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गव्यसिद्ध प्रभुनाथ मिश्र

प्रमेह रोग में कौन सी औषधि का सेवन करे ?

महर्षि वागभटट के अनुसार के प्रमेह की कुल संख्या 20 है कफ के कारण होने वाले 10 प्रकार के प्रमेह, पित्त के कारण होने वाले 6 प्रकार के प्रमेह तथा वात के कारण होने वाले 4 प्रकार के प्रमेह इनका कुल योग मिलाकर 20 प्रकार के होते हैं।
प्रमेह रोग होने के कारणः- प्रमेह आहार, पान तथा क्रिया, मेदो धातु मूत्र, तथा कफ दोष को बढ़ाने वाले होते हैं। वे सभी प्रमेह रोग उत्पन्न करने वाले होते हैं। मधुर, अम्ल, स्नेह युक्त, गुरू पिच्छिल तथा शीतल पदार्थ, नये अन्न, नयी सुरा, ईख, गुड गोरस दूध से बने पदार्थ तथा एक ही स्थान पर बैठे रहने से दिन में सोने आदि से ये सभी प्रमेह रोग के कारण होते हैं।
कफज प्रमेहः-दूषित हुआ कफ दोष सम्पूर्ण शरीर के जलीयंश, स्वेद, मेदस, तथा मांस धातु को दूषित करके स्वयं वस्ति स्थान में आकर कफज प्रमेहों की उत्पत्ति कर देता है।
पित्तज प्रमेहः– कफ आदि सौम्य धातुओं के क्षीण होने पर पित्तदोष को बढ़कर मूत्र के आश्रय भूत रक्त धातु को दूषित करके पित्तज प्रमेहों की उत्पत्ति कर देता है।
वातज प्रमेहः- अपने प्रकोपक कारणों से वातदोष दूषित होकर वसा, मज्जा आदि धातुओं को बस्ति प्रदेश में ले जाकर वातज प्रमेहों को उत्पन्न कर वसा आदि मूत्र मार्ग से निकालकर उनका विनाश कर डालता है।
कफ जनित प्रमेह दोष एवं दूष्यों की समान चिकित्सा होने के कारण साध्य होते हैं। पित्त जनित प्रमेह दोष एवं दूष्यों की चिकित्सा विषम होने के कारण याप्य होते हैं। वात जनित प्रमेह परस्पर विपरीत चिकित्सा होने के कारण त्याज्य अर्थात असाध्य होते हैं।
कफदोष की चिकित्सा है कटु, तिक्त आदि औषध द्रव्यों का सेवन करना तथा कफज प्रमेह के दूष्य हैं। मेदोधातु रक्त, शुक्र अम्बु वसा, लसिका, मज्जा, रस, ओज एवं मांस। इनकी चिकित्सा कटु, तिक्त, आदि औषध द्रव्यों से की जा सकती है अतः ये 10 प्रकार के प्रमेह साध्य होते हैं
पित्तज प्रमेह 6 होते हैं ये विषम चिकित्सा होने के कारण याप्य होते हैं। पित्त दोष की चिकित्सा मधुर आदि द्रव्यों द्वारा की जाती है परन्तु उससे मेद आदि दूष्यों की बृद्धि हो जाती है और जो मेदोधातु के नाशक कटु आदि द्रव्य है उनका प्रयोग करने से पित्त दोष की बृद्धि हो जाती है। अतः ये प्रमेह याप्य होते हैं अर्थात ये समूल नष्ट नहीं किये जा सकते।
वातज प्रमेह 4 होते हैं इन्हें महात्ययकारक कहा जाता है, अतएव ये भी विषमक्रिय होने के कारण असाध्य होते हैं।
अलग अलग प्रमेह को कैसे पहचानते हैं?
मूत्र के वर्ण तथा उसके रस आदि में भेद होने से प्रमेह में भी भेदों की कल्पना की गयी है।
प्रमेह के प्रकार
1. उदक मेहः– इसमें प्रमेह रोगी का मूत्र साफ, स्वच्छ, मात्रा में अधिक, वर्ण में सफेद, स्पर्श में शीतल, गन्धरहित, जल के सदृश तो भी कुछ मलिन, एवं चिपचिपापन रहता है।
2. इक्षुमेह– इस प्रमेह में मूत्र ईख के रस के समान मधुर होता है।
3. सान्द्र मेह– इसमें पात्र में रखा हुआ बासी मूत्र कुछ गाढ़ा हो जाता है।
4. सुरा मेहः- इसमें मूत्र सुरा के समान उपर से साफ और नीचे से गाढ़ा होता है।
5. पिष्टमेह- इसमें मूत्र चावल या गेंहू के पीठी धोअन के समान गाढ़ा और सफेद वर्ण का होता है।
6. शुक्रमेह- इसमें मूत्र शुक्र के सदृश होता है अथवा शुक्रमिश्रित मूत्र निकलता है।
7. सिकता मेहः- इसमें मूत्र बालू के सदृश दिखलाई देने वाला तथा आकार में छोटे-छोटे कणों वाला मूत्र निकलता है।
8. शीतमेह- इसमें बार-बार मूत्र निकलता है। यह मधुर तथा स्पर्श में अत्यन्त शीतल होता है।
9. शनैर्मेह- इसमें धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा मूत्र बार-बार आता रहता है।
10. लालामेह- इसमें मूत्र लार की आकृति वाला तथा चिकना होता है।
पित्तज प्रमेह
1. क्षारमेह- क्षार मेंह का मूत्र क्षार को धोये हुए जल के सदृश गन्ध वर्ण, रस एवं स्पर्श से युक्त होता है।
2. नीलमेह- इसमें निकलने वाला मूत्र प्रायः नीली आभा से युक्त होता है।
3. कालमेह- इस रोग से युक्त रोगी के मूत्र का वर्ण काली स्याही के सदृश होता है।
4. हरिद्रामेह- इस रोग में रोगी का मूत्र हल्दी के वर्ण वाला अर्थात पीला तथा कटु पदार्थ की भांति दाहयुक्त युक्त होता है।
5. मंदिष्ठमेह- इसमें निकलने वाले मूत्र से कच्चे मांस जैसी गंध आती है और इसका वर्ण मजीठ के जल के सदृश होता है।
6. रक्तमेह-इसमें मूत्र कच्चे मांस के समान गन्धवाला, स्पर्श में गरम, स्वाद में नमकीन तथा लाल वर्ण वाला होता है।
यह छः प्रमेह पित्तदोष की प्रधानता से होते हैं। ये विरूद्ध चिकित्सा वाले होने के कारण याप्य कहे गये हैं। अर्थात कुछ दिन चिकित्सा के प्रभाव से इन्हें दबाया जा सकता है न कि निर्मूल किया जा सकता है।
1. वसामेह- इसमें वसा मिश्रित मूत्र बार-बार आता है अथवा मूत्र के रूप में केवल वसा निकला करती है।
2. मज्जामेह- इसमें मज्जाधातु से मिला हुआ मूत्र अथवा शुद्ध मज्जा ही मूत्र के रूप में बार-बार निकला करती है।
3. हस्तिमेह-इसमें मूत्र में लसिका के समान पदार्थ भी निकलता है और मूत्र का निकलना भी रूक जाता है।
4. मधुमेह- इस रोग के युक्त रोगी का मूत्र मधु के सदृश होता है। मधुमेह दो प्रकार का होता है। 1. धातुओं के क्षीण हो जाने के कारण वात दोष बढ़ जाने से 2. दोषों द्वारा वातदोष का मार्ग रूक जाने से ।
प्रमेह रोग की चिकित्सा
प्रमेह रोगी का आहार
प्रमेह के रोगी को जौ के आटा से बने हुए मालपुआ, सत्तू, वाटी, दलिया, तृण धान्यों मूंग अथवा पुराने शाली धान्यों के आहार बनाकर रोगी को दें। तिल एवं सरासों की खली का बनाया हुआ श्री कुक्कुट नामक अम्ल पदार्थ के योग से बनाकर रोगी को दें। रोगी को कैथ, तिन्दुक तथा जामुन के फलों को पीसकर बनाये गये राग-खाण्डव भी इसमें लाभदायक है। सभी प्रकार के तिक्तरस, प्रधान शाक तथा सभी प्रकार के मधु, सूखे भक्ष्य पदार्थ, सत्तू लौह भस्म, पुराने अरिष्ट तथा आसव, मधु का सर्वत ये सब हितकर होते हैं।
महर्षि चकर के अनुसार उसका भोजन जौ प्रधान होना चाहिए ही वह सत्तू रोटी भात दलिया आदि किसी भी रूप में सेवन किया जाय।
प्रमेह रोगियों के लिए स्नेह – कायफल, गोखरू, हल्दी, लोध, बालवच, अर्जुन, पद्यकाष्ठ, अशमन्तक, नीम, चन्दन, अगरू, अजवायन, परबल के पत्ते नागरमोथा, मजीठ, अतीस, तथा भिलावा, इनके क्वाथ रस तथा कल्क के योग से घृतपाक बिधि से घी का और तैल पाक विधि का तेल का पाक करें। मिश्रित दोषयुक्त रोगियों के लिए घृत तैल का मिश्रित पाक करे।
इन योगों के द्वारा प्रमेह के रोगियों को प्रमेह से मुक्ति दिलायी जा सकती है।
इन प्रयोगों का वर्णन अष्टांग हृदयम में वर्णित है।