ्रम (चक्कर आना) शरीर की जड़ता, शरीर में थकान, उदासी का होना, ये अयोग और अतियोग के उपद्रव है।
सम्यक योग से वमन कर चुकने पर रोगी को देखकर उसके हाथ पांव, मुख धुलवाकर थोड़ी देर विश्राम लेने दे। इसके पीछे स्नेहिक, वैरेचनिक या उपशमनीय कोई एक प्रकार का धूम यथाशक्ति पिलाकर फिर प ानी से हाथ पांव धुला देवें। पानी से मुंह हाथ धुलकर वमन किये पुरूष को वायुरहित सीधी वायु जिसमें न आ सके, एक पार्श्व से आये, ऐसे घर में ले जा कर लेटा दे और निम्न आदेश करे। ऊंचा बोलना, बहुत देर बैठना, बहुत सोना, बहुत चलना फिरना, क्रोध, शोक ठण्डक धूप, ओस, वायु में अधिक बैठना, घोड़े आदि की सवारी अधिक करना, मैथुन, रात में जागना, दिन में सोना, विरूद्ध भोजन अजीर्ण, असात्म्य प्रकृति के प्रतिकूल, अकाल, कुसमय, मात्रा से कम, गुरू-भारी, और विषम भोजन, उपस्थित वेगों को रोकना, अनुपस्थित वेगों को बल पूर्वक बाहर करना, इस प्रकार के कर्मों का विचार मन से भी न करे और सब प्रकार का उचित आहार भोजन करे। वह रोगी इसी प्रकार करे।
इसके पीछे रोगी को सांयंकाल अथवा अगले दिन कुछ गरम पानी से सम्पूर्ण अंगों का स्नान कराये। एक साल पुरानी साठी चावल का यावागू बनाकर जब गल जावे, तब थोड़ी के उपर की मांण्ड को पहिले पी ले। फिर अग्नि का बल देखकर शेष गाढ़े भाग को खावे। इस प्रकार दूसरे तीसरे भोजन के समय भी अग्निबल को देखकर इसी प्रकार का यवागू खाय। चैथे भोजन काल में इसी प्रकार पुराने साठी चावलों से विलेपी रूप में बनयी थोड़े नमक और स्नेह रहित यवागू को गरम पानी के साथ खाये। (प्रथम दो तीन समयों में जल, नमक और स्नेह नहीं खाना चाहिए।) इस प्रकार पांचवे और छठे अन्नकाल में चौथे समय के अनुसार बरतें। सातवों भोजन समय में पुराने साठी चावलों को दो प्रसूति लेकर पकायें। इन चावलों को गरम पानी के सथ थोड़े से घी एवं नमक के साथ मूंग के यूप के साथ खायें। इसी प्रकार आठवें और नवें भोजन के समय में भी करे। इसी प्रकार ग्यारहवें और बारहवें अन्नकाल में क्रम से मृदु मध्य, कठिन (अथवा गुरू, कठिन मधुर) पदार्थों को सेवन करने पर सात दिन पीछे अपने स्वाभाविक भोजन को ग्रहण करें।
इसके सात दिन पीछे जब मनुष्य में बल आ जाय तब फिर भोजन और स्वेदन कर्म करके, प्रसन्न मन देखकर, रात्रि में सुखपूर्वक सोने पर, पहिले दिन का खाया हुआ भोजन भली प्रकार जीर्ण होने पर, अग्निहोत्र, बलि, मंगल जप, प्रायश्चित, करके, पवित्र तिथि, नक्षत्र मुहूर्त का विचार करके, ब्राहम्णों से मंगल पाठ कराकर त्रिवृत कल्क (विरेचन द्रव्य) निशोथ के चूर्ण की एक अक्ष मात्रा, योग्य द्रव्य मिलाकर पिलावे। औषध देते समय दोष, औषध मात्रा, देश, समय, शरीर आहार, सात्म्य, सत्व, प्रवृत्ति आयु, और रोगी की विवेचना कर ले। सम्यक विरेचन होने पर वमन के पीछे की सम्पूर्ण विधि करे। जब तक कि शरीर में बल कान्ति न आय। शरीर स्वाभाविक रूप में न आय, तब तक वमनान्तर की विधि करे। जब बल और आ जाय, मन भी स्वस्थ हो जाय, तब सुखपूर्वक सुलाकर, खाया हुआ भोजन भली प्रकार पचने पर, सम्पूर्ण अंगों का स्नान कराके चन्दन, अगर आदि से शरीर में मलकर, माला, स्वच्छ वस्त्र पहिनाकर, सुन्दर बनाकर, आभूषणों से आभूषित करके, मित्रों को दिखाकर, जाति, भाई बन्धुओं को दिखावे और नित्य उचित आहार बिहार करने की छूट दे दे। इस उपरोक्त विधि से राजा अथवा राजा के समान या बहुत धनी आदमी हो सशोधन हो करवा सकता है। दरिद्र निर्धन व्यक्ति को जब रोग हो जाय और विरेचन लेने आ अवसर हो, तो उस समय कठिन उपकरणों को इकटठा करना छोड़कर दवाई पान करावे। सब मनुष्यों को सब साधन नहीं जुट सकते और निर्धन व्यक्तियों को भयंकर रोग भी नहीं सताते ऐसा नहीं, आपत्ति काल (रोगावस्था) में मनुष्य जो भी औषध, वस्त्र या खान पान कर सके, वह यथाशक्ति उसक करना चाहिए। मल नाशक, रोग नाशक, बल, कान्ति, को बढ़ाने वाले संशोधन, औषध को पीकर मनुष्य दीर्घायु होता है।
इस शलोक में राजाओं के या धनी पुरूषों के वमन, विरेचन कर्म, उपकरण, इनको एकत्र करने का कारण, मात्रा, प्रयोग विधि, अयोग के लक्षण, योग और अतियोग, के दोष, और उपद्रव, सशुद्ध व्यक्ति को क्या सेवन करना, जिस प्रकार से छोड़ना, ये सब बातें इस ‘‘कल्नाध्याय’’ में पुनवर्सु आत्रेय ने कह दी।
षोडशोध्यायः
संशोधन कार्य के अनन्तर ‘चिकित्सा प्राभृतीय’ नामक अध्याय का व्याख्यान करेगें जैसा भगवान आत्रेय ने कहा था-
चिकित्सा प्राभृत चिकित्सा में कुशल या साधन सम्पन्न विद्वान, ज्ञानवान, शास्त्रवान, आयुर्वेद शास्त्र का अध्ययन किया हुआ, चिकित्सा कार्य में कुशल वैद्य जिस मनुष्य को वमन, विरेचन द्वारा संशोधन कराता है, वह मनुष्य मवन और विरेचन के समयक योग से सुख भोगता है। अपने को वैद्य मानने वाला मूर्ख वैद्य जिस मनुष्य का वमन विरेचन द्वारा संशोधन कराना है वह मनुष्य ममन विरेचन के अयोग या अतियोग के कारण दुख भोगता है।
सम्यक विरेचन के लक्षण-शरीर में कमजोरी आना, हल्कापन, शरीर में ग्लानि (प्रसन्नता का अभाव) रोगों का घटना, भोजन में अनिच्छा, हृदय का शुद्ध होना, रंगा का निखरना, भूख प्यास, समय पर वेगों का उपस्थित होना, बुद्धि इन्द्रिय और मन की शुद्धता, प्रसन्नता, आपान वायु का नीचे को जाना, और जाठराग्नि का क्रमशः बढ़ना ये सम्यक योग के लक्षण हैं।
विरेचन के अयोग के लक्षण-मुख से थोड़ा थूक या औषध का बाहर आना, हृदय की जड़ता, वमन आने की भांति कफ और पित्त का मुख में आना, पेट में अफारा, भोजन में अनिच्छा, वमन की इच्छा, शरीर में निर्बलता, का अनुभव न होना, शरीर में भारीपन, जांघ और टांग में पीड़ा नीद का भान, शरीर के अंगों का गीले वस्त्र के तुल्य ठंडा प्रतीत होना, सरदी, जुकाम, होना, और आपान वायु का रूक जाना, ये विरेचन के अयोग के लक्षण है।
विरेचन के अतियोग लक्षणः- गुदा से प्रथम क्रमानुसार मल, पित्त, कफ और वायु बाहर निकलते हैं। परन्तु पीछे रक्त बहता है। यह रक्त मांसरस, मेद मिश्रित या कफ मिश्रित अथवा पित्त मिश्रित पानी की भांति, या लाल अथवा काला होता है। रोगी को वायु के कारण प्यास और मूर्छा आ जाती है, ये अतियोग के लक्षण हैं।
वमतन के अतियोग में भी यही विरेचन के अतियोग के लक्षण होते हैं। परन्तु शरीर के कटभाग से ऊपर वातरोग एवं जबान का रूकना, ये लक्षण विशेष अधिक होते हैं। इसलिए संशोधन कराने वाले मनुष्य को चाहिए कि विद्वान, कर्मकुशल वैद्य की शरण में जाय जो इस रोगी को वमन विरेचन द्वारा आयु और सुख से युक्त कर सके, मूढ़ अज्ञानी के पास नहीं।
संशोधन योग्य व्यक्ति- अपचन, अरूचि, मोटापा, पाण्डुता, निस्तेज, पीलापन, शरीर का भारीपन, बिना परिश्रम के थकान चढ़ना, उदासी, शरीर पर छोटी-छोटी फन्सियां कोठ उठना, खाज का होना, बेचैनी, आलस्य, थकान, निर्बलता, शरीर से दुर्गन्ध आना, मन को अवसन्नता, सुस्ती, कफ या पित्त का बढ़ना, नीद का न आना, अथवा नींद क बहुत आना, नपुसंकता, निरूत्साहता, बुद्धि मान्द्य बुरे भयानक स्वप्नों का आना, बल और कान्ति का नाश होना, पुष्टिकारक आहार खाने पर भी शरीर का पुष्ट न होना, जिसके शरीर में इनमें से बहुत से लक्षण हो तो उनमें सब दोष बढ़े हैं। यह समझकर संशोधन करना हितकारी है। इसलिए अविपाक आदि लक्षणों को देखकर बल और दोष के अनुसार उर्ध्व अनुलोमन (वमन) सर अधो-अनुलोमन (विरेचन) रूपी संशोधन देना हितकारी है।
संशोधन का फल- इस उपरोक्त विधि से मनुष्य कोष्ट(उदर) साफ होने पर जठराग्नि बढ़ जाती है, रोग शान्त हो जाते है, शरीर स्वाभाविक अवस्था में आ जाता है। इन्द्रियां मन बुद्धि और कान्ति निर्मल हो जाती है। शरीर में बल, शक्ति, संतान और पुरूषत्व उत्पन्न हो जाता है। बुढ़ापा देर में आता है और नीरोगी होकर मनुष्य देर तक जीता है। इसलिए मनुष्य दोष संचयकाल में और संशोधन काल में वमन विरेचन कार्य को युक्तियुक्त रूप में करे। लंघन (उपवास) और पाचन रूपी संशमन क्रिया द्वारा वश में किये हुए दोष कभी फिर भी (समय मिलने पर) कुनित हो सकते हैं। परन्तु जो दोष संशोधन कार्य के द्वारा वश में कर लिए जाते है, वे फिर कभी भी उत्पन्न नहीं हो सकते। क्योंकि दोषों या वृक्षों का मूल अवशेष रहने पर रोगों अथवा न नष्ट होने पर रोगों की उत्पति फिर हो जानी सम्भव होती है। औषध द्वारा दोष की जड़ कट जाने पर संशुद्ध हुए पुरूष को पथ्यकारक एवं शरीर को बढ़ाने वाले भोजन देवे। यथा घी, दूध, हृदय के लिए हितकारी या मन को अच्छे लगने वाले यूप आदि बनाकर देवे। शरीर पर तेल मलना, उबटन लगाना, स्नान, निरूह वस्ति अनुवासन वस्ति का प्रयोग करे। इस प्रकार करने से सुख मिलता है तथा देर तक आयु भोगता है।
अतियोग होने पर क्या करना चाहिए?
जिन पुरूषों में अतियोग के लक्षण हों, उनके लिए उन-उन रोगों को शान्त करने वाली उन औषधियों से सिद्ध किया हुआ घृत पान करावे और मधुक अर्थात जीवनीयगण से सिद्धा किया तेल अनुवासन वस्ति के रूप में दे।जिस पुरूष में अयोग के लक्षण हो, उसको निरन्तर फिर से स्नेह और स्वेद देकर, पूर्व कही हुई मात्रा को समय बल अदि को क्रम से स्मरण करता हुआ, फिर से संशोधन के लिए देवे। स्नेहन, स्वेदन संशोधन और पेयादि क्रम से विधिपूर्वक क्रिया न होने से जो रोग उत्पन्न हो जाते हैं उनकी चिकित्सा ‘सिद्धस्थान’’ में कहेगें। पहले जो मात्रा दी थी दुबारा उससे कुछ अधिक देवें।
शरीर को धारण करने वाले जो धातु हैं वे कारणों की विषमता अर्थात बढ़ने या घटने से बढ़ते या घटते हैं और शरीर के धातु कारण की समानता से समान रहा करते हैं। विषम और सम धातुओं का सदा स्वभाव से नाश होता है। इस समता और विषमता की निरन्तर प्रवृति में ऐसा कारण रहता हैजिससे कि उनका वृद्धि और क्षय होता है, अर्थात साम्य या विषमता के होने में कोई कारण अवश्य होता है। बिना कारण के स्वभाविक धर्म में अन्तर नहीं आता। धातु एक क्षण भी विषमावस्था में नहीं रह सकते। यह उनका धर्म है। सब पदार्थों की उत्पत्ति का कारण होता है, परन्तु विनाश कार्य में कारण नहीं होता है। इसलिए कुछ आचार्य पदार्थों के निरन्तर विनाश में कारण की अपेक्षा नहीं करते है। कुछ विद्वान पदार्थों के नाश में उत्पादक या प्रवर्तक कारण के आभाव को ही कारण मानते हैं।
इस प्रकार कहते हुए आचार्य पुनर्वसु को लक्ष्य करके अग्निवेश बोले- भगवन्! शरीर की धातुए जब स्वतः अपने स्वभाव में आ जाती हैं तब चिकित्सा साधानों से सम्पन्न वैद्य से कर्म साध्य क्या है? फिर क्या काम है? और तब किन विषम हुए धातुओं को औषधियों से वैद्य समान करता है? और यदि धातुओं की विष्ज्ञमता ही सदा रहे तब चिकित्सा क्या वस्तु है? और यदि विषमता का नाश सदा ही रहे, तब चिकित्सा क्या वस्तु है? और यदि विषमता का नाश सदा होना ही अवश्यम्भावी है, फिर वैद्य किस लिए चिकित्सा कर्म करते हैं? इस प्रकार अग्निवेश के बचन को सुनकर पुनर्वसु आत्रेय बोले-
शीत काल के नाश के कारण की तरह नाश के कारण के आभाव से पदार्थों के नाश का कारण नहीं जाना जाता। कोई भी पदार्थ जैसा उत्पन्न होता है, वैसा ही शीध्रगामी होने से नष्ट होता है। उनके विनाश में कोई कारण नहीं है। उनमें किसी संस्कार का आद्यान नहीं किया जा सकता। पदार्थों के नाश होने के कारण का पता नहीं चलता। क्योंकि नाश के कारण का ही आभाव है। जैसे नित्य काल का भी नाश होता दिखाई देता है, परन्तु इस नाश के कारण का पता नहीं चलता, क्योंकि यह काल बहुत शीघ्रगामी होता है। धातु-पदार्थ भी काल के समान बहुत शीघ्रगामी है, इसलिए इनके नाश का कारण न होने से ही अज्ञात है। धातुओं की पूर्वावस्था के निरोध में भी कोई कारण नहीं है। जिन क्रियाओं के द्वारा शरीर के अन्दर विषम हुए धातु समानवस्था में आते उन क्रियाओं के रोगों की चिकित्सा कहते हें। यह चिकित्सा वैद्यों का कर्म है। शरीर के अन्दर धातुओं की विषमता उत्पन्न न हो और समान अवस्था में धातु सदा बना रहे, इसलिए चिकित्सा क्रिया की जाती है। काल, बुद्धि इन्द्रियथों के अतियोग, अयोग व मिथ्यायोग इन विषम हेतुओं को छोड़ने से, समयोग रूप में कारणें के सेवन करने से धातु विषम नहीं होते, और विषम हुए धातु समान हो जाते हैं। चिकित्सा कुशल वैद्य समान कारणों से धातुओं को समान बनाने का करें। इस प्रकार करने से वैद्य शरीर के सुख और आयुष्य अर्थात दीर्घायु को प्रदान करता है। मनुष्य को शारीरिक सुख और आयुष्य प्रदान करने से वैद्य इहलोक एवं परलोक दोनों लोकों में धर्म, अर्थ, और काम त्रिवर्ग को देने वाला होता है।
चिकित्सा प्राभृत में वैद्य के गुण, वैद्य के विपरीत के अवगुण संशोधन के सम्यकयोग और अतियोग के के लक्षण, बहुत दोषों के लक्षण, संशोधन के गुण चिकित्सा का सूत्र रूप, चिकित्सा के युक्तियुक्त होने में शंका समाधान, चिकित्सा का प्रयोजन ये सब बातें ‘चिकित्सा-प्राभृतीय’ अध्याय में आत्रेय ऋिषि ने उपदेश की है।
सप्तदशोध्यायः
अब रोगों को उपदेश करने की इच्छा से ‘कियन्तःशिरसीयं’’ नाम अध्याय का व्याख्यान करेगें, जैसा भगवान आत्रेय ने कहा था।
अग्निेवेश ने पूछा कि हे दोषों को नाश करने वाले महर्षि मनुष्यों के शिर सम्बन्धी रोग कितने हैं? हृदय सम्बन्धी रोग कितने है? वात आदि दोषों के संसर्ग भेद से कुछ कितने प्रकार के के रोग हो जाते है? क्षय रोग कितने प्रकार के हैं? पिड़कायें कितनी प्रकार ही है? और दोषों की गाति कितने प्रकार ही है? कृपा कर कहिए।
अग्निवेश के बचन सुनकर गुरू महाराज बोले- हे सौम्य जो कुछ तुमने पूछा है उसको यान देकर सवित्तर सुनों। शिर के रोग पांच प्रकार के होते हैं, और पांच ही प्रकार के हृदय रोग हैं। दोषों के वात पित्त कफ के परिमण से होने वाले रोग बासठ (62) प्रकार है हैं। क्षय अटठारह प्रकार के, प्रमेह मधुमेह के कारण होने वाले फोड़े सात प्रकार के, और दोषों की गति तीन प्रकार की है। इसी को अब विस्तार से सुनो। मूत्र आदि के उपस्थित वेगों को रोकने से, दिन में सोने से रात्रि में जागने से, नशा करने (मदकारक पदार्थों के सेवन) से उंचे या अधिक बोलने से, ओस से, सामने की वायु के झोके से, अति स्त्री संभोग से, असात्म्य अर्थात प्रतिकूल, गंध के सूंधने से, धूल धुआ वर्फ या धूप के सेवन से, गरिष्ठ, खटटे, धनिया, मरिच आदि के अधिक खाने से बहुत ठण्डे पानी के सेवन से, शिर पर चोट लगने से, आम के दोष युक्त होने से (अजीर्ण होने से ) रोने से, आंसुओं को रोकने से, बादलों के आने से, मानसिक विक्षोभ से, देश-काल के बदलने से (इनके अयोग अतियोग मिथ्यायोग होने से) ( अथवा भूकम्प, उल्कापात आदि देश के मिथ्यायोग हैं इनमें वात, पित्त और कफ दूषित होकर शिर में रक्त दूषित करते हैं। रक्त से दूषित होने से आगे कहे जाने वाले नाना प्रकार के लक्षणों वाले रोग शिर में उत्पन्न होते है।।
प्राणा धारियों के प्राण (जीवन) सब इन्द्रियां (ज्ञानेन्द्रियां) जहां पर स्थित है और जो शरीर के सब अंगों में मुख्य, श्रेष्ठ अंग है, उसको ‘शिर’ कहते हैं।
शिर में उत्पन्न होने वाले रोग-आधे शिर का दुखना, पूरे सिर का दुखना, सारे शिर का दुखना, प्रतिशयाय (सर्दी जुकाम) मुखरोग, नासिका के रोग, आंख के रोग, सिर में चक्कर आना, चेहरे का लकवा, शिर का हिलना, गलग्रह (गने का बन्द होना) मन्याग्रह (गर्दन का इधर उधर न मुड़ सकना) हनुग्रह (जबाड़ों का भिचना) और दूसरे वात आदि दोषों तथा कृमियों से उत्पन्न होने वाले रोग शिर में होते हैं। वात, पित्त, कफ सन्निपात और कृमिजन्य ये जो पांच प्रकार के शिरोरोग (आगे जो अष्टोदरीय अध्याय 19 में ) में महर्षियों ने कहे हैं उनमें एक एक लक्षण सुनो।
ऊंचे बोलने से, बहुत अधिक बोलने से, मद्य आदि तीक्ष्ण पदार्थों के पीने से, रात्रि में जागने से, ठण्डी वायु के स्पर्श से, अति मैथुन से, मल मूत्रादि के उपस्थित वेग को रोकने से, उपवास से, शिर पर चोट लगने से, अतिविरेचन से, अति वमन से, आसुओं को रोकने से, शोक से, भय से, भार उठाने से, अतिमार्ग के चलने से, परिश्रम से वायु कुपित होकर सिर में गया हुआ, सिरोओं में बढ़कर शिर में महान शूल को उत्पन्न करता है। इस शूल के कारण शंख (कनपटियों) पीड़ित होते हैं, गर्दन फटती है, भ्रुवों के बीच में माथे पर बहुत बेदना होती है। और माथा बहुत गरम होता है। कानों में गुंजार (आवाज) सुनाई देती है। आंखें बाहर निकलती प्रतीत होती है, शिर घूमता हुआ प्रतीत होता है। शिर की संधियां फटती प्रतीत होती है। शिराओं के अन्दर धड़कन विशेष (स्पन्दन) रूप से प्रतीत होती है, गर्दन जड़ बन जाती है, इधर-उधर नहीं हिलाई जा सकती है ओर स्निग्ध ओर उष्ण किया आराम देता प्रतीत होती है। ये वातजन्य शिरोरोग के लक्षण है।
पित्त जन्य शिरो रोग- कडुवे, खटटे नमकीन, क्षार पदार्थों के सेवन से, शराब के पीले से, क्रोध से, धूप से, आग से, पित्त शिर में कुपित होकर शिरो रोग को उत्पन्न करता है। इसमें शिर में जलन और पीड़ा होती है तथा शीत उपचार अनुकूल पड़ता है। आंखे जलती है, प्यास होती है, चक्कर आता है और पसीना आता है। कफजन्य शिरोरोग में निरूद्योगी आलस्य का सुखमय जीवन व्यतीत करना, दिन में सोना, गुरू, भारी और स्निग्ध घी आदि युक्त पदार्थों के अति भोजन से श्लेष्मा अर्थाता कफ शिर में कुपित होकर शिरोरोग को उत्पन्न करता है। इससे शिर में धीमी धीमी वेदना होती है, शिर सोया हुआ सा प्रतीत होता है शिर जड़ हो जाता है, भारी हो जाता है। तन्द्रा, कार्य में अनिच्छा, आलस्य और भोजन में अरूचि उत्पन्न हो जाती है। त्रिदोष जन्य शिरोरोग- वात के कारण, चक्कर आना, पित्त के कारण जलन, मूर्छा और प्यास, कफ के कारण भारीपन, और तन्द्रा त्रिदोष जन्य शिरोरोग में होती है।
कृमि जन्य शिरो रोग- तिल, दूध, गुण, इनके अधिक सेवन से, अजीर्ण और सड़ा गला भाोजन करने से संकीर्ण (बहुत गड़बड़ चीजें मिलाकर) भोजन करने से शिर के वातादि दोष बढ़कर शिर में रक्त, कफ और मांस को दूषित बनाकर रोग उत्पन्न करते है। पाप करने वाले पुरूष के शिर में इस केन्द्र से कीड़े उत्पन्न होकर वीभत्स अर्थात घृणाजनक भयंकर शिरोरोग उत्पन्न करते हैं। इससे काटाने, छेदने, के समान पीड़ा, खाज, सूजन दुर्गन्ध, और बहुत अधिक कष्ट होता है। इन लक्षणों की तथा कृमियांे को देखकर कृमि रोग समझना चाहिए।
(1) शोक, उपवास, व्यायाम, (परिश्रम) रूक्ष, शुषक, और स्वल्प भोजनों से कुति होकर वायु हृदय में जाकर इसको दूषित करके तीव्र वेदना को उत्पन्न करती है। इससे कम्पन्न, ऐठन के समान बेदना, जड़ता, मूर्च्छा शून्यता (ज्ञान का आभाव) चक्कर आना आदि लक्षण वात जन्य हृदय वेदना में होते हैं। भोजन के जीर्ण होने पर ये लक्षण बहुत बढ़ जाते हैं। (2) पित्त जन्य हृदयशूल-गरम, खटटे, नमकीन, क्षार, कटु रस के अधिक सेवन से, अजीर्णवस्था में भोजन करने से, मद्यपान से, क्रोध या धूप में बैठने से या चलने से पित्त हृदय में पहुंचकर जल्दी कुपित हो जाता है, कुपित होकर तीव्र वेदना उत्पन्न करता है। इस कारण हृदय में जलन, सुख में कडुआपन, खटटे पित्तयुक्त डकार आना, बिना परिश्रम के थकान, प्यास मूर्च्छा चक्कर आना, पसीना आना, बिना परिश्रम के थकान, प्यास, मूर्छा चक्कर आना, पसीना आना ये पित्त जन्य हृदयशूल के लक्षण हैं। (3) कफजन्य हृदयशूल- बहुत परिणाम में भोजन करने से, भारी, स्निग्ध पदार्थो के सेवन से, चिन्ता न करने, या थोड़ी करने से, शारीरिक चेष्टाओं के कम करने से, दिन में वेफिकरी से सोने और अधिक सोने से कफ कुपित होकर हृदय में जाकर रस को दूषित करके हृदयशूल उत्पन्न करता है। इसके कारण हृदय सोया हुआ, सुस्त, गीले वस्त्र से ढंपा हुआ सा, भारी प्रतीत होता है और आलस्य, अरूचित उत्पन्न होती है और ऐसा मालूम होता है कि किसी ने हृदय पर पत्थर रख दिया हो। (4) त्रिदोष जन्य हृदय शूल-तीनों दोषों के मिलने से तनों दोषों के लक्षण उत्पन्न होते है, उसको त्रिदोषजन्य हृदयशूल कहते हैं। (5) कृमि जन्य- त्रिदोषजन्य हृदयरोग में जो दुरात्मा तिल, दूध, गुण (अजीणवस्था में भोजन, सड़ा हुआ भोजन, विरूद्ध भोजन आदि) सेवन करता है, उसके हृदय के एक भाग में ग्रन्थि (गांठ) उत्पन्न हो जाती हैतथा रस का सकीर्ण भाग सड़ने लगता है। सर के संकेदन से कृमि उत्पन्न हो जाते है। ये कृमि हृदय के एक भाग में उत्पन्न होकर अन्य स्थान में फैलने लगते हैं और हृदय को खाने लगते हैं। इस अवस्था में रोगी को ऐसी वेदना होती है मानों कोई उसके हृदय में सुइयां चुभा रहा है। शस्त्रों से कोई हृदय को काटता है, हृदय में बहत खाज एवं पीड़ा उठती है। इन लक्षणों को देखकर कृमिजन्य भयानक हृदयरोग को समझकर विद्वान शीघ्र मृत्यु करने वाले रोग को शान्त करने का यत्न करे।
वात आदि दोषों के परस्पर संयोग से होने वाले विकारों के वासठ (62) भेद, बढ़े हुए वात, पित्त कफ के परस्पर संसर्ग से सन्निपात जन्य तेरह (13) विकार होते है। दो दोषों की अधिकता और न्यूनता से ( वात पित्त बढ़े कफ कम हो, पित्त कफ बढ़े और वात कम हो, वात कफ बढ़े और पित्त कम हो) तीन, एक दोष की वृद्धि और दो दोष की न्यूनता से (वात बढ़े पित्त कफ न्यून, पित्त बढ़े वायु कफ न्यून, कफ बढ़े और वायु पित्त न्यून) तीन इस प्रकार सन्निपात है, हीन मध्य और अधिक भेद से ये छः सन्निपात है ( जैसे- वृद्धवात, वृद्धतर कफ और वृद्धतम वात, वृद्ध कमफ, वृद्धतर वात और वृद्धतम पित्त) और वात पित्त कफ तीनों दोषों के बढ़ने से एक प्रकार का, इस प्रकार से तेरह प्रकार के सन्निपात हैं। अब दो छोषों के भेद कहते है। बढ़े हुए वात पित्त कफ इनमें किन्ही दो दोषों के परस्पन मिलने से नौ भेद हो जाते हैं। यह संयोग एक एक दोष की वृद्धि से छः प्रकार का यथा-वृद्ध वात अधिक, वृद्ध पित्त , वृद्धपित्ताधिक, वृद्ध वात, वृद्ध वाताधिक, वृद्ध कफ, वृद्धकफाधिक, वृद्ध वात, वृद्ध पृत्ताधिक, वृद्ध कफ वृद्ध कफाधिक वृद्ध पित्त- यह छः प्रकार का। तीन प्रकार का यथा- वृद्ध समवात पित्तज, वृद्ध समवातकफज, वृद्ध समपित्तकफज। इस प्रकार से नौ प्रकार का हुआ। पृथक रूप में बढ़े हुए वात पित्त कफ से (अलग-अलग उत्पन्न हुए) रोग तीन प्रकार के होते हैं। यथा- वृद्ध वातज, वृद्ध कफज, वृद्ध पित्तज, इस प्रकार से बढ़हु हुए दोषा से 25 प्रकार के रोग उत्पन्न हाते हैं। जिस प्रकार दोषेां के बढ़ने से 25 भेद बनते है, उसी प्रकार दोषों के क्षीण होने से भी पच्चीस भेद बन जाते है। वृद्धि और क्षय द्वारा उत्पन्न भेदों के आंतरिक दोषों के अन्य भेद बतलाते है। यथा एक दोष की वृद्धि एक दोष की समता और एक दोष का क्षय। यथा वृद्ध वात, समपित्त, क्षीण कफ, वृद्ध वात, सम कफ, क्षीण पित्त, वृद्ध पित्त समवात, क्षीण कफ, वृद्ध पित्त, सम कफ क्षीण पित्त वृद्ध कफ, सम पित्त, क्ष्ज्ञीण वात, वृद्ध कफ, समवात, क्ष्ज्ञीण पित्त यह छः प्रकार। दो दोषों की वृद्धि और एक दोष का क्षय यथा- वृद्ध पित्त कफ, क्षीण वात, वृद्ध वातकफ, क्षीण पित्त, वृद्ध वात पित्त, क्षीण कफ यह तीन प्रकार का। एक दोष की वृद्धि और दो दोषेां का क्षय यथा- वृद्ध कफ, क्षीण वात पित्त, वृद्ध पित्त क्ष्ज्ञीण कफ वात, वृद्ध वात, क्षीण पित्त कफ ये तीन। इस प्रकार से ये बारह भेद उपरोक्त पचास भेद से पृथक हैं। कुल मिलाकर 62 भेद हो जाते हैं।
जिस समय कि पित्त अपनी प्रकृति में होता है और कफ क्षीण होता है उस समय वायु पित्त को उसके स्थान से लेकर शरीर में इधर-उधर दौड़ता है। जिससे कि फटने की सी दर्द, जलन, थकान, और निर्बलता उत्पन्न होती है। शरीर में कफ के प्रकृति अवस्था में होने से पित्त के क्षीण होने पर कुपित बलवान वायु कफ के साथ मिलकर वेदना, जड़ता, ठण्डक और भारीपन शरी में उत्पन्न करती है। शरीर में कफ क्षीण हो, पित्त कुपित हो, वायु प्रकृति रूप में हो तो पित्त वायु की गति बन्द करके जलन और दर्द उत्पन्न करता है। कफ समानावस्था में हो, पित्त कुपित और वायु का क्ष्य हो तो कफ को रोककर पित्त शरीर में तन्द्रा अर्थात आलस्य, भारीपन और ज्वर उत्पन्न कर देता है। कफ बढ़ा हुआ हो पित्त क्षीण, और वायु समानवस्थ हो तो कफ वायु की गति को बन्द करके ठण्डक, भारीपन और ज्वर उत्पन्न कर देता है। वायु का क्षय हो, पितत समाावस्था में हो कफ बड़ा हुआ हो तो कफ पित्त की गति को बन्द करके, मन्दाग्नि, शिर का जकड़ना, नींद का आना, आलस्य प्रलाप, हृदय रोग शरीर का भारीपन नख, ओष्ठ आंख आदि को पीलापन तथा थूक में कफ और पित्त आने लगता है। वायु क्षाीण हो और कफ एवं पित्त दोनों बढ़े हुए एक साथ मिलकर शरीर में अरूचि, अविपाक भोजन का अपचन, पीड़ा भारीपन वमन की रूचि, मुख से लार गिरना, पीड़ा, पीलापन, नशा सा, मलत्याग में विषमता, मल का कभी आना कभी नहीं आना,, इसी प्रकार अग्नि की विषमता कभी भूख लगना और कभी नहीं लगना ये लक्षण उत्पन्न करते हैं। पित्त के क्षीण हो जाने पर वायु के साथ मिलकर शरीर में जड़ता ठण्डक कभी यहा और कभी वहां, अनिश्चित स्थान पर बेदना भारीपन, अग्नि की निर्बलता, भोजन में अनिच्छा कम्पन्न नख (मल ओष्ठ आंख) में सफेद रंग और शरीर में रूक्षता अर्थात रूखापन आ जाता है। कफ के क्षीण होने पर, वायु और पित्त दोनों कुपित होकर जो लक्षण शरीर में उत्पन्न करते हैए उनको संक्षेप में सुनो। शिर में चक्कत आना ऐंठन की पीड़ा चुभने की सी दर्द, जलन शरी का फटना, कम्पन्न अंगों का टूटना, शुष्कता, पीड़ा और धूप में बैठने से जैसे अंग गरम हो जाते हैं ऐसी जलन होती है। वात और पित्त दोनों क्षीण हो केवल कफ बढ़ा हो तो सब स्रोतों को कफ रोक लेता है। इससे क्रियायें नष्ट हो जाती है। मूर्छा जीभ वाणी का बन्द हो जाना होता है। कफ और वात के क्षीण हो जाने पर पित्त की गति करता हुआशरीर के ओज को चलायमान कर देता है। शरीर में ग्लानि थान, इन्द्रियों की दुर्बलता, प्यास, मूर्छा और चेष्टाओं का नाश हो जाता है। पित्त और कफ के क्षीण होने पर वायु मर्म स्थानों को विशेष रूप में पीड़ित करती है। इसस मनुष्य की संज्ञा (चेतना) नष्ट हो जाती है अथवा मनुष्य कांपता है।
बढ़े हुए दोष अपनी शक्ति के अनुसार अपने (स्वभाविक) लक्षणों को उन्नति की अवस्था में दिखाते हैं। यथा-पित्त का स्वभाविक लक्षण उष्णत्वहैं बढ़ने पर तीव्र उष्णिमा उत्पन्न करेगा। दोष क्षीण होने पर अपने स्वाभाविक लक्षणों को छोड़ देते है। जैसे पित्त क्षीण होने से स्वाभाविक उष्णिमा नहीं रहती। समानवस्था में दोष अपना अपना काम करते हैं।
अटठारह प्रकार के क्षय-वात, पित्त कफ ये तीन दोष, रस रक्त आदि घातु मल मूत्र कान का मल इत्यादि सात मल और ओज इन (अटठारह) के क्षीण होने के लक्षण कहते है। इनमें वात, पित्त कफ के क्षीण अवस्था के लक्षण का दिये हैं। रस के क्षीण होने पर हृदय माथा बिलोया हुआ प्रतीत होता है, उंची आवाज की सहन नहीं कर सकता, हृदय जल्दी-जल्दी चलता है। पीड़ा होती है, ग्लानि होती है और थोड़ी क्रिया होती है, अथवा थोड़ी चेष्टा से भी हृदय में उक्ष्ग्निता आ जाती है। रक्त का क्षय होने पर त्वचा कठोर हो जाती हैफ फट जाती है झुर्रियां पड़ जाती है। और रूखी बन जाती है। मांस के क्षय होने पर सारा शरीर क्षीण हो जाता है। परन्तु नितम्ब, ग्रीवा और पेट विशेष रूप से पतले हो जाते हैं। अर्थात मेद चर्बी के क्षीण होने पर संन्धिया टूटने लगती है। अंगों में ग्लानि, आनलस्य आंखों पर थोन और पेट पतला हो जाता है। अस्थियों के क्षय होने पर शिर के बाल शरीर के रोम, दाढ़ी मूछ के बाल दांत नख गिरने लगते हैं। शरीर थका प्रतीत होता है। और सब सन्धियां शिथिल पड़ जाती है। मज्जा के क्षीण होने पर अस्थियां मुरझााती गिरती हुई प्रतीत होती है अस्थियां निर्बल और छोटी हो जाती है। वात रोग जोर कर जाते हैं। निरन्तर वात रोग रहने लगता है। शुक्र के क्षीण होने पर शरीर में निर्बलता, मुख में सूखापन चेहरे पर पीलास पीड़ा थकान, पुरूषत्व की न्यूनता, समभोग समय में शुक्र का आभाव रहता है। मल के क्षीण होने पर वायु आतों को दबाती दुखी करती है। शरीर के अन्दर और बाहर से रूक्ष हो ताहाह ै। वायु पेट को उपर उठाती हुई तिरक्षी या उपर को जाती है। नीचे नहीं जाती है। मूत्र के क्षय होने पर मूत्र कठिनाई से थोड़ा थोड़ा आता है, मूत्र का रंग बदल जाता है। प्यास बहुत लगती है, गला और मुख सूखता है। कान नाक आंख मुख और त्वचा इन इन्द्रियों के मलों का क्षय होने से शून्यता, ज्ञान की कमी तथा रूक्षता और हलकापन इन इन्द्रियों में अपने-अपने मल के क्षय होने से उत्पन्न हो जाता है। ओज (कान्ति) के क्षीण होने पर मनुष्य डरने लगता है, निर्बल हो जाता है, बार बार सोचने लगता है। इन्द्रियों का ज्ञान ठीक नहीं रहता, पीड़ित हो जाता है। शरीर की कान्ति बिगड़ जाती है। मन अनवस्थित हो जाता है, शरीर रूखा और दुर्बल हो जाता है।
ओज का स्वरूप- हृदय के अन्दर शुद्ध निर्मल और लाल तथा थोड़ा सा पीला रस आदि धातुओं का सार रस रहता है। उसे ओज कहते हैं। इसके नष्ट होने से मनुष्य भी नष्ट हो जाता है। जिस प्रकार कि भौरे फल और और पुष्पों से मधु का संचय करते हैं उसी प्रकार मनुष्यों के शाररिक गुणों से ओज का संग्रह किया जाता है। शरीर धारियों के शरीर में सबसे प्रथम ओज उत्पन्न होता है। यह ओज घी के सामन रंग में, मधुर रस और इसमें लाजा के सामान (धान की खील के समान ) गन्ध होती है।
क्षय के कारण- व्यायाम अधिक करना, उपवास करना, चिन्ता करना, रूक्ष, थोड़ा और एक ही रस का खाना, वायु का या धूप का सेवन, भय, शोक, रूक्ष गुणवाले पदार्थों का पीना, रात में जागना, कफ रक्त, शुक्र, मल, इनका अधिक त्याग करना, वृद्धावस्था, भूत अर्थात सूक्ष्म क्रिमि आदि का आक्रमण इन कारणों से अटठारह प्रकार का क्षय होता है।
मधुमेह का कारण- अति मात्रा में गुरू, स्निग्ध, खटटे या नमकीन, पदार्थों के खाने से नवीन (नवीन ऋतु के चावल गेंहू आदि) अन्न या नया पानी (बरसात का पानी, कुओं या नदी से पीने पर) अधिक सोने से, ऐस आराम तलबी का जीवन बिताने से, व्यायाम और चिन्ता न करने से वमन विरेचन कर्मो के न करने से, कफ पित्त मेद और मांस बहुत बढ़ जाते हैं इनके बढ़ने मार्गों के रूक जाने से वायु ओज धातु को लेकर मूत्राशय (मूत्र संस्थान में चली जाती है। तब कष्ट साध्य ‘मधुमेह’ रोग उत्पन्न होता है। बढ़े हुए वात पित्त कफ के लक्षण दीखने लगते हैं। और फिर बढ़े हुए दोषों के लक्षण प्रथम प्रकट होते हैं। कुछ समय पीछे इन्हीं दोषों की क्षीणता (क्षय) के लक्षण दीखने लगते हैं और फिर बढ़े हुए दोषों के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। इस समय उपेक्षा करने से सात भयानक पिड़कायें अधिक मांस से युक्त स्थानों में मर्म स्थानों में और सन्धियों में उत्पन्न हो जाती है।
सात पिड़कायें- शराविका, कच्छपिका, जालिनी, सर्पपी, अलजी, विनता, और विद्रधि ये सात प्रकार की पिड़कायें उत्पन्न होती है। किनारों से उंची और दबी से दबी अर्थात उदे रंग की स्रावयुक्त और पीड़ा युक्त, यह पिड़का शराव (परई, सकोरा) के आकार की होती है, इसे शराविका कहते हैं। जो गम्भीर वेदना वाली दर्दयुक्त महावस्तु का आश्रय करके रहती है (बहुत अधिक स्थान घेरा हो) ऊपर से चिकनी और कछुवे की पीठ के समान ऊपर से उठी पिड़का कच्छपी होती है। जड़ (न हिलने वाली) शिराओं के जालयुक्त चिकने स्रावयुक्त बड़े आशय में आश्रित, दर्द और चुभने की सी वेदनायुक्त तथा छोटे-छोटे छेदों से घिरी पि़का ‘जलिनी होती है। बहुत बड़ी नहीं जल्दी पकने वाली, बहुत वेदना युक्त सरसों के आकार की छोटी-छोटी पिड़काओं से धिरी पड़िका ‘सर्पपी’ है। अलजी पिड़का के उत्पन्न होने पर त्वचा जलने लगती है, तृष्णा, मूर्च्छा ज्वर होता है। रात दिन दुखी करती है, अग्नि के समान दुख से रोगी जलता है इसका नाम अलजी है। जिस में स्राव बहत गाढ़ा हो, बहुत सख्त बेदना हो, स्राव हो, पिड़का पीठ या उदर में हो, बहुत बड़ी हो दबी हुई सेी नीले रंग की पिड़का को विनता कहते हैं।
विद्रधि पिडका दो प्रकार की होती है यथा वाहय और आभ्यन्तरी इनमें वाहय विद्राधि त्वचा , स्नायु और मांस में उत्पन्न होती है, इसका आकार कण्डरा के समान होता है, इसमें बहुत वेदना होती है। अन्तः विद्राधि का निदान कहते हैं- ठण्डा भोजन, दाह करने वाला भोजन, उष्ण, रूक्ष, शुष्क भोजन के खाने से, बहुत खाने से, विरूद्ध भोजन से अजीर्णावस्था में भोजन करने से, संकीर्ण (अर्थात मिश्रण किये खाने से) विषम भोजन करने से, प्रकृति के प्रतिकूल भोजन से, व्यापन्न अर्थात दूषित भोजन से, बहुत मद्यपान से, उपस्थित वेगों को रोकने से, परिश्रम से, कुटिल व्यायाम (अंगों को अनुचित रूप से मोड़ने-तोड़ने) से, कुटिल शयन (टेढ़ा मेढ़ा सोने से ) बहुत बोझा उठाने से, बहुत मार्ग चलने से बहुत मैथुन के कारण जब मल (वात, पित्त कफ) शरीर के अन्दर मांस और रक्त में घुस जाते हैं। तब गहरी और कठोर गांठ उत्पन्न हो जाते हैं। गांठ उत्पन्न होने के स्थान- हृदय पित्ताशय, आमाशय, यकृत, प्लीहा, कुक्षि (पार्श्वों) में, वृक्कों, गुर्दों में नाभि में जांघ की संन्धियों में और वस्ति (मूत्राशय) में उत्पन्न होती है और यहां तीव्र वेदना होती है। रक्त के बहुत अधिक दुष्ट होने से विद्राधि शीघ्र विदग्ध होने लगती है, विदग्ध होने से ही इसको ‘विद्रधि’ कहते है।
वातजन्य विद्रधि में बीधने के समान, काटने से समान छेदने के तमाम पीड़ा होती है, चक्कर आता है, अफरा, शब्द सुनाई देता है, स्फरण, धड़कना और सर्पण होता है। पित्तजन्य विद्रधि में प्यास, जलन मूर्छा मद और ज्वर होता है। कफ जन्य विद्रधि में- जम्भाई, वमन, भोजन में अरूचि, शरीर की जड़ता और ठण्डक होती है। सब विद्रधियों में बहुत अधिक शूल उत्पन्न हो जाता है। गरम शस्त्रों से जिस प्रकार कोई मसल रहा हो, या गरम वस्तुओं में कोई जला रहा हो, ऐसा प्रतीत होता है। विद्रधि के पकने पर बिच्छुओं के काटने के समान दर्द होता है।
अब स्राव के लक्षण कहते हैं- स्राव के लक्षण जो स्राव पतला, रूक्ष, लाल और झागदार हो तो उसे वातज विद्रधि का स्राव, जो स्राव तिल, उड़द, कुलथी के पानी के समान हो तो पित्तज विद्रधि का और जो स्राव श्वेत, घना, चिकना और मात्रा में बहुत हो तो कफज विद्रधि का होता है। संन्निपात जन्य विद्रधि में सब दोषों के लक्षण होते हैं।
अब इन विद्रधियों के साध्य असाध्य जानने के लिए स्थानजन्य विशेष लक्षण बतलाते हैं। यथा- प्रधान मर्मस्थान (हृदय) में उत्पन्न विद्रधि में हृदय का संघटन, तमक, (आंखों के आगे अंधेरा) सांस, मूर्च्छा, कास होता है। क्लोमजन्य विद्रधि में प्यास, मुख का सूखना, गले का रूकना, यकृत, जन्य विद्रधि में श्वास और प्लीहाजन्य विद्रधि में श्वास की रूकावट और मूर्च्छा, कुक्षि में विद्रधि होने पर कुक्षि औरर पार्श्व के बीच में शूल और उसी पार्श्व के कन्धे में दर्द होता है। वृक्जन्य विद्रधि में पीठ का अकड़ना, कमर का जकड़ जाना, नाभिजन्य विद्रधि में हिचकी, वंक्षण जन्य विद्रधि में जांघों में दर्द, वस्तिजन्य विद्रधि में मूत्र में कृच्छता, दुर्गन्धयुक्त मूत्र, बदबूदार मल आता है। हृदय, क्लोम, यकृत, प्लीहा, और कुक्षि की विद्राधियों के पककर फूटने से स्राव मुख से , और नाभि के नीचे वंक्षण एवं वसित की विद्राधियों के फटने से गुदा के मार्ग से तथा नाभि की विद्रधि के फटने से मुख और गुदा दोनों मार्र्गे से स्राव बहता है। इन विद्रधियों में हृदय, नाभि और वस्ति में उत्पन्न विद्रधि के पकने पर और सन्निपात विद्रधि मृत्युकारक होती है। और विद्रधियां कुशल चिकित्सक के शीध्र प्रतिकार करने पर शान्त हो जाती है। इसलिए जल्द ही नवीन विद्रधि को जो कि शस्त्र, सर्प बिजली और अग्नि के समान पीड़ा दायक है, उसकी स्नेहन, विरेचन द्वारा शीध्र चिकित्सा करे। उनकी गुल्मों की भांति सम्पूर्ण चिकित्सा करनी चाहिए।
ये पिड़िकायें मेद के दुष्ट होने पर बिना प्रमेह के भी उत्पन्न हो जाती है, और जब तक कि ‘वास्तुपरिग्रह’ अर्थात स्थान को चारो ओर से पकड़ नहीं लेती, तब तक इनका पता नहीं चलता। शराविका, कच्छपिका, और जालिनी ये कठिनाई से सहन की जा सकती है। जिन मं कफ और मेद अधिक हाते हैं उन में ये उत्पन्न होती है और बहुत बलवान होती है। सर्पपी, विनता और विद्रधि ये पित्त की अधिकता से होती है और ये साध्य हैं, ये थोड़ी चर्बी वालों में होती है। जिस प्रमेह रोगी के मर्म (हृदय, वस्ति, और नाभि) में कन्धे, गुदा, हाथ, स्तन, सन्धियों और पांव में पिड़कायें उत्पन्न होती है, वह प्रमेह का रोगी नहीं बचता। इसी प्रकार दूसरी भी पिड़िकायें है जो लाल, पीली, काली, पाडुंर (धूसर) पीले रंग की, राख अर्थात भस्म के समान, काले वालों की छाया जैसी, कुछ मृदु, कुछ कठिन, कुछ बड़ी, कुछ छोटी, कुछ मन्द वेग, कुछ तीव्र वेग, कोई थोड़ी वेदनावाली, कोई बहुत दर्दवाली, होती है। इन वात, पित्त कफ की विद्रधियों को इनके अपने-अपने लक्षणों में पहिचानकर उपद्रवों से उत्पन्न होने से पूर्व ही चिकित्सा करनी चाहिए।
उपद्रव- प्यास श्वास, मांस संकोच, मूर्च्छा हिचकी, मद और ज्वर, वीसर्प, और हृदय आदि मर्म का अवरोध, ये पिड़िकाओं के उपद्रव है।
दोषों की गति तीन प्रकार की होती है-क्षय (घटना) स्थान (सम रहना) और वृद्धि (बढ़ना) अथवा उर्ध्व (उपर जाना,) अधः (नीचे जाना) और तिर्यक तिरछा जाना ये दूसरी प्रकार की दोषों की गति है। विधि भेद से तीन प्रकार की गति कह दी, एक और प्रकार से भी तीन प्रकार की गति होती है यथा-कोष्ठ, शाखा, एवं मर्मस्थि और संधि इनमें दोषों का संचलय, प्रकोप और शमन यह तीन प्रकार की गति है। यथा-छः ऋतुओं में एक-एक दोष की तों जातियां होती है। यथा- वर्षा ऋतु में पित्त का संचय, शरद ऋतु में प्रकोप, और हेमन्त में शान्ति। ग्रीष्म में वायु का संचय, वर्षा में प्रकोप तथा श् ारद में शान्ति। हेमन्त में कफ का संचय वसन्त में प्रकोप और ग्रीष्म में कफ की शान्ति होती है। दोषों के संचय आदि की गति दो प्रकार की है। यथा- प्राकृत और वैकृत। पित्त का वर्षा ऋतु में संचय होना प्राकृत गति है और वसन्त में संचय होना वैकृत गति है। इसी प्रकार कफ का हेमन्त में संचय होना प्राकृत और वर्षा में संचय होना वैकृत है वायु का ग्रीष्म ऋतु में संचय होना प्राकृत और शरद में संचय होना वैकृत है। प्राकृत स्वस्थावस्था, वैकृत रूग्णावस्था है, इस प्रकार से पित्त आदि दोषों की भी दो प्रकार की गति है। ननुष्यों का पाचन पित्त की ही गरमी से होता है।